नई दिल्ली: कांग्रेस पार्टी ने दावा किया है कि नरेंद्र मोदी ने लोकसभा सदस्यों की कुल संख्या को बढ़ाकर 1,000 करने का फैसला कर लिया है.
25 जुलाई को कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने ट्वीट किया कि 1,000 सीटों की क्षमता का नया संसद कक्ष बनाया जा रहा है.
ऐसा करने से पहले ‘गंभीर सार्वजनिक विचार विमर्श’ की मांग करते हुए उन्होंने लिखा, ‘@बीजेपी4इंडिया के मेरे संसदीय सहयोगियों ने मुझे विश्वसनीय रूप से सूचित किया है, कि एक प्रस्ताव है कि 2024 से पहले लोकसभा के बल को बढ़ाकर, 1,000 या उससे अधिक कर दिया जाए. नया संसदीय चेम्बर 1000 सीटों के हिसाब से निर्मित किया जा रहा है’.
लोकसभा की मौजूदा सदस्य संख्या 543 है जिसमें से 530 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि बाक़ी केंद्र-शासित क्षेत्रों का. क्या ये संख्या बढ़ाई जा सकती है? दिप्रिंट संवैधानिक प्रावधानों पर एक नज़र डालता है.
लोकसभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व कैसा है?
संविधान की धारा 81 के अनुसार, लोकसभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिकतम 530 सदस्य हो सकते हैं, और 20 सदस्य केंद्र-शासित क्षेत्रों के प्रतिनिधि हो सकते हैं.
इसके अतिरिक्त, धारा 331 ने राष्ट्रपति को अधिकार दिया, कि वो एंग्लो-इंडियन समुदाय से दो सदस्य लोकसभा के लिए नामांकित कर सकते हैं. लेकिन, जनवरी 2020 में अधिसूचित किए गए एक संवैधानिक संशोधन के ज़रिए, एंग्लो इंडियंस को नामांकित किए जाने का प्रावधान ख़त्म कर दिया गया.
प्रांतों का समान प्रतिनिधित्व ‘समानुपातिक प्रतिनिधित्व’ प्रणाली के ज़रिए सुनिश्चित किया जाता है, जिसका फॉर्मूला धारा 81 के खंड 2 में दिया गया है. उसमें कहा गया है कि हर राज्य को लोकसभा में सीटें इस हिसाब से दी जाएंगी, कि सभी राज्यों के लिए सीटों की संख्या और राज्य की आबादी का अनुपात, ‘जहां तक मुमकिन हो’ समान रहे.
जहां तक 60 लाख से कम आबादी वाले छोटे सूबों का सवाल है, उनपर ये अनुपात लागू नहीं होता और उन्हें कम से कम एक सीट आवंटित की जाती है, भले ही उनका आबादी बनाम सीट का अनुपात उन्हें इसका पात्र न ठहराता हो.
संविधान की धारा 82 के तहत हर जनगणना के पूरा होने के बाद, राज्यों को लोकसभा की सीटों तथा राज्य विधान सभाओं के चुनाव क्षेत्रों के आवंटन में, पुन:समायोजन का प्रावधान है- जिसका बुनियादी उद्देश्य ये है कि राज्यों की जनसंख्या में हो रहे बदलावों का प्रतिनिधित्व हो जाए. इस प्रक्रिया को परिसीमन कहा जाता है.
ये संख्या स्थिर क्यों है
लेकिन, इस तथ्य से कि राज्यों का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी पर निर्भर करता है, उन राज्यों के लिए जिन्होंने जनसंख्या नियंत्रण उपायों पर ज़ोर दिया, संसद में कम प्रतिनिधित्व का ख़तरा पैदा हो गया.
इमरजेंसी के दौरान, बदनाम 42वें संविधान संशोधन ने- जिसे ‘इंदिरा का संविधान’ या ‘मिनी संविधान’ भी कहा गया- उस समय धारा 81(3) में एक नियम जोड़ दिया. इस नियम में कहा गया कि ‘जब तक साल 2000 के बाद के पहले वर्ष के जनगणना आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते, उस समय तक पिछली जनगणना के प्रकाशित हो चुके प्रासंगिक आंकड़ों से मतलब 1971 की जनगणना को माना जाएगा’.
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संशोधन में धारा 82 में भी इसी तरह का नियम जोड़ा गया, जिसके तहत पुन:समायोजन के अभ्यास पर, साल 2000 तक के लिए रोक लगा दी गई.
विभिन्न राज्यों और केंद्र-शासित क्षेत्रों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व निर्धारित करने के लिए, इस नियम ने प्रभावी रूप से जनसंख्या आंकड़ों को 1971 की जनगणना के हिसाब से स्थिर कर दिया, जो उस समय 54.8 करोड़ थी और जिसमें 27.4 करोड़ पंजीकृत मतदाता थे.
2001 में 84वें संविधान संशोधन ने इन समय सीमाओं को 2000 से बढ़ाकर 2016 तक बढ़ा दिया. उसमें कहा गया कि ऐसा ‘देश के अलग अलग हिस्सों में परिवार नियोजन कार्यक्रमों की प्रगति को देखते हुए किया जा रहा था, जो राष्ट्रीय जनसंख्या नीति रणनीति का हिस्सा थे.’
उसके बाद परिसीमन की एक क़वायद की गई. वो जुलाई 2002 में शुरू हुई और मई 2008 में समाप्त हुई, और उसे 2001 की जनसंख्या के आधार पर किया गया. उसमें देश के सभी संसदीय और असेंबली चुनाव क्षेत्रों का पुन:समायोजन किया गया. लेकिन 2001 में लगाई गई रोक की वजह से, इसमें लोकसभा या विधान सभाओं में सीटों की कुल संख्या को बढ़ाया नहीं जा सका.
क्या संख्या को पहले बढ़ाया गया है?
लोकसभा के बल को अतीत में भी संविधान के अलग अलग संशोधनों के ज़रिए बढ़ाया गया है. मसलन, मूल धारा 81 में लोकसभा सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 तय की गई थी, इसलिए 1952 में पहले सदन में 497 सदस्य थे.
1952 के बाद, कई परिसीमन क़वायदों तथा राज्यों के पुनर्गठन की वजह से, लोकसभा में विभिन्न राज्यों को आवंटित सीटों की संख्या, और उसकी कुल संख्या में बदलाव हुआ.
इसलिए मिसाल के तौर पर, मूल धारा 81 में कहा गया था कि राज्यों को बांटा जाएगा, उनके समूह बनाए जाएंगे, या उनके चुनाव क्षेत्र बनाए जाएंगे, ताकि सुनिश्चित हो सके कि हर 750,000 की आबादी के लिए कम से कम एक सदस्य हो, और हर 500,000 की आबादी के लिए एक से अधिक सदस्य न हों. दूसरे संविधान संशोधन ने 1951 की जनगणना के निष्कर्षों के आधार पर, इन आंकड़ों को बढ़ाकर क्रमश: 850,000 और 650,000 कर दिया गया.
फिर 1956 में, राज्यों के पुनर्गठन के बाद, सातवें संविधान संशोधन के ज़रिए धारा 81 की पूरी तरह कायापलट कर दी गई, जिसके तहत देश को 14 राज्यों और छह केंद्र-शासित क्षेत्रों में बांट दिया गया. 1973 में 31वें संविधान संशोधन के ज़रिए, लोकसभा सीटों की संख्या 500 से बढ़ाकर 525 कर दी गई.
समय के साथ नए राज्यों के गठन के बाद विभिन्न राज्यों का सीटों का आवंटन भी बदल गया- जिससे कभी सदन की कुल सदस्य संख्या बदल गई, और कभी उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ.
1976 तथा 2001 में हुए संशोधनों से लगी रोक के बावजूद, लोकसभा की संरचना में कुछ बदलाव जरूर देखने में आए. उदाहरण के तौर पर, उत्तराखंड जैसे नए राज्यों का गठन किया गया.
अधिक और कम- प्रतिनिधित्व
लेकिन, अकसर ये बात कही गई है कि 2031 तक आबादी के आंकड़े जिनके आधार पर फिलहाल राज्यों को संसदीय सीटें आवंटित होती हैं, छह दशक पुराने हो गए होंगे.
विशेषज्ञों ने अधिक और कम- प्रतिनिधित्व की ओर भी ध्यान आकर्षित किया है, जो इसके नतीजे में पैदा होता है. उदाहरण के लिए, हिसाब लगाया गया कि 2001 की जनगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश को 7 और सीटें आवंटित होनी चाहिएं थीं, जबकि तमिलनाडु की सात लोकसभा सीटें कम होनी चाहिएं.
इसी तरह 2011 की जनगणना के आधार पर भी हिसाब लगाया गया, जिससे वो तथ्य सामने आया जिसे शोधकर्त्ता राजनीतिक शक्ति में ‘बड़ा बदलाव’ कहते हैं. उसमें पता चला कि अगर उन आंकड़ों को लिया जाए, तो चार उत्तर भारतीय राज्यों- बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश को संयुक्त रूप से 22 सीटें और मिलनी चाहिएं, जबकि चार दक्षिणी सूबों – आंध्र प्रदेश, केरल, तेलंगाना, और तमिलनाडु को, कुल मिलाकर 17 सीटें गंवानी पड़ जाएंगी.
लेकिन, लोकसभा सीटों की संख्या में वृद्धि को अतीत में सकारात्मक नज़रिए से देखा गया है और एक्सपर्ट्स का विचार है कि इससे उस समस्या का भी समाधान हो जाएगा, कि भारत का हर सांसद बहुत बड़े चुनाव क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है.
दिसंबर 2019 में, पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने आवाज़ उठाई थी कि लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ाकर 1,000 कर दी जाए, और राज्यसभा की सदस्य संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ा दी जाए. उनका तर्क था कि भारत में निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए, मतदाताओं की संख्या ‘अनुपातहीन रूप से बहुत बड़ी है’.
मुखर्जी ने 1971 की जनगणना के बाद से, आबादी में हुई वृद्धि की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया था. उन्होंने कहा था कि 2011 की जनगणना के हिसाब से, हर लोकसभा सीट के लिए मतदाताओं की संख्या बढ़कर 16 लाख पहुंच गई है. उन्होंने कथित रूप से पूछा था, ‘संसद में एक सदस्य औसतन 16-18 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है. ऐसी स्थिति में कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि हमारे प्रतिनिधि मतदाताओं के संपर्क में रहेंगे?’
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