मरे हुए लोग आंखों के सामने आ रहे हैं, मार दिए गए लोगों का नाम बार-बार जुबान पर आ रहा है, यादें ऐसी उलझन भरी बन चुकी हैं कि हर समय एक असमंजस की स्थिति बनी रहती है. लोग मर चुके हैं लेकिन अपने पीछे एक ऐसी पूरी दुनिया छोड़ चुके हैं कि उनके सहारे दूर बैठे लोग उन तक पहुंचते हैं और उनके दंशमयी जीवन को दर्ज करते हैं. लेकिन इस काम में लगे लोगों की जिंदगी ही एक विचित्र स्थिति में पहुंच जाती है. इन्हीं बातों को और समाज की सच्चाई को पत्रकारिता के पेशे के अंतर्विरोधों के जरिए पेश करने का काम लेखक चंदन पाण्डेय ने अपनी हालिया किताब कीर्तिगान में किया है.
मॉब लिंचिंग शब्द भारत में बीते कुछ सालों में हर तबके और वर्ग के लोगों के बीच पहुंच चुका है. ये शब्द जितना वीभत्स है उतनी ही वीभत्सता के साथ इसे बीते कुछ सालों में अंजाम दिया गया है. भीड़ ने सैकड़ों लोगों की हत्या कर दी है. वैचारिक और धार्मिक उन्मादियों की असंख्य भीड़ किसी पर भी टूटने को तैयार हो चुकी है और वो जब चाहे अपना शिकार ढूंढने में लग जाती है.
उन्माद के सहारे बढ़ता समाज उस दोराहे पर है जहां वो धार्मिकता के सहारे कट्टरता को पोषित कर रहा है और ऐसा जहर खोल रहा है जिसने पूरे मुल्क को विषाक्त कर दिया है. भीड़ हत्याओं के दौर में साहसिकता के साथ इस सच्चाई को लेखक ने दर्ज किया है.
चंदन पाण्डेय की किताब कीर्तिगान समाज में फैले उन्माद और भीड़ द्वारा की जा रही हत्याओं के मनोविज्ञान की जड़ों की कथात्मक ढंग से शिनाख्त करता है.
चंदन पाण्डेय कहते हैं, ‘आप पहले जिंदगी के साथ खेलते हैं फिर वह आपके साथ खेलना शुरू करती है, जितना बड़ा खेल आपने उसके साथ खेला होता है, जिंदगी उतना ही बड़ा नजीर बनाकर आपको दुनिया के सामने पेश करती है. यही मुझे इस उपन्यास के जरिये दुनिया के सामने रेखांकित करना था.’
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कीर्तिगान और मॉब लिंचिंग
किताब में पत्रकारिता जगत के अंदर के संघर्ष और उसके बाहर की दुनिया के अंतर्द्वंदों को रेखांकित किया गया है. लेखक भले ही किताब की शुरुआत में कहे कि उनके उपन्यास के पात्र, घटनाएं, संवाद काल्पनिक हैं लेकिन हकीकती दुनिया से जितना उन पात्रों का संबंध है उसे कोई भी जागरूक और समझदार इंसान नकार नहीं सकता.
चंदन पाण्डेय भारत में मॉब लिंचिंग की घटनाओं का समग्र विश्लेषण करते हुए अपने पात्रों को देशभर के उन हिस्सों में पहुंचाते हैं जहां भीड़ ने मिलकर शोषित लोगों की हत्या कर दी है. ये हत्याएं कभी गौ मांस के नाम पर हुई हैं तो कभी सिर्फ मुट्ठी भर भात (चावल) के लिए. लेकिन जब लेखक अपने पात्रों के सहारे पीड़ितों तक पहुंचते हैं तो एक अंतर्द्वंदों से भरा संसार सामने आता है. और वह स्थिति कीर्तिगान पत्रिका में काम करने वाले पत्रकारों को भी अजीब सी स्थिति में ला देता है.
और इसी क्रम में पीड़ित परिवार का दुख कुछ इस तरह उभरता है:
‘हम लोग गरीब न होते, कमजोर न होते तो क्या तब भी टप्पू मंडल मेरे पति को छूने की हिम्मत करता? सोचती हूं कि अंसारी साहब की अम्मी होतीं तब वे क्या सोचतीं, क्या वे यह सब देखने के बाद जिन्दा रह भी पातीं ‘
लेखक ने एक ऐसा किरदार गढ़ा है जो बतौर पत्रकार अपनी नौकरी बचाने के लिए उस काम को करने के लिए भी तैयार हो जाता है जो उसे पसंद नहीं है लेकिन जब वो उस काम से जुड़ता है तो उसकी जिंदगी बदल जाती है. यहीं एक प्रेम कहानी भी पनपती है जो इतनी अनसुलझे तौर पर बढ़ती है कि वो स्थिति को और पेचीदा बनाती चलती है.
लेकिन मॉब लिंचिंग के अक्स तले लेखक ने परिवार नाम की संस्था और उसकी जरूरत को बेहतरीन ढंग से पेश किया है. किताब में लेखक लिखते हैं, ‘परिभाषाओं में परिवार भले ही समाज की इकाई हो लेकिन जब वह समाज विषाक्त हो चुका हो तब व्यक्तियों के अलावा परिवार नाम की स्थापना ही समाज के मुकाबिल खड़ी हो पा रही थी.’
चंदन पाण्डेय लिखते हैं, ‘उन्माद के जाल की पैमाइश में जुटे एक पत्रकार की उथल-पुथल भरी जिंदगी की कथा है- कीर्तिगान, जो उस वक्त और उलझ जाता है जब भीड़-हत्याओं और उनसे जुड़े लोगों से मिलते हुए उसके लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष का भेद मिट जाता है. उसकी दुनिया उन लोगों से भर जाती है जो या तो इस दुनिया में नहीं है या उन भीड़-हत्याओं से जुड़े हैं.’
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साहसिक हस्तक्षेप
कीर्तिगान एक ऐसी दारुण्य कथा है जहां एक तरफ भीड़ हत्याओं से जुड़ी उन जगहों का विस्तृत औपन्यासिक ब्योरा दिया गया है वहीं दूसरी तरफ संवेदनशील मानवीय मसलों पर उसकी व्यावसायिक निष्ठुरता से रू-ब-रू कराता है.
लेखक चंदन पांडेय ने हाल ही में कहा था, ‘इस पुस्तक को लिखने की प्रेरणा मुझे इडा बी विल की पुस्तक रेड रिकॉर्ड से मिली, जो 1894 में अमेरिका में हुई मॉब लिंचिंग पर आधारित है. यह अमेरिका का वह समय था जब लोग मॉब लिंचिंग देखने के लिए छुट्टियां लिया करते थे और अपने बच्चों को कंधों पर उठाकर मॉब लिंचिंग दिखाने ले जाते थे. उस समय लाखों लोग मॉब लिंचिंग से मारे गये थे.’
मॉब लिंचिंग जैसे गंभीर विषय पर चंदन पाण्डेय की ये दूसरी किताब है. इससे पहले वे वैधानिक गल्प नाम से किताब लिख चुके हैं. दिप्रिंट ने उस समय वैधानिक गल्प पर विस्तार से लिखा था. इस विषय पर वे आने वाले समय पर एक और किताब लिखने वाले हैं.
लेखक ने भाषायी तौर पर जितना अपनी पहली किताब में पाठकों को समृद्ध किया उसके मुकाबले ये किताब थोड़ी कमजोर नज़र आती है. लेकिन गंभीर विषय की तरफ ध्यान जिस ठोस ढंग से उन्होंने दिलाया है, वो मानीखेज और पठनीय के साथ साहस भरा भी है. और इस किताब के कवर ने तो सबका ध्यान अपनी ओर खींचा ही है.
लेखक ने सामाजिक तौर पर इतने मुश्किलात भरे समय को दर्ज करने का साहस दिखाया है. क्योंकि मॉब लिंचिंग जैसे विषय पर अंग्रेज़ी में तो काफी काम हो चुका है लेकिन हिन्दी में इस पर ज्यादा मुकम्मल काम नहीं हुआ है.
चंदन पाण्डेय ने साफ तौर पर उस लकीर को खींचने और पहचनाने का काम किया है, जिस आधार पर एक भीड़ की मानसिकता तैयार होती है. ऐतिहासिकता और राजनीतिकता की बहस को वे इतनी बारीक ढंग से पेश करते हैं कि पाठक के लिए स्थिति विचारणीय हो जाती है.
किताब में एक जगह वे लिखते हैं, ‘भीड़, यह भीड़, खुदा न करे किसी के घर पहुंचे और रात को सोते से जगा लाए, फिर मार डाले, लेकिन जिस किसी के घर पहुंचेगी वही इनकी ताकत, इनकी तैयारियां जान सकता है. उनमें कई तो दुर्भाग्य से इस देश का बचा-खुचा भविष्य हैं.’
यहीं से एक सवाल भी उभरता है कि हम किस तरह के भविष्य को अपने वर्तमान में पोषित कर रहे हैं. क्या धर्म और उन्माद के नाम पर पली-बढ़ी पीढ़ी आने वाले समय को बेहतर कर पाएगी?
(‘कीर्तिगान’ किताब लेखक चंदन पाण्डेय ने लिखी है जिसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है)
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