नई दिल्ली: 2 रुपये का नोट, एक टायर और कार की चाबियों का एक सेट. ये उन सबूतों का हिस्सा थे जिनकी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने 1996 के लाजपत नगर विस्फोट मामले में दो लोगों को बरी किए जाने के फैसले को पलटते हुए उसे आजीवन कारावास की सज़ा में बदल दिया.
गुरुवार को – राष्ट्रीय राजधानी के सबसे व्यस्त बाजारों में से एक में विस्फोट के 27 साल बाद – जिसमें 13 लोगों की मौत हो गई और कई लोग घायल हो गए – शीर्ष अदालत की तीन-पीठ के न्यायाधीश ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 22 नवंबर के फैसले के खिलाफ मोहम्मद नौशाद और जावेद अहमद द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया. 2012 के फैसले ने ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा जिसमें उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी.
इसी फैसले में जस्टिस बी.आर. गवई, विक्रम नाथ और संजय करोल ने हाईकोर्ट के निष्कर्षों को पलटते हुए दो और आरोपियों – मिर्जा निसार हुसैन और मोहम्मद अली भट्ट – को बरी करने के खिलाफ दिल्ली पुलिस की अपील को स्वीकार कर लिया और उन्हें अधिकारियों के सामने आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने चारों को बिना छूट के आजीवन कारावास की सजा सुनाई, जिससे यह सुनिश्चित हो गया कि वे समय से पहले रिहाई के लिए आवेदन नहीं कर सकते – यह उपाय केवल उन दोषियों के लिए उपलब्ध है जो 14 साल से अधिक जेल में बिताते हैं.
अपने 190 पन्नों के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ सार्वजनिक गवाहों के न होने के कारण ही अदालत को पुलिस गवाहों के अभियोजन या गवाही को खारिज नहीं करना चाहिए. अदालत ने पुलिस द्वारा दिए गए बयानों, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों और आरोपियों के कन्फेशन स्टेटमेंट की समीक्षा की ताकि यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि चारों विस्फोटों को अंजाम देने के लिए रची गई साजिश का हिस्सा थे.
ऐसी परिस्थितियों में, अदालत ने कहा, सार्वजनिक गवाहों की अनुपस्थिति मात्र से “ढेर सारे” परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर संदेह नहीं किया जा सकता, जो इसके मुताबिक, पुलिस गवाहों की “सच्ची” गवाही के माध्यम से स्थापित किया गया था. पीठ ने कहा कि जांच के दौरान और मुकदमे के दौरान दर्ज किए गए पुलिस अधिकारियों के बयानों ने जांच में “विश्वास” जगाया.
21 मई 1996 को हुए विस्फोट पर पर्दा डालते हुए पीठ ने कहा, “रिकॉर्ड में उपलब्ध सबूतों के मामले में गवाह की गुणवत्ता महत्वपूर्ण है, न कि संख्या.”
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मामले की जांच दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल को सौंपी गई, जिसने 17 लोगों को आरोपी बनाते हुए चार्जशीट दाखिल की. जबकि 17 में से एक की मृत्यु हो गई, सात को कभी मुकदमे का सामना नहीं करना पड़ा और उन्हें घोषित अपराधी करार दे दिया गया.
ट्रायल कोर्ट द्वारा जिन 10 लोगों पर मुकदमा चलाया गया, उनमें से चार को बरी कर दिया गया, जबकि दो को आंशिक रूप से दोषी ठहराया गया और जेल की सजा सुनाई गई, जितनी के वे मुकदमे के दौरान पहले से ही काट चुके थे.
इन निर्णयों के विरुद्ध कोई अपील दायर नहीं की गई.
हालांकि, उसी ट्रायल कोर्ट ने नौशाद, हुसैन, भट और अहमद को दोषी ठहराया. जबकि पहले तीन को मौत की सजा सुनाई गई थी, अहमद को आजीवन कारावास दिया गया था.
अंततः चारों ने उच्च न्यायालय के समक्ष अपनी दोषसिद्धि की अपील की, जिसने हुसैन और भट के मामले में निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए नौशाद और अहमद की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया.
जबकि नौशाद और अहमद ने अपनी दोषसिद्धि को गलत माना, वहीं दिल्ली पुलिस ने उनकी सजा कम करने के उच्च न्यायालय के तर्क पर सवाल उठाया और हुसैन व भट के मामले में फैसले को उलटने की भी मांग की.
कार की चाभियां, एक टायर – अदालत ने किस पर भरोसा किया
दिल्ली पुलिस के अनुसार, विस्फोटों के लगभग एक सप्ताह बाद 1 जून 1996 को गुजरात पुलिस द्वारा अहमद की गिरफ्तारी के साथ विस्फोट के मामले की जांच में सफलता मिली. जबकि एजेंसी ने मामले के सिलसिले में पहले ही कश्मीर से दो अन्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया था, अभियोजन पक्ष के अनुसार, गुजरात पुलिस के सामने अहमद के खुलासे से अंततः उन्हें मामले को सुलझाने में मदद मिली.
इसके बाद हिरासत में लिए गए कई लोगों में नौशाद भी शामिल था, जिसे विस्फोट के 24 दिन बाद 14 जून 1996 को गिरफ्तार किया गया था. पुलिस के मुताबिक, नौशाद को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार किया गया, जहां वह गोरखपुर के लिए ट्रेन पकड़ने वाला था और उसने साजिश में अहम भूमिका निभाई थी.
अपने फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात पुलिस के सामने अहमद के कबूलनामे पर काफी हद तक भरोसा किया, जिसे एक मजिस्ट्रेट के सामने भी दर्ज किया गया था – पीठ के अनुसार, जो बरामदगी अंततः की गई, उसने बयान की पुष्टि की.
अदालत ने कहा कि इनमें जावेद द्वारा आपूर्ति किया गया आरडीएक्स भी शामिल है जो नौशाद और उसके एक पड़ोसी के घर से मिला था, जिसे सार्वजनिक गवाह बताया गया था, लेकिन मुकदमे के दौरान वह मुकर गया.
इसमें अन्य महत्वपूर्ण सबूतों का भी हवाला दिया गया – चोरी की कार का एक अतिरिक्त टायर जिसमें बम लगाया गया था, वाहन की ओरिजिनल रजिस्ट्रेशन प्लेट जो आरोपी की निशानदेही पर मिली थी, घटना के बाद मिली कार की अतिरिक्त चाभियां, 2 रुपये का नोट जिसका इस्तेमाल उत्तर पश्चिम दिल्ली में किसी से हवाला का पैसा इकट्ठा करने के लिए किया गया, और एक ड्रिल मशीन जिसका उपयोग विस्फोट के लिए इस्तेमाल किए गए सिलेंडर में छेद करने के लिए किया गया था.
इसके अलावा, अदालत ने कहा, आरोपियों ने महत्वपूर्ण स्थानों की भी पहचान की थी, जैसे कि वह इलाका जहां से उन्होंने कार चुराई थी, वह स्थान जहां विस्फोट के लिए कार खड़ी की गई थी, और विभिन्न दुकानें जहां से उन्होंने बम बनाने के लिए आवश्यक चीजें खरीदी थीं.
‘परिस्थितिजन्य साक्ष्य’
अपने बचाव में, अभियुक्तों ने तर्क दिया कि उन्हें केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता है और किसी भी समय पुलिस के पास स्वतंत्र गवाह नहीं थे – चाहे वह गिरफ्तारी या बरामदगी के समय ही क्यों न हो. उन्होंने तर्क दिया कि यहां तक कि जिन लोगों को सार्वजनिक गवाह के रूप में बताया गया था, उन्होंने कभी भी अदालत में अभियोजन मामले का समर्थन नहीं किया.
अभियोजन पक्ष ने मुकदमे के दौरान 107 गवाहों से पूछताछ की थी, जिनमें से 28 पुलिस अधिकारी थे.
हालांकि, अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि मामले में आरोपी के खिलाफ परिस्थितिजन्य साक्ष्य पूरी तरह से बनाए गए थे और बचाव पक्ष के इस तर्क को खारिज कर दिया कि स्वतंत्र गवाह की अनुपस्थिति में कोई भी दोषसिद्धि बरकरार नहीं रखी जा सकती.
एससी पीठ ने कहा, “हम खुद को इस पहलू पर उच्च न्यायालय के तर्क से सहमत पाते हैं क्योंकि अदालतें इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं कर सकती हैं कि गंभीर अपराध से जुड़े मामलों में, लोग पुलिस कार्यवाही और अनगिनत और अंतहीन अदालती सुनवाई से होने वाली परेशानी से बचने के लिए इस प्रक्रिया में शामिल होने से बचते हैं.”
वर्तमान मामले में, कई गवाह तुर्कमान गेट क्षेत्र से थे, जहां एक आरोपी नौशाद रहता था, अदालत ने दिल्ली पुलिस के वर्ज़न को स्वीकार करते हुए कहा कि क्षेत्र के कई निवासी पुलिस जांच में शामिल होने के इच्छुक नहीं थे.
पीठ ने कहा कि अधीनस्थ अदालतों ने भी इसी तरह की टिप्पणी की थी और कहा था कि गवाहों ने ऐसे मुकदमे के दौरान सच्चाई नहीं बताई थी.
पीठ ने पुलिस अभियोजन से न जुड़ने में आम जनता की “उदासीनता” पर अफसोस जताते हुए कहा, “अदालतों ने कई मौकों पर इस घटना पर अफसोस जताया है और साथ ही कहा है कि सार्वजनिक गवाहों की अनुपलब्धता के कारण अदालत को अभियोजन या पुलिस गवाहों की गवाही को खारिज नहीं करना चाहिए.” .
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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