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Monday, 4 November, 2024
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भूस्खलन ने महाराष्ट्र के गांव को मिटा दिया, एक साल बाद भी लोग कंटेनरों में रहने के लिए मजबूर

भीषण गर्मी, टपकती छत, जुलाई 2021 को आए भूस्खलन से बचे लोग आज भी अस्थायी आश्रयों में रहने के लिए मजबूर हैं. सरकार ने जिन स्थायी घरों का देने का वादा किया था, वो पूरी तरह से तैयार नहीं हैं.

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तलिये, महाड: लीलाबाई शिरावाले ने पिछली जुलाई में महाराष्ट्र के महाड तालुका के तलिये गांव में आए विनाशकारी भूस्खलन में अपने परिवार के 12 लोगों को खो दिया था. मरने वालों में उनकी एक छह साल की पोती और एक 10 महीने का पोता भी था.

आपदा में उनका घर भी नहीं बचा.

इन बातों को एक साल बीत चुका है. लेकिन शिरावाले और इस दुर्घटना में बचे उनके परिवार के अन्य सदस्यों – बेटा, भतीजा और एक बहनोई – को घर नसीब नहीं हुआ है. गांव के बाकी बचे लोगों के साथ वो भी कंटेनर घरों या महाराष्ट्र सरकार की ओर से दिए गए अस्थायी आश्रयों में रहकर अपना गुजारा चला रहे हैं.

उन्होंने कहा, ‘हमें इस साल जून तक एक घर देने का वादा किया गया था. अब तक कुछ भी नहीं मिला है. देखते हैं, अगली मई या फिर जून-जुलाई तक घर मिल पाएगा या नहीं. कोई भी (सरकार की ओर से) हमारी खैर-खबर लेने नहीं आया है (आपदा के बाद से)’

पिछले साल जुलाई में भारी बारिश के कारण महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले सहित कोंकण क्षेत्र में एक साथ कई भूस्खलन आए थे. तलिये सबसे बुरी तरह प्रभावित होने वाले इलाकों में से एक था. 22 जुलाई, 2021 को आए एक भूस्खलन ने इस गांव को पूरी तरह से दफन कर दिया था. कथित तौर पर गांव में 32 घरों तहस-नहस हो गए था और 84 लोगों की मौत हो गई थी.

बड़े पैमाने पर खोज और बचाव अभियान चलाया गया. महाराष्ट्र सरकार ने बचे लोगों के लिए अस्थायी आश्रय के रूप में तुरत-फुरत 24 कंटेनर उपलब्ध कराए. जब दिप्रिंट ने रविवार को इन इलाकों का दौरा किया तब लगभग छह-सात परिवार आश्रयों में रहते हुए नजर आए.

अस्थाई आश्रयों को गांव की तुलना में कम ऊंचाई वाली एक जगह पर बनाया गया था. वह गांव से तकरीबन डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है.

सरकार ने पीड़ितों के पुनर्वास के हिस्से के रूप में ग्रामीणों के लिए स्थायी घर बनाने का भी वादा किया था. महाराष्ट्र हाउसिंग एंड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी (म्हाडा) इस प्रोजेक्ट के लिए कार्यकारी निकाय है.

लेकिन वादा किए गए घर अभी तक तैयार नहीं हुए हैं. जब दिप्रिंट ने प्रोजेक्ट के लिए निर्धारित साइट का दौरा किया तो वहां सिर्फ सीमेंट से बने कुछ चकौर ढांचे मिले, जो नींव ब्लॉकों की तरह नजर आ रहे थे. ये वही जगह हैं जहां फिलहाल अस्थाई आश्रय स्थल बने हुए हैं. ग्रामीणों ने दावा किया कि ये ढांचा भी इस साल मई में ही बनाया गया है, जब महाराष्ट्र के तत्कालीन आवास मंत्री जितेंद्र आव्हाड ने इस क्षेत्र का दौरा किया था.


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The cement squares at the rehabilitation site | Photo: Purva Chitnis | ThePrint
पुनर्वास स्थल पर सीमेंट स्क्वायर्स | फोटो: पूर्वा चिटणीस | दिप्रिंट

शिरावाले ने कहा, ‘महामारी से पहले हम मुंबई में किराए के मकान में रहते थे. लेकिन जब मेरे बेटे ने कोविड के दौरान अपनी नौकरी खो दी, तो हम गांव चले आए. हमने अपना सब कुछ खो दिया. हमारे पास कहीं भी जाने की ताकत नहीं बची है. हमारा परिवार, जिसके लिए हम काम करना और कमाना चाहते थे, भूस्खलन ने हमसे छीन लिया.’

ग्रामीणों ने दावा किया कि इन अस्थायी आश्रयों में जीवन मुश्किल है. उन्होंने कहा कि यहां जगह और बुनियादी सुविधाओं की कमी है. अक्सर लाइट और पंखे भी काम नहीं करते हैं. ग्रामीणों ने दिप्रिंट को बताया कि गर्मियों में उन्होंने भयंकर गर्मी का सामना किया, तो वहीं मानसून में टपकती छत ने उन्हें खासा परेशान कर दिया था. वह कहते हैं कि भूस्खलन ने न सिर्फ उनके घरों को तहस-नहस कर दिया, बल्कि कई लोगों के लिए रोजगार के अवसरों को भी छीन लिया.

गांव वालों के मुताबिक, यहां रोजगार का सबसे बड़ा जरिया खेती थी. हालांकि कुछ लोग गांव के बाहर भी नौकरी करते थे.

शिरावाले ने कहा, ‘हमने अपने खेतों को खो दिया. हमारे बेटों की नौकरी भी नहीं रही. (ये लोग सुरक्षा कर्मियों, मजदूरों, या महाराष्ट्र औद्योगिक विकास निगम में काम करते थे. उन्हें नहीं पता था कि भूस्खलन के बाद उन्हें फिर से काम पर लौटना पड़ेगा) हमने सब कुछ खो दिया. अब बस यही लगता है कि हम बेघर लोगों को ढंग का घर मिलना चाहिए. हमें कहीं नहीं जाना है’ अपने घर खो चुके कुछ लोग पहले ही अपने रिश्तेदारों के घर या कहीं और चले गए थे.

दिप्रिंट ने म्हाडा के उपाध्यक्ष अनिल दिग्गीकर और आवास सचिव मिलिंद म्हैस्कर से मैसेज के जरिए संपर्क करने की कोशिश की थी, लेकिन इस रिपोर्ट को प्रकाशित होने तक उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.

म्हाडा के रायगढ़ डिवीजन के मुख्य अधिकारी और तलिये के पुनर्वास प्रभारी नितिन महाजन ने जानकारी दी कि घरों के अगले मानसून से पहले पूरा हो जाने की उम्मीद है.

उन्होंने कहा, ‘प्लिंथ के निर्माण का काम पहले ही शुरू हो चुका है. वहीं मकानों का कुछ हिस्सा फैक्ट्री में बन रहा हैं. हमें बस उन्हें साइट पर इकट्ठा करके लगाना होगा.’

महाजन ने निर्माण में देरी के लिए जगह की पहचान और भूमि अधिग्रहण के मुद्दों को जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने बताया, ‘समय लगता है. हम हर परिवार को 600 वर्ग फुट का घर देने जा रहे हैं. और यह प्री-मानसून (अगले साल) तक हो जाएगा.’

महाड के शिवसेना विधायक भरतशेत गोगावाले ने दिप्रिंट को बताया, ‘हां, यह (निर्माण) अभी तक चल रहा है. हम इस पर गौर कर रहे हैं.’

बॉक्स में बने घर

तलिये के बचे हुए लोगों को राज्य सरकार की ओर से मुहैया कराए गए अस्थायी आश्रय 20 फीट x 10 फीट x 10 फीट के बॉक्स हैं, जिनकी दीवारें और छत एस्बेस्टस से बनी हैं.

इन आश्रयों में पंखे, ट्यूबलाइट, सिलेंडर (एलपीजी), पानी की टंकियां और एक छोटी सी खटिया भी दी गईं थीं. ग्रामीणों ने बताया कि इनमें से ज्यादातर चीजें टूट गई हैं.

यहां रह रही सविता गंगवने ने कहा, ‘जरा पंखे की ओर देखो. यह जंग खाकर गिर गया है.

उसने बताया, ‘अब हम पांचों के लिए बस एक ही पंखा है. गर्मी के दिनों में बड़ी मुश्किल होती थी. पूरा कंटेनर गर्म हो जाता था. मच्छर भी बहुत हैं. बारिश के मौसम में छत से भी पानी टपकता था और फर्श से भी पानी अंदर आ रहा था. यहां रहना हमारी मजबूरी है.

एक अन्य ग्रामीण अनीता कोंडलकर ने कहा, ‘पिछले पांच महीनों से ये ट्यूबलाइट भी काम नहीं कर रही हैं. लेकिन जब तक वे हमें एक घर नहीं देते, तब तक हमें कहीं नहीं जा सकते हैं’. उसने अपनी खाट की ओर इशारा करते हुए कहा, एक और चीज है जो टूट गई है.

Anita Kondalkar outside an extension she built to her container | Photo: Purva Chitnis | ThePrint
अनीता कोंडलकर ने अपने कंटेनर में बनाए गए एक्सटेंशन के बाहर | फोटो: पूर्वा चिटणीस | दिप्रिंट

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पिछले साल आए विनाशकारी भूस्खलन के बारे में बात करते हुए उसने कहा, ‘मैं, मेरा पति और बेटा सभी बच गए, क्योंकि हम भाग गए. मेरी सास मुंबई में थी इसलिए वह भी बच गई.

बचे हुए हर एक परिवार को एक कंटेनर दिया गया है. हालांकि कंटेनर परिवार में सदस्यों की संख्या के आधार पर दिए गए है. दिप्रिंट ने देखा कि प्रत्येक में औसतन चार लोग रहते हैं.

शिरावाले और कोंडलकर जैसे कुछ लोगों ने अपने कंटेनरों का विस्तार किया है.

शिरावाले ने कहा, ‘हमने बांस लगाया है और बरामदे को (कुछ जगह बनाने के लिए) बढ़ा लिया है.’

विस्थापित ग्रामीणों को पानी की समस्या से भी दो-चार होना पड़ रहा है. ‘अभी हमारे पास पानी है (पहाड़ी के नीचे एक कुएं से). लेकिन गर्मियों में जब कुआं सूख जाता है, तो काफी मुश्किल होती है. टैंकर बुलाना पड़ता है.’

कुएं तक पैदल चल कर जाना भी एक समस्या है. उन्होंने कहा, ‘हम बूढ़े लोग हैं. अपने सिर पर पानी के बर्तन भर कर लाना संभव नहीं है. और न ही हम 2 किमी नीचे कुएं तक चल सकते हैं. मेरी बहू गर्भवती है, वह भी पानी नहीं ला सकती.’

जाएं तो जाएं कहां

गांव वालों ने आरोप लगाया कि भूस्खलन के बाद से सरकार की ओर से कोई भी उनकी खैर-खबर लेने नहीं आया है. वे मुंबई और अन्य जगहों के रिश्तेदारों से मिलने के लिए भी तरस रहे हैं. क्योंकि अगर वो मिलने भी आए तो उन्हें ठहराएंगे कहां.

गंगवने ने कहा, ‘मुंबई से हमारे रिश्तेदार हमारे पास नहीं आ रहे हैं क्योंकि हमारे पास रहने के लिए जगह नहीं है. वो आयेंगे भी तो सोयेंगे कहां? न तो गर्मियों में और न ही अब, कोई हमसे मिलने नहीं आया.’

उसने कहा, ‘हमारे पास खुद जगह नहीं है, हम उन्हें कहां ठहराएंगे? पंखे काम नहीं करते और रात में मच्छरों की वजह से सो भी नहीं पाते.

Savita Gangawane at the shelter | Photo: Purva Chitnis | ThePrint
आश्रय में सविता गंगवने | फोटो: पूर्वा चिटणीस | दिप्रिंट

इनमें से कईयों के पास तो आमदनी का कोई जरिया भी नहीं है. भूस्खलन के बाद कई लोगों ने अपनी नौकरी खो दी और अब उन्हें नई नौकरी ढूंढ़ने में मुश्किलें आ रही है.

शिरावाले ने कहा, ‘यहां हमारे कितने बच्चे रोजगार पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. वैसे कुछ तो मुंबई या महाड़ वापस चले गए हैं.’ वह आगे कहती हैं, ‘हमने अपना सब कुछ खो दिया और मेरा बेटा महाराष्ट्र औद्योगिक विकास निगम (एमआईडीसी) में काम कर रहा था, उसने इस त्रासदी के बाद अपनी नौकरी खो दी.’

जिन परिवारों ने भूस्खलन में अपने परिवार वालों को खोया है उन्हें राज्य सरकार से 5 लाख रुपये का मुआवजा मिला है. इसी पैसे से उनके परिवार का गुजर-बसर चल रहा है.

उन्होंने बताया, ‘हम फिलहाल सरकार की ओर से मिले मुआवजे और यहां-वहां से कुछ पैसे उधार लेकर जिंदा हैं. सरकार को हमारे युवाओं के लिए नौकरियां दिलाने में मदद करनी चाहिए.’

शिरावाले ने कहा, ‘हम सरकार से मिले इस कंटेनर में रह सकते हैं, लेकिन खाएं क्या? अब हमारे पास खेत भी नहीं है और सब कुछ फिर से शुरू करने के लिए बहुत सारे पैसे की जरूरत होती है.’

कोंडलकर के अनुसार, उन्हें अक्सर सरकार से मिलने वाले एलपीजी सिलेंडर को फिर से भरवाना भी मुश्किल हो जाता है. रिफिल कराने के लिए करीब 1100 रुपये चाहिए. उन्होंने कहा, ‘हम चूल्हे पर खाना पकाने की तरफ फिर से वापस आ गए हैं.’

तलिये के निवासियों ने दिप्रिंट से कहा कि उन्हें ऐसा लगता है जैसे उन्हें समाज से निकाल दिया गया है.

गंगवने ने कहती हैं,‘हम किससे शिकायत करें? सरकार को हम पर ध्यान देना चाहिए. हम बहुत खराब परिस्थितियों में रह रहे हैं. हमारा वनवास खत्म ही नहीं हो रहा है.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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