गुरुग्राम: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को हरियाणा की रिटायर्ड आईपीएस अफसर भारती अरोड़ा के खिलाफ जारी समन और मामले की कार्यवाही को रद्द कर दिया. यह मामला 2005 में उनकी जांच से जुड़ा था, जिसमें एनडीपीएस एक्ट के तहत गिरफ्तार एक व्यक्ति को निर्दोष पाया गया था. कोर्ट ने कहा कि भारती अरोड़ा को एनडीपीएस एक्ट की धारा 58 के तहत गलत तरीके से फंसाया गया था.
सुप्रीम कोर्ट ने भारती अरोड़ा के खिलाफ आदेश देने वाली विशेष अदालत पर कड़ी टिप्पणी की. कोर्ट ने कहा कि जज ने पक्षपात किया और न्याय, निष्पक्ष सुनवाई और सही प्रक्रिया के नियमों का पालन नहीं किया.
1998 बैच की आईपीएस अधिकारी और राष्ट्रपति पुलिस मेडल से सम्मानित अरोड़ा ने 2021 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली थी, जब वह अंबाला में पुलिस महानिरीक्षक थीं.
दिप्रिंट से बात करते हुए अरोड़ा ने कहा, “सत्य की जीत हुई है. सत्यमेव जयते!”
उन्होंने कहा कि एक पुलिस अधिकारी के तौर पर उनका कर्तव्य था कि वह बेसहारा लोगों की मदद करें और किसी निर्दोष को फंसने न दें. उन्होंने यह भी कहा कि ईमानदारी से काम करने की वजह से उन्हें कई सालों तक मुश्किलें झेलनी पड़ीं, लेकिन आखिरकार सत्य की जीत हुई.
क्या था मामला?
यह मामला जनवरी 2005 में हरियाणा के कुरुक्षेत्र में हुए एक नशा-विरोधी छापे से जुड़ा है, जहां पुलिस ने एक संदिग्ध, रण सिंह, से कथित तौर पर 8.7 किलोग्राम अफीम बरामद की थी.
अरौड़ा उस समय कुरुक्षेत्र में एसपी थीं.
रण सिंह ने अपने एक रिश्तेदार के जरिए एसपी को आवेदन दिया. उसमें कहा गया कि वह निर्दोष है और दूसरों ने उसे फंसाने के लिए अफीम रखी थी.
इस पर अरौड़ा ने डीएसपी राम फाल को जांच करने का आदेश दिया. जांच में पता चला कि रण सिंह बेगुनाह है और अफीम तीन तस्करों—सुरजीत सिंह, अंग्रेज सिंह और मेहर दीन—ने रखी थी, जिन पर पहले से केस दर्ज थे.
पुलिस ने रण सिंह को निर्दोष बताते हुए अदालत में बरी करने का आवेदन किया.
लेकिन, विशेष जज ने इस जांच को खारिज कर दिया. 2007 में रण सिंह को दोषी ठहराया गया और अरौड़ा समेत अन्य अधिकारियों को नोटिस जारी किया गया. उन पर आरोप था कि उन्होंने सबूत गढ़े और जांच को गुमराह किया.
एनडीपीएस एक्ट की धारा 58 का मकसद यह है कि अधिकारी अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल न करें. अगर कोई अधिकारी जानबूझकर गलत काम करता है या किसी को परेशान करने के इरादे से कार्रवाई करता है, तो इस धारा के तहत सजा का प्रावधान है.
अरौड़ा को 15 मार्च 2007 को कोर्ट में बुलाया गया. पेशी के बाद, कोर्ट ने उन्हें अपना जवाब देने के लिए 12 अप्रैल 2007 की तारीख दी, और उन्होंने जवाब दाखिल कर दिया.
मामला चलता रहा और 22 मई 2008 को उन्हें फिर से कोर्ट में पेश होने को कहा गया. लेकिन अरौड़ा ने कोर्ट में जाने से छूट मांगी. उन्होंने बताया कि उन्हें हरियाणा पुलिस के रेलवे और तकनीकी सेवाओं के आईजी ने समझौता एक्सप्रेस धमाके की जांच से जुड़ी टीमों के साथ काम करने के लिए जयपुर भेजा था.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया कि विशेष न्यायाधीश ने यह देखा कि आईजी द्वारा भेजा गया पत्र, जो उन्हें जयपुर जाने के लिए था, ताकि वह कोर्ट में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित न हो सकें. फिर न्यायाधीश ने मामला 24 मई को फिर से रखा और उन्हें अदालत में आने और जयपुर जाने का प्रमाण दिखाने का आदेश दिया.
24 मई को, अपीलकर्ता ने एक और आवेदन दायर किया, जिसमें कहा कि वह अभी भी जयपुर में समझौता बम धमाके की जांच कर रही थीं. विशेष न्यायाधीश ने उस आवेदन को खारिज कर दिया और अपीलकर्ता के खिलाफ जमानती वारंट जारी कर दिया.
26 मई को, विशेष न्यायाधीश का तबादला पानीपत कर दिया गया। फिर भी, 30 मई को वही न्यायाधीश एक सीलबंद कवर में आदेश देते हुए मामले को 4 जून, 2008 तक स्थगित कर दिया.
मामला बढ़ा जब पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 2010 में निचली अदालत के फैसले को सही ठहराया, जिसके बाद अरोड़ा ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के आदेश को रोक दिया और मामले की समीक्षा शुरू की.
निष्कर्ष ‘कानूनी कमजोरियों’ से घिरे हैं
सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच, जिसकी अगुवाई जस्टिस बी.आर. गवाई ने की, ने विशेष न्यायाधीश और हाई कोर्ट द्वारा मामले के निपटान पर कड़ी आलोचना की. बेंच ने कई प्रक्रिया संबंधी उल्लंघनों और असंगतियों की पहचान की.
इनमें “प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन” भी शामिल था. कोर्ट ने कहा कि विशेष न्यायाधीश ने अरोड़ा के खिलाफ नकारात्मक निष्कर्ष दिए बिना उन्हें नोटिस जारी किए बिना या सुनवाई का अवसर दिए बिना फैसला सुनाया. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि न्याय “केवल किया नहीं जाना चाहिए, बल्कि उसे होते हुए भी दिखना चाहिए.”
सुप्रीम कोर्ट ने गलत अधिकार क्षेत्र का मुद्दा उठाया, कहकर कि एनडीपीएस एक्ट की धारा 58 के तहत अपराधों को मजिस्ट्रेट द्वारा जल्दी से निपटाना चाहिए, क्योंकि इसमें अधिकतम दो साल की सजा होती है. विशेष न्यायाधीश का प्रक्रिया शुरू करना उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर था.
कोर्ट ने यह भी कहा कि मई 2008 में विशेष न्यायाधीश ने अरोड़ा के खिलाफ आदेश दिया, जबकि उन्हें पद छोड़ने के आदेश मिल चुके थे और वह आदेश सील कवर में रखा गया। कोर्ट ने इसे न्यायाधीश की पूर्वनिर्धारित मानसिकता बताया.
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अभियोजन द्वारा पेश किए गए साक्ष्य अरोड़ा के खिलाफ किसी भी बुरे इरादे को साबित करने में असफल रहे. अरोड़ा के द्वारा किए गए कार्य उनके कर्तव्यों के तहत थे और एनडीपीएस एक्ट की धारा 69 के तहत अच्छे इरादे से किए गए थे.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अरोड़ा के खिलाफ कार्यवाही में जरूरी प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया, जैसे गवाहों की जांच और क्रॉस-एक्सामिनेशन.
जस्टिस गवई ने कहा, “अरोड़ा के खिलाफ जो निष्कर्ष दिए गए हैं, वे कानूनी गलतियों से भरे हुए हैं. प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन किया गया है और कार्यवाही में प्रक्रियाओं की अनदेखी की गई है.”
सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि प्रक्रियात्मक सुरक्षा केवल तकनीकी बातें नहीं हैं, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी हैं कि मुकदमा निष्पक्ष तरीके से चले. कोर्ट ने यह भी कहा कि जो सार्वजनिक सेवक ईमानदारी से काम कर रहे होते हैं, उन्हें निर्दोष माना जाना चाहिए, जब तक मजबूती से कोई प्रमाण न हो कि वे दोषी हैं.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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