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Friday, 26 April, 2024
होमदेशजनसंघ का वो नेता जिसकी थ्योरी बदल मोदी बन गए नंबर वन

जनसंघ का वो नेता जिसकी थ्योरी बदल मोदी बन गए नंबर वन

दीनदयाल उपाध्याय के 'एकात्म मानववाद' विचार पर चलने का दावा करने वाली बीजेपी उनके विचारों के भाव को आत्मसात करने की जगह उसके शाब्दिक अर्थ पर चल रही है.

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क्या आपको पता है ग्राम ज्योति योजना, ग्रामीण कौशल योजना, स्वनियोजन योजना में कॉमन बात क्या है ? यह सारी योजनाएं मोदी सरकार ने लांच की है. और इन सबका नाम दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर रखा गया है. इन कल्याणकारी योजनाओं की स्थिति क्या है और इससे देश को कितना फायदा हुआ है इस पर बात कभी और. आज बात दीन दयाल उपाध्याय की.

कौन हैं दीन दयाल उपाध्याय

1916 में यूपी के मथुरा में पैदा हुए दीन दयाल उपाध्याय 1937 में कानपुर के दीनदयाल सनातन धर्म कॉलेज में पढ़ने के दौरान आरएसएस के संपर्क में आ गए थे. वे प्रादेशिक सेवाओं के लिए चुन लिए गए थे, लेकिन आरएसएस में उनका मन इतना रम गया था कि उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ आरएसएस को फलने-फूलने में अहम योगदान दिया. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1951 में जनसंघ की स्थापना की. लेकिन उसके दो साल बाद ही उनकी मृत्यु हो गई. उसके बाद 1953 से लेकर 1967 तक दीनदयाल उपाध्याय जनसंघ का प्रमुख चेहरा बने रहे. 1980 में इसी जनसंघ का नाम बदलकर भाजपा कर दिया गया.

मोदी और नेहरू के बीच दीन दयाल उपाध्याय की बात

अगर मोदी सरकार के पिछले साढ़े चार सालों के कार्यकाल को देखें तो प्रधानमंत्री मोदी ने किसी नेता की सबसे ज़्यादा आलोचना की है तो वो देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ही हैं. चाहे वो 1948 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में नेतृत्व करने वाले जनरल थिमय्या का नेहरू द्वारा अपमान करने का मुद्दा हो या फिर जेल में बंद भगत सिंह से नेहरू के नहीं मिलने का आरोप. प्रधानमंत्री मोदी के निशाने पर हर वक्त नेहरू ही रहे हैं. इसके अलावा पिछले साल जनवरी में, मध्य प्रदेश में सत्ता में रही बीजेपी की ओर से एक पुस्तक प्रकाशित  की गयी. इसमें नेहरू को ‘सत्ता का लालची’ बताया गया. किताब का नाम है ‘मेरे दीनदयाल’. इसमें नेहरू को देश के बंटवारे के लिए मोहम्मद अली जिन्ना के साथ ज़िम्मेदार भी ठहराया गया.

नेहरू और दीनदयाल उपाध्याय

1947 में हमारा देश आज़ाद हो चुका था. और देश के प्रधानमंत्री नेहरू के सामने देश को संभालने और आगे ले जाने के लिए समाजवाद, मार्क्सवाद, पूंजीवाद जैसे मॉडल थे. चुंकि नेहरू को आम जनता का समर्थन हासिल था इसलिए वो किसी भी मॉडल को अपना सकते थे. उन्होंने समाजवाद और साम्यवाद के मॉडल को चुना. नेहरू की नीतियों का विरोध उस समय के कई विद्वानों ने किया. लेकिन दीनदयाल उपाध्याय ने न केवल विरोध किया, बल्कि एक वैकल्पिक मॉडल भी प्रस्तुत किया. वो था ‘एकात्म मानववाद.’ जनसंघ ने 1965 में ही एकात्म मानववाद की विचारधारा पर चलने का निश्चय किया था. बाद में भाजपा ने भी इसे अपना आधिकारिक सिद्धांत मानकर दीनदयाल के बताए मार्ग पर चलना शुरू किया.

‘एकात्म मानववाद’ क्या है

दीनदयाल उपाध्याय के इस विचार ने बीजेपी को चलने के लिए एक रास्ता बनाया. इस थ्योरी के मुताबिक साम्यवाद, पूंजीवाद और समाजवाद के अलावा भारत को एक ऐसे विकल्प की तलाश करनी चाहिए, जिसके मुताबिक इंसान को केंद्र में रखा जा सके. उसको एक इकाई मानकर उसके समग्र ज़रूरतों जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, को ध्यान में रख कर उसका सतत विकास किया जा सके. उनके विचारों में हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना नहीं थी. वो धर्म को हमारे सांस्कृतिक विकास की तरह देखते थे, जिसके मुताबिक हमें अपनी समस्याओं को सामाजिक संस्कृति के सहारे हल करना चाहिए.

लेकिन बीजेपी ने क्या किया

दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर बीजेपी ने योजनाओं के नामकरण किए. स्टेशन (मुगलसराय) के नाम बदले. लेकिन बीजेपी पिछले पांच सालों में एक ही नाम के सहारे अपनी नैय्या पार कराने में लगी है. मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने से लेकर, पोस्टर, नारे हर जगह एक ही नाम दिखाई देता है. इससे यह प्रतीत होने लगा है कि दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानववाद’ विचार पर चलने का दावा करने वाली बीजेपी उनके विचारों के भाव को आत्मसात करने की जगह उसके शाब्दिक अर्थ पर चल रही है.

हाल की घटना के देखे तो पिछले दिनों लोकसभा में प्रस्तुत हुआ अंतरिम बजट इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. जहां सत्ता पक्ष के सांसदों ने बजट में होने वाली हर एक घोषणा के साथ ‘मोदी-मोदी’ कहकर मेज़ थपथपाई. यही नहीं भाषण के समय जब वित्तमंत्री पीयूष गोयल ने आयकर छूट की सीमा को बढ़ाकर पांच लाख रुपये करने के प्रस्ताव की घोषणा की तब सत्तरूढ़ सांसदों ने करीब एक मिनट तक ‘मोदी-मोदी’ के नारे लगाए.

इसके अलावा पिछले महीने सपा-बसपा ने लोकसभा चुनाव के लिए एक साथ आने की घोषणा की. उसी के कुछ घंटे बाद रामलीला मैदान पर आयोजित भव्य रैली में मोदी ने मंच से कहा कि यह सभी राजनीतिक दल केवल एक व्यक्ति को हराने के लिए साथ आ रहे हैं. मोदी का स्वंय कहना कि ये लड़ाई एक पार्टी की नहीं, बल्कि एक व्यक्ति के खिलाफ है. ये बताता है कि मोदी खुद अपने आप को पार्टी के ऊपर तरजीह देते हैं.

सादगी की सीख

भारतीय राजनीति में कुछ एक उदाहरण ही हैं, जिन्होंने अपनी सादगी की वजह से भी सम्मान अर्जित किया है. इसमें लाल बहादुर शास्त्री के अलावा दीनदयाल उपाध्याय का नाम प्रमुख है. उपाध्याय सादगी पसंद इंसान थे. वे अपना सारा काम खुद करते थे. उनके बारे में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि उपाध्याय जी कभी संसद के सदस्य नहीं थे, लेकिन वे जनसंघ के सभी संसद सदस्यों के निर्माता थे. 11 फरवरी 1968 को दीनदयाल उपाध्याय की मुगलसराय रेलवे स्टेशन के पास रहस्यमयी मौत हो गई थी. भले उनकी मौत को 50 साल हो गए हैं, लेकिन उसको लेकर कयास अभी तक लगाए जा रहे हैं.

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