scorecardresearch
Thursday, 19 December, 2024
होमदेशअर्थजगतसरकारी आंकड़े बताते हैं कि कोविड के दौरान भारत का 'वेतनभोगी वर्ग' सिकुड़ा, मुस्लिमों पर सबसे ज्यादा असर

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि कोविड के दौरान भारत का ‘वेतनभोगी वर्ग’ सिकुड़ा, मुस्लिमों पर सबसे ज्यादा असर

सरकार के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण से पता चलता है कि महामारी के दौरान भारत का वेतनभोगी वर्ग 2.7% अंक सिकुड़ गया. लेकिन इससे जुड़े धार्मिक अल्पसंख्यकों, महिलाओं के आंकड़े और भी परेशान करने वाले हैं.

Text Size:

नई दिल्ली: कोविड के बाद भारत के जॉब मार्केट में दुख जताने के लिए बहुत कुछ है, जहां रिकवरी दर्दनाक रूप से काफी धीमी रही है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जब वेतनभोगी क्षेत्र की बात आती है, तो धार्मिक अल्पसंख्यकों की- मुसलमान, सिख और ईसाईयों की इसी क्रम में भागीदारी सबसे अधिक प्रभावित हुई है.

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय का यह नवीनतम आवधिक श्रम बल सर्वे (पीएलएफएस) आंशिक रूप से लॉकडाउन के प्रभाव और उसके तत्काल बाद, सभी क्षेत्रों में वेतनभोगी नौकरियों पर किसी भी तरह के पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाता है. रिपोर्ट में जुलाई 2020 से जून 2021 तक को कवर किया गया है.

नियमित/वेतनभोगी कर्मचारियों से मतलब उन लोगों से है जो दूसरों के खेत या गैर-कृषि उद्यमों (घरेलू और गैर-घरेलू दोनों) में काम करते हैं और बदले में नियमित आधार पर वेतन या मजदूरी प्राप्त करते हैं. (यानी कार्य अनुबंधों के दैनिक या आवधिक नवीनीकरण के आधार पर नहीं). इस कैटेगरी में वेतन पर काम करने वाले पूर्णकालिक और अंशकालिक दोनों तरह के प्रशिक्षु (अपरेंटिस) शामिल हैं.

आंकड़ों के अनुसार, 2020-21 के दौरान कार्यबल में भारत के वेतनभोगी वर्ग की हिस्सेदारी लगभग दो प्रतिशत अंक घट गई. 2019-20 में जहां लगभग 23 फीसदी कर्मचारी नियमित वेतन पर काम कर रहे थे, वहीं 2020-21 में उनकी भागीदारी घटकर सिर्फ 21 फीसदी रह गई.

लेकिन लॉकडाउन के प्रभाव का बेहतर तरीके से अंदाजा लगाने के लिए पुराने डेटा के जरिए मिली जानकारी बेहद उपयोगी है.

सर्वेक्षण हर साल जुलाई और जून के बीच किया जाता है. इसलिए 2019-20 के सर्वे में अप्रैल-जून 2020 तिमाही के आंकड़े शामिल हैं, जब सबसे सख्त लॉकडाउन लगा हुआ था.

उससे पहले के साल में भारत की श्रम शक्ति में वेतनभोगी वर्ग की हिस्सेदारी एक प्रतिशत अंक बढ़ी थी. यह आंकड़ा 2017-18 में 22.8 था जो 2018-19 में बढ़कर 23.8 पर पहुंच गया. अगर हम इन सभी आंकड़ों को ध्यान में रखते हैं, तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत का वेतनभोगी वर्ग उन वर्षों के दौरान 2.7 प्रतिशत अंक कम हो गया है, जब अर्थव्यवस्था महामारी से जूझ रही थी.

आंकड़ों पर करीब से एक नजर डालने से पता चलता है कि कुछ धार्मिक अल्पसंख्यकों पर असमान रूप से उसका प्रभाव पड़ा और इससे सबसे ज्यादा प्रभावित मुस्लिम वर्ग हुआ.

जब इन आंकड़ों को पुरुष और महिला के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा जाता है, तो तस्वीर और भी धूमिल हो जाती है. आंकड़ों से संकेत मिलता है कि वेतनभोगी क्षेत्र में सभी धर्मों की महिलाओं की भागीदारी में महत्वपूर्ण गिरावट देखी गई है.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इनफॉर्मल सेक्टर एंड लेबर स्टडीज की प्रोफेसर अर्चना प्रसाद ने दिप्रिंट को बताया, ‘भारत के हाशिए पर रहने वाले समुदाय अनिश्चितताओं की चपेट में हैं. महामारी ने अभी यह साबित कर दिया है.’

उन्होंने कहा, ‘सिर्फ वे लोग जिनके पास घर से काम करने का अवसर था और जिनके पास इंटरनेट और अन्य सुविधाएं मौजूद थीं, वे महामारी में अपनी नौकरी बचा पाए. नतीजतन हाशिए के समुदायों को ऑटोमेटिकली औपचारिक क्षेत्रों से बाहर निकाल दिया गया और जीवित रहने के लिए कहीं और काम की तलाश करने के लिए मजबूर किया गया.’ उन्होंने कहा कि इसके एक कारक के रूप में ‘भेदभाव’ की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है.

इसके अलावा प्रसाद का यह भी मानना है कि पीएलएफएस संख्या वास्तविक रोजगार परिदृश्य को गलत तरीके से प्रस्तुत करती है क्योंकि ‘वेतनभोगी वर्ग’ की परिभाषा में ऐसी नौकरियां शामिल हैं जो सामाजिक सुरक्षा (पेंशन/भविष्य निधि), सवैतनिक अवकाश या लिखित अनुबंध नहीं देती हैं. उन्होंने तर्क दिया कि कई नौकरियां जिन्हें ‘वेतनभोगी’ के रूप में गिना जाता है, वे अनौपचारिक क्षेत्र के अंतर्गत आ सकती हैं, जो समाज के सबसे कमजोर वर्गों को रोजगार देती है.


यह भी पढ़ें: उदयपुर में लंपी स्किन रोग पर काबू पाने में कैसे मददगार साबित हो रहा कोविड-स्टाइल का कंट्रोल रूम


मुस्लिम और महिलाएं सबसे ज्यादा प्रभावित

सर्वे के अनुसार, नियमित वेतन पाने वाले मुसलमानों की हिस्सेदारी 2018-19 में 22.1 प्रतिशत से गिरकर 2020-21 में 17.5 प्रतिशत हो गई. इस दौरान लगभग 5 प्रतिशत अंक की गिरावट देखी गई. इसका मतलब यह है कि नियमित वेतन पर नौकरी करने वाले 100 मुसलमानों में से अब पांच के पास अपनी यह नौकरी नहीं है.

वहीं वेतनभोगी क्षेत्र में कार्यरत सिखों की हिस्सेदारी में भी 4.5 फीसदी अंक की गिरावट देखी गई, जो 2018-19 में 28.5 फीसदी से घटकर 2020-21 में 24 फीसदी रह गई थी. ईसाइयों के लिए ये आंकड़े 3.2 प्रतिशत के थे. पहले उनकी हिस्सेदारी 31.2 प्रतिशत थी जो गिरकर 28 प्रतिशत पर आ गई.

Graphic: Ramandeep Kaur | ThePrint
चित्रण: रमनदीप कौर | दिप्रिंट

अल्पसंख्यकों की तुलना में वेतनभोगी नौकरियों में हिंदू श्रमिकों ने अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन किया है. उनकी हिस्सेदारी में सिर्फ 2.3 प्रतिशत अंक की गिरावट देखी गई, जो 2018-19 में 23.7 से घटकर 2020-21 में 21.4 हो गई.

लेकिन वेतनभोगी क्षेत्र में घटती इन समुदायों की भागीदारी में एक बड़ी संख्या महिलाओं की है.

औसतन वेतनभोगी वर्ग में पुरुषों की हिस्सेदारी में लगभग 1.7 प्रतिशत अंक (2018-19 में 24.4 प्रतिशत से 2020-21 में 22.7 प्रतिशत) की गिरावट आई है लेकिन महिलाओं की हिस्सेदारी में 4.5 प्रतिशत अंकों की एक बड़ी गिरावट देखी गई (21.9 प्रतिशत से 17.4 प्रतिशत).

यह प्रवृत्ति धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच भी साफ नजर आ रहा थी.

वेतनभोगी सिख पुरुषों की हिस्सेदारी में 2.7 फीसदी अंक (2018-19 में 26.8 फीसदी से 2020-21 में 24.1 फीसदी) गिर गई लेकिन महिलाओं के लिए यह गिरावट 12 फीसदी अंक (35.6 फीसदी से 23.7 फीसदी) तक पहुंच गई.

मुसलमानों में वेतन पाने वाले पुरुषों की हिस्सेदारी में जहां 4 प्रतिशत की गिरावट आई है (22.4 प्रतिशत से 18.4 प्रतिशत) लेकिन महिलाओं के लिए यह आंकड़ा 8 प्रतिशत अंक (20.5 प्रतिशत से 12.5 प्रतिशत) था.

चित्रण: रमनदीप कौर | दिप्रिंट

ईसाइयों के वेतनभोगी वर्ग में पुरुषों के लिए ये आंकड़ा 1.7 प्रतिशत अंक (28.7 प्रतिशत से 27 प्रतिशत) और महिलाओं के लिए 6.2 प्रतिशत अंक (36.1 प्रतिशत से 29.9 प्रतिशत) तक सिकुड़ गया.

2018-19 में सर्वे में शामिल लगभग 21.3 प्रतिशत हिंदू महिलाओं के पास वेतन वाली नौकरी थी, जो 2020-21 तक चार प्रतिशत अंक गिरकर 17.3 प्रतिशत हो गई. दूसरी ओर, हिंदू पुरुषों में इसी अवधि में सिर्फ 1.3 प्रतिशत की गिरावट देखी गई, जो 24.5 प्रतिशत से 23.2 प्रतिशत पर आई थी.


यह भी पढ़ें: PM मोदी ने ‘परिवारवाद’ को देश के लिए चुनौती बताया, पर दूसरे दलों के वंशवादियों को गले लगा रही है BJP


सभी वेतनभोगी कर्मचारी कहां गए?

रिपोर्ट में कहा गया है कि जो लोग नौकरी छोड़ चुके हैं या जिनके पास नौकरी छोड़ने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था, उनमें से कई अपने स्वयं के उद्यमों में या ‘घरेलू उद्यमों में सहायक’ के रूप में काम करने लगे थे.

2018-19 में लगभग 52.1 प्रतिशत नौकरी करने वाले भारतीय स्व-रोजगार से जुड़े थे और 2020-21 तक इस श्रेणी के श्रमिकों की हिस्सेदारी बढ़कर 55.6 प्रतिशत हो गई थी.

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यहां ‘स्व-रोजगार’ शब्द का अर्थ उद्यमिता नहीं है. इस क्षेत्र में ज्यादातर लोग ‘सहायकों’ के रूप में काम कर रहे हैं. दरअसल सर्वे में जिन लोगों को घरेलू उद्योग में काम करने के लिए परिभाषित किया गया है, जरूरी नहीं कि उन्हें उनके काम का मेहनताना दिया जाता हो. (उदाहरण के लिए, एक बेटा अपने पिता की दुकान चलाने में मदद करता है).

2018-19 में, ‘स्वयं के लिए काम करने वाले कर्मचारी’ (स्व-नियोजित कर्मचारी जो भुगतान किए गए कर्मचारियों को काम पर नहीं रखते हैं) की नियोजित कार्यबल में हिस्सेदारी 38.8 प्रतिशत थी, जो 2020-21 तक थोड़ा गिरकर 38.2 प्रतिशत हो गई. हालांकि, 2020-21 में कार्यबल का 17.3 प्रतिशत हिस्सा हेल्पर्स की कैटेगरी में काम कर रहा था, जो 2018-19 में सिर्फ 13.3 प्रतिशत था.


यह भी पढ़ें: P75I टेंडर में ‘महत्वपूर्ण बदलाव’ की जरूरत – भारतीय नौसेना की पनडुब्बी योजनाओं पर रूस


मुसलमानों के रोजगार के बारे में क्या कहते हैं विशेषज्ञ

धार्मिक समुदायों के बीच सबसे ज्यादा मुस्लिम वेतनभोगी वर्ग की संख्या में कमी देखी गई है. हालांकि यह बताना मुश्किल है कि ऐसा क्यों है. कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि मुसलमान पहले से ही महामारी के बाद की तनाव भरी जॉब मार्केट में कटौती का सामना कर रहे थे.

अप्रैल 2020 में दिप्रिंट के लिए एक लेख में, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के एक शोधकर्ता, असीम अली ने तर्क दिया था कि महामारी ने भारत में मुसलमानों की आर्थिक स्थिति को काफी खराब कर दिया था. खासतौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में, उनके बारे में अफवाहें फैलाई जा रहीं थी कि ये समुदाय संक्रमण फैला रहा है.

इस साल भी मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार के लिए कुछ आह्वान किए गए हैं, जिसमें समुदाय के आम के व्यापारियों को लक्षित करने वाला एक अभियान और मंदिर मेलों में उन पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान शामिल है (ये दोनों उदाहरण कर्नाटक के हैं).

प्रसाद के अनुसार, ऐसा लगता है कि मुसलमानों के प्रति भेदभावपूर्ण नजरिया अधिकांश क्षेत्रों में फैला है. ‘इस विचारधारा का न तो राजनीतिक वर्ग विरोध कर रहा है और न ही व्यापारी वर्ग. काम पर रखने में तो भेदभाव हमेशा से ही रहा है, लेकिन महामारी के बाद यह और तेज हो गया है.’

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के एसोसिएट प्रोफेसर हिलाल अहमद ने कहा कि बढ़ती बेरोजगारी के बीच कई मुसलमान नौकरी के बाजार से बाहर हो गए और अपने परिवारों के ‘पारंपरिक व्यवसायों’ में लौट आए हैं.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: ट्रांसफर को लेकर सरकारी आदेश के बावजूद क्यों परेशान है बिहार की हजारों महिला टीचर


 

share & View comments