नई दिल्ली: कर्नाटक हाई कोर्ट ने 70 वर्षीय एक व्यक्ति को उसकी दया याचिका पर कार्रवाई में काफी देरी और एकांत कारावास में रखने के दौरान अवैध प्रक्रियात्मक खामियों के कारण सुनाई गई मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया है.
न्यायमूर्ति जी. नरेंद्र और सी.एम. पूनाचा की खंडपीठ 1988 के एक मामले पर सुनवाई कर रहा था, जहां साइबन्ना नामक व्यक्ति पर अपनी दूसरी पत्नी की हत्या का आरोप था, जबकि वह अपनी पहली पत्नी की हत्या के मामले में जमानत पर था.
मौत की सजा पाने वाले दोषी ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद खंडित फैसले के कारण हाई कोर्ट और फिर उसी अदालत के तीसरे न्यायाधीश के आदेश के खिलाफ अपील की थी. इसके बाद उन्होंने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट, राज्यपाल और आखिरकार भारत के राष्ट्रपति से संपर्क किया.
भारत के संविधान के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल को क्षमादान और क्षमादान की असाधारण शक्तियां प्राप्त हैं. हालांकि, 2013 में भारत के राष्ट्रपति ने साइबन्ना की दया याचिका को खारिज कर दिया था, जिससे उसकी मौत की सजा को हरी झंडी मिल गई थी.
हालांकि, एचसी की डिवीजन बेंच ने अब मौत की सजा को कम कर दिया है, यह मानते हुए कि याचिकाकर्ता के मामले पर फैसला करने में सात साल से अधिक की अनुचित और अत्यधिक देरी हुई, जिससे उसे बहुत आघात पहुंचा. अदालत ने 17 अगस्त को यह भी कहा कि उनका एकांत कारावास गैरकानूनी था और साईबन्ना को अपनी उम्रकैद की सजा को कम कराने का अधिकार है.
यह भी पढ़ें: क्रिकेट पिच खोदने से लेकर BJP पर कटाक्ष करने तक — तब से लेकर अब तक ठाकरे परिवार की पाक विरोधी बयानबाजी
साइबन्ना पर आईपीसी की ‘अस्तित्वहीन’ धारा के तहत मुकदमा चलाया गया
1988 में साइबन्ना ने पुलिस के सामने अपनी पहली पत्नी की हत्या की बात कबूल कर ली थी. जब वह जमानत पर था, उसने दूसरी शादी कर ली और उनका एक बच्चा भी हुआ. इसके बाद उन्हें अपनी पहली पत्नी की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई.
जब वह एक महीने के लिए पैरोल पर था, तो उसकी दूसरी पत्नी और बच्चे की हत्या कर दी गई और साईबन्ना के शरीर पर पांच जानलेवा चोटें पाई गईं.
इस घटना के बाद, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 303 (आजीवन दोषी द्वारा हत्या की सजा) के तहत एक आरोप लगाया गया था.
धारा 303 को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया क्योंकि इसे असंवैधानिक माना गया था. प्रावधान की स्थिति के बावजूद, “अस्तित्वहीन” धारा के तहत साईबन्ना का मुकदमा जारी रहा.
साईबन्ना की ओर से पेश वकील रागिनी आहूजा ने कहा कि यह न्याय के घोर उपहास का एक “क्लासिक मामला” है. उन्होंने कहा कि उनके मुवक्किल को देरी, अवैधता और प्रक्रियात्मक खामियों की तीन परिस्थितियों के कारण मुक्त किया जाना चाहिए.
आहूजा ने तर्क दिया कि दी गई स्थिति में सात साल से अधिक की व्यापक देरी हुई, जिसके कारण उनके क्लाइंट को अधिकारों से वंचित होना पड़ा. अदालत ने विभिन्न उदाहरणों को ध्यान में रखते हुए उनकी बात पर सहमति व्यक्त की, जहां राज्य और केंद्र को भेजी गई दया याचिका पर अमल नहीं हुआ.
अदालत ने कहा, “इवेंट्स की समय-सारणी राज्य सरकार और केंद्र सरकार की ओर से स्पष्ट चूक को प्रदर्शित करती है.”
उदाहरण के लिए मई 2005 में राज्य सरकार को भेजी गई याचिका पर जनवरी 2007 तक विचार नहीं किया गया- लगभग दो साल की देरी के बाद मामला निष्क्रिय पड़ा रहा.
एचसी ने कहा कि “कोई स्पष्टीकरण नहीं” था कि दया याचिका पर शीघ्रता से निर्णय क्यों नहीं लिया गया और कई अन्य उदाहरणों पर ध्यान दिया जहां राज्य सरकार और राज्यपाल के सचिवालय सहित पदाधिकारियों के माध्यम से अत्यधिक देरी हुई थी.
राज्यपाल के निर्णय को राष्ट्रपति के पास भेजने में आरोप पत्र और खंडित फैसले को आगे नहीं किया गया, जिसे अदालत ने दया याचिका से निपटने में एक “प्रक्रियात्मक दोष” बताया.
एक बार फिर 2007 और 2013 के बीच राष्ट्रपति सचिवालय में छह साल से अधिक की अस्पष्ट देरी हुई. इस समय सीमा के दौरान, याचिकाकर्ता का मामला वापस ले लिया गया और राष्ट्रपति के कार्यालय में कई बार फिर से जमा किया गया, जिस पर अदालत ने कड़ी आपत्ति जताई.
अदालत ने कहा, “केस समरी को वापस लेने और फिर से जमा करने के लिए बिल्कुल कोई तुक या तर्क नहीं है.”
यह भी पढ़ें: ‘नो फेक न्यूज प्लीज़’- मायावती का NDA और INDIA में जाने से इनकार, दोनों को बताया पूंजीपतियों का समर्थक
मृत्युदंड के मानसिक एवं शारीरिक प्रभाव
इन कई प्रक्रियात्मक देरी और खामियों के आलोक में, अदालत ने कहा कि मामले का संचयी अध्ययन राष्ट्रपति और राज्यपाल के कार्यालय द्वारा लगभग आठ साल की कुल देरी का संकेत देता है.
अदालत ने कहा, “दया याचिका ने याचिकाकर्ता के अधिकारों पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव डाला है.”
शीर्ष अदालत के पहले के एक फैसले पर गौर करते हुए, एचसी ने कहा कि मौत की सजा पाए दोषी की मानसिक स्थिति आंखें खोलने वाली होती है, जिसका आरोपी के अधिकारों पर शारीरिक और मानसिक दोनों प्रभाव पड़ता है.
इसमें कहा गया है कि किसी कैदी पर दया याचिका में देरी का असर कई मामलों में देखा गया है. वर्तमान मामले में, देरी अत्यधिक थी जिसे राज्य या केंद्र सरकार स्पष्ट नहीं कर सकी.
अदालत ने कहा कि इस प्रकार की परिस्थितियां साइबन्ना को उसकी उम्रकैद की सजा को कम करवाने का अधिकार प्रदान करती हैं.
अदालत ने बेलगावी (कर्नाटक) की जेल रिपोर्टों की भी जांच की. इसमें कहा गया कि आरोपी को अंधेरी डिवीजन में एक ही ब्लॉक में रखा गया था.
एकल ब्लॉक सिंगल-सेल कारावास की तरह है और इसे अक्सर डिटेंशन ब्लॉक के रूप में वर्णित किया जाता है.
अदालत ने कहा कि आरोपी को कानून की मंजूरी के बिना एकांत कारावास भुगतना पड़ा. इसने सिंगल-सेल कारावास के कारण याचिकाकर्ता को हुए आघात के विभिन्न उदाहरणों का उल्लेख किया, जिसमें डीहाइड्रेशन, भय साइकोसिस आदि शामिल हैं.
हाई कोर्ट ने एक पूर्व पुलिसकर्मी से जुड़े 2022 के मामले का हवाला दिया, जहां अदालत ने एकांत कारावास के दुष्प्रभावों के कारण मौत की सजा को कम कर दिया था. अदालत ने कहा कि साइबन्ना का मामला भी 2022 के मामले की टिप्पणियों के दायरे में आता है और सजा को कम किया जाना चाहिए.
(संपादन: कृष्ण मुरारी)
(अक्षत जैन नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के छात्र हैं और दिप्रिंट में इंटर्न हैं)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: आंध्र प्रदेश में बीजेपी दो घोड़ों पर सवार है- चंद्रबाबू नायडू को लुभा रही है, लेकिन नज़र जगन पर है