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मंगलवार, 22 अप्रैल, 2025
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जम्मू-कश्मीर परिसीमन मुद्दे पर भड़के महबूबा और अब्दुल्ला

जम्मू-कश्मीर के महाराजा के 1939 के संविधान पर जम्मू-कश्मीर का संविधान 1957 में लागू हुआ जो अभी तक लागू है.

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नई दिल्ली: अमित शाह के गृह मंत्री बनते ही माना जा रहा था कि कश्मीर उनकी प्राथमिकता भी होगा और कश्मीर समस्या उनकी सबसे बड़ी चुनौती भी. आर्टिकल 370 हटाना जैसे वायदों को पूरा कर पाना मुश्किल चुनौती होंगी. मंगलवार को गृह मंत्रालय की बैठक में माना जाता है कि परिसीमन की चर्चा भी हुई. इस पर राजनीतिक बयानबाज़ी शुरू हो गई है. परिसीमन का मामला सामने आते ही जम्मू-कश्मीर में असमंजस की स्थिति शुरू हो गई है वहीं सूबे के पूर्व मुख्यमंत्रियों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया है. जबकि अमरनाथ यात्रा के ठीक बाद विधानसभा चुनाव कराए जाने की बात सामने आई है.

कलह से प्रभावित प्रदेश में इस समय राष्ट्रपति शासन है. शाह पहले ही राज्यपाल सत्यपाल मलिक के साथ बंद कमरे में बैठक कर चुके हैं. वह खुफिया ब्यूरो के निदेशक राजीव जैन और गृह सचिव राजीव गौबा से भी मिले.

पूर्व मुख्यमंत्री व पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने कहा कि मोदी सरकार पुराने जख्मों को भरने के बजाय केंद्र जम्मू एवं कश्मीर का एक और जज्बाती बंटवारा थोप रही है. मीडिया में यह खबर आने पर कि केंद्र विधानसभा सीटों का नए सिरे से परिसीमन कराने पर विचार कर रही है, महबूबा ने प्रतिक्रया देते हुए हुए अपने ट्विटर पेज पर कहा, ‘जम्मू एवं कश्मीर में विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का नक्शा फिर से खींचने की योजना के बारे में सुनकर परेशान हूं.’

उन्होंने आगे लिखा, ‘जबरन सरहदबंदी साफ तौर पर सांप्रदायिक नजरिये से सूबे के एक और जज्बाती बंटवारे की कोशिश है.’

वहीं नेशनल कांफ्रेंस के उमर अब्दुल्ला ने भी डिलिमीटेशन (परिसीमन) का विरोध किया है. उन्होंने यह भी कहा कि उनकी पार्टी मजबूती से इसका विरोध करेगी.

अब्दुल्ला ने ट्वीट किया, ‘टीवी चैनल इस पर भ्रम पैदा कर रहे हैं’. उमर अब्दुल्ला ने एक के बाद एक कई ट्वीट किए. उन्होंने लिखा कि परिसीमन पर पूरे देश में साल 2026 तक रोक लगाई गई है, इसके विपरीत कुछ गलत जानकारी वाले टीवी चैनल इस पर भ्रम पैदा कर रहे हैं, यह केवल जम्मू कश्मीर के संबंध में रोक नहीं है. उन्होंने आगे लिखा कि अनुच्छेद 370 और 35 ए को हटाकर जम्मू कश्मीर को अन्य राज्यों की बराबरी पर लाने की बात करने वाली बीजेपी अब इस संबंध में जम्मू कश्मीर के साथ अन्य राज्यों से अलग व्यवहार करना चाहती है.

मीडिया में आई खबरों में कहा गया है कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू है और राज्यपाल सत्यपाल मलिक को संविधान के तहत सभी अधिकार प्राप्त हैं, इसलिए संभावना है कि वह परिसीमन आयोग का गठन करेंगे, जो विधानसभा सीटों के नए सिरे से परिसीमन की सिफारिश करेगा.

प्रदेश में 18 दिसंबर 2018 से राष्ट्रपति शासन लागू है. संभावना है कि तीन जुलाई के बाद राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ाई जा सकती है. सुरक्षा बल इलाके से आतंकियों का सफाया करने में जुटा है और इस साल अब तक 100 आतंकियों को ढेर किया जा चुका है.

आगामी योजनाओं में निर्वाचन क्षेत्रों का नए सिरे से परिसीमन और परिसीमन आयोग की नियुक्ति शामिल है. परिसीमन के तहत विधानसभा क्षेत्रों का दोबारा स्वरूप और आकार तय किया जा सकता है. साथ ही, अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटें तय की जा सकती हैं.

इसका मुख्य मकसद जम्मू-कश्मीर प्रांत में काफी समय से व्याप्त क्षेत्रीय असमानता को दूर करना है. साथ ही, प्रदेश विधानसभा में सभी आरक्षित वर्गो को प्रतिनिधित्व प्रदान करना है.

एक और वर्ग का मानना है कि कश्मीर घाटी में कोई अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति नहीं है, जबकि गुर्जर, बकरवाल, गड्डी और सिप्पी को 1991 में अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया. प्रदेश की आबादी में इनका 11 फीसदी योगदान है, लेकिन कोई राजनीतिक आरक्षण नहीं है.

सोचने वाली बात यह है कि जम्मू-कश्मीर के महाराजा के 1939 के संविधान पर जम्मू-कश्मीर का संविधान 1957 में लागू हुआ जो अभी तक लागू है. भारत में शामिल होने के बाद प्रदेश संविधान सभा का गठन 1939 के संविधान के तहत हुआ, लेकिन शेख अब्दुल्ला के प्रशासन ने मनमाने ढंग से जम्मू के लिए 30 सीटें और कश्मीर क्षेत्र के लिए 43 सीटें और लद्दाख के लिए दो सीटें बनाईं. उसके बाद से यह क्षेत्रीय असमानता की मोर्चाबंदी हुई और कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में चार सीटें हो गईं.

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