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Saturday, 16 November, 2024
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क्यों सिविल सोसायटी और डॉक्टरों के बीच चर्चा का विषय बन गया है राजस्थान का स्वास्थ्य अधिकार विधेयक

बिल के विरोध में सरकारी योजनाओं का बहिष्कार करने वाले निजी अस्पताल, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के रोगियों को प्रभावित कर रहे हैं, जिन्हें अपने साधनों से अधिक भुगतान करने या इलाज के बिना जाने के लिए मजबूर किया जाता है.

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टोंक/ जयपुर: 26 वर्षीय सुरजा अपने पिता कालू राम को लेकर 12 फरवरी को राजस्थान के टोंक जिले के एक निजी अस्पताल ‘अग्रवाल अस्पताल’ लेकर गई. पेशे से दिहाड़ी मजदूर सुरजा के पिता की उम्र 56 वर्ष है और वो बेहद कमजोर हैं और उन्हें सांस लेने में दिक्कत हो रही थी.

अनुसूचित जाति परिवार से ताल्लुक रखने वाली सुरजा अपने तीन बहनों में सबसे बड़ी है. सुरजा ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमें लगा मेरे पिता मर जाएंगे.’

सुरजा का परिवार राज्य सरकार द्वारा शुरू की गई मुख्यमंत्री चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना के 32 लाख लाभार्थियों में से एक है. आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए यह योजना 2021 में शुरू की गई थी. इस योजना के तहत मिले जन आधार कार्ड के कारण उसने अपने पिता की देखभाल करने के लिए काम छोड़ने से पहले कुछ नहीं सोचा.

पिछले हफ्ते अपने बजट भाषण में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस योजना के तहत वार्षिक कवर राशि को 10 लाख रुपए प्रति परिवार से बढ़ाकर 25 लाख रुपए करने की घोषणा की.

लेकिन कालू राम को योजना के तहत मिलने वाले मुफ्त क्रिटिकल केयर ट्रीटमेंट से वंचित कर दिया गया. जिसके चलते सुरजा को अपने पिता के इलाज के लिए 12 से 15 फरवरी के बीच 30,000 रुपए से अधिक का भुगतान करना पड़ा.

सुरजा का कर्ज दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहा है क्योंकि राजस्थान के निजी चिकित्सा संघ ‘स्वास्थ्य के अधिकार विधेयक’ के विरोध में सरकार की इस योजना का बहिष्कार कर रहे हैं. इसके कारण कालू राम जैसे गरीब मरीज अत्यंत समस्या में हैं,  जिनके परिवार या तो अपनी हैसियत से अधिक भुगतान करने या फिर इलाज के बिना घर जाने के लिए मजबूर हैं.

2018 के राज्य विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने राज्य के लोगों को-स्वास्थ्य का अधिकार बिल – जो नागरिकों के कानूनी अधिकारों और सर्वोत्तम स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने का अधिकार स्थापित करना चाहता है – का वादा किया था. इस विधेयक को सितंबर 2022 में विधानसभा में पेश किया गया था. चालू बजट सत्र में इसे पारित किया जाना बाकी है.

‘टोंक अस्पताल’ के मालिक डॉ सुरेंद्र अग्रवाल ने दिप्रिंट से बात करते हुए अस्पतालों द्वारा राज्यव्यापी विरोध के कारण चिरंजीवी योजना के तहत किसी को भी अस्पताल में भर्ती नहीं करने की अपनी लाचारी व्यक्त की.

जिस दिन दिप्रिंट ने अग्रवाल से मुलाकात की, उस दिन जिस वार्ड में सुरजा के पिता भर्ती थे, उस वार्ड में 15 फरवरी को केवल 9 और मरीज भर्ती थे. डॉ अग्रवाल ने कहा कि इससे पहले टोंक के सबसे व्यस्त अस्पताल में से एक, इस दोमंजिला अस्पताल में रोजाना 250 मरीज आते थे. अस्पताल द्वारा दिखाए गए डाटा के मुताबिक, अस्पताल में एक सप्ताह के भीतर चार सामान्य वार्ड में रोगियों की संख्या 40-50 से घटकर 9-10 रह गई है.

दिप्रिंट ने शुक्रवार को चिकित्सा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के सचिव डॉ पृथ्वीराज से मुलाकात की, लेकिन उन्होंने इस विरोध प्रदर्शन और स्वास्थ्य का अधिकार विधेयक पर किसी भी प्रकार की टिप्पणी करने से इंकार कर दिया.


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बैठकें और हो रहीं देरी

प्राइवेट डॉक्टर्स स्वास्थ्य का अधिकार विधेयक को कठोर बताते हैं जबकि नागरिक अधिकार समूहों ने डॉक्टरों द्वारा इसका विरोध किए जाने के खिलाफ आवाज उठाया है. इस सप्ताह एक संयुक्त बयान में 100 से अधिक नागरिक समाज संगठनों ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि डॉक्टर ऐसे विधेयक को रोकने की कोशिश कर रहे हैं जो एक महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार है.

जन स्वास्थ्य अभियान की राजस्थान की राज्य समन्वयक, छाया पचौली ने कहा, ‘डॉक्टरों को विरोध करने का अधिकार है, लेकिन जिस तरह से वे चिरंजीवी के तहत स्वास्थ्य सेवाओं से इनकार कर रहे हैं, वह सही नहीं है.’

उन्होंने कहा कि निजी डॉक्टर यह धारणा बनाने की कोशिश कर रहे थे कि निजी क्षेत्र को विनियमित करने के लिए विधेयक लाया जा रहा है, लेकिन विधेयक की 90 प्रतिशत चीजें सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने के बारे में है. उन्होंने कहा, ‘निजी डॉक्टर्स निश्चित रूप से एक कहानी बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह विधेयक बेकार और अनावश्यक है. यह बहुत भ्रामक है.’

विपक्ष सार्वजनिक रूप से गरीबों को स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करवाने वाले इस विधेयक का विरोध नहीं कर सकता. सरकार इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA)-राजस्थान चैप्टर और यूनाइटेड प्राइवेट क्लिनिक्स एंड हॉस्पिटल्स एसोसिएशन ऑफ राजस्थान (UPCHAR) जैसे विभिन्न चिकित्सा संघों द्वारा गठित 34-सदस्यीय संयुक्त कार्रवाई समिति (JAC) के साथ मिलकर बातचीत कर रही हैं.

एक बैठक बीते 11 फरवरी को हुई थी जहां JAC के चार सदस्यों ने विधानसभा की स्थायी समिति से मुलाकात की, जिसमें राजस्थान के स्वास्थ्य मंत्री परसादी लाल मीणा और विपक्ष के उप नेता समेत लगभग 18 सदस्य शामिल हुए थे. दो घंटे तक चली यह बैठक बेनतीजा रही जिसके बाद डॉक्टरों का गुस्सा और भड़क गया. अब अगली बैठक बीते 3 मार्च को निर्धारित की गई है.

बैठक में JAC प्रतिनिधिमंडल की ओर से हिस्सा लेने वाले और जयपुर में दिल तथा सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल चलाने वाले डॉ सुनील कुमार गार्सा ने दिप्रिंट से कहा, ‘हालांकि शुरू में हमने बिल का पूरी तरह से विरोध किया, लेकिन अंत में हमने इसमें कुछ संशोधन की मांग की.’

उन्होंने आगे कहा, ‘कोई विकल्प नहीं बचा है. हमने 11 फरवरी को राज्यव्यापी बहिष्कार का आह्वान किया है.’

Dana Shivam hospital, owned by Dr Sunil Kumar Garssa, has seen a sharp decrease in the footfall as it is not admitting any emergency patient under Chiranjeevi or RGHS | Jyoti Yadav | ThePrint
सुनील कुमार गार्सा के स्वामित्व वाले दाना शिवम अस्पताल में आने वालों की संख्या में भारी कमी देखी गई है क्योंकि यह चिरंजीवी या आरजीएचएस के तहत किसी भी आपातकालीन रोगी को भर्ती नहीं कर रहा है | ज्योति यादव | दिप्रिंट

दिप्रिंट के साथ साझा किए गए UPCHAR के विवरण के अनुसार, उनके अधीन 1,700 निजी अस्पताल 12 फरवरी को खुले थे, लेकिन चिरंजीवी और राजस्थान सरकार स्वास्थ्य योजना (RGHS) दोनों के तहत आपातकालीन सेवा लगभग एक सप्ताह से बंद है.

वे कहते हैं, ‘विधेयक को गलत इरादे से लाया गया था. वे निजी डॉक्टरों के लिए समस्या पैदा करना चाहते हैं, जो राज्य की 70 फीसदी चिकित्सा जरूरतों को पूरा कर रहे हैं.’

इमरजेंसी को करें परिभाषित, हमारी भरपाई करें

डॉक्टरों ने दावा किया है कि यह बिल मुफ्त इमरजेंसी चिकित्सा का वादा करता है, लेकिन यह इमरजेंसी को परिभाषित नहीं करता है. टोंक के डॉ अग्रवाल ने दिप्रिंट को बताया, ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इमरजेंसी को परिभाषित किया है लेकिन इस विधेयक में इमरजेंसी से ‘आघात’ शब्द को हटा दिया गया. अब एक मरीज का अगर सिर दर्द भी हो रहा है तो वह खुद को इमरजेंसी में भर्ती करने को कहेगा.’

उन्होंने पूछा, ‘पेमेंट और भरपाई के बारे में बिल में कुछ नहीं है. हम सभी का मुफ्त इलाज करने को तैयार हैं लेकिन इलाज में आए खर्च का भुगतान कौन करेगा? हम कर्मचारियों, नर्सों और डॉक्टरों का पेमेंट कैसे करेंगे?’

लेकिन चिंता का सबसे बड़ा कारण जिला स्वास्थ्य प्राधिकरण और राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरण की प्रस्तावित स्थापना है – जिसके सदस्य जनप्रतिनिधि होंगे.

14 पेज के ड्राफ्ट बिल, द बार ऑफ ज्यूरिडिक्शन, जिसकी एक प्रति दिप्रिंट के पास है, वो कहता है, ‘किसी भी सिविल कोर्ट के पास किसी भी मामले को लेकर किसी भी मुकदमे या कार्यवाही पर विचार करने का अधिकार नहीं होगा, अगर उसमें राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरण या जिला स्वास्थ्य प्राधिकरण, जैसा भी मामला हो, इस अधिनियम के तहत गठित इस अधिनियम द्वारा या इसके तहत निर्धारित करने के लिए सशक्त है.’

इसका अर्थ यह है कि अदालतों के पास कोई अधिकार क्षेत्र नहीं होगा. जैसा कि विधेयक में कहा गया है कि तीन प्रधान और जिला प्रमुख भी जिला स्वास्थ्य प्राधिकरण का हिस्सा होंगे. डॉक्टरों को डर है कि सदस्यों द्वारा उन्हें परेशान, धमकी या फिर ब्लैकमेल किया जा सकता है.

झुंझुनू के एक डॉक्टर ने कहा, ‘कोई भी हमारा निरीक्षण करने आ सकता है, हमें धमकी दे सकता है, यह कहकर हमें ब्लैकमेल कर सकता है कि वह प्रधान, प्रमुख और जिला परिषद से जुड़ा हुआ है. क्या आप हम पर हिंसा करना चाह रहे हैं?’

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस फ़ीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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