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Sunday, 22 December, 2024
होमदेशगंगा के नाम पर राजनीति चमकाने वालों का मोहरा बन गए जीडी अग्रवाल

गंगा के नाम पर राजनीति चमकाने वालों का मोहरा बन गए जीडी अग्रवाल

इस समय देशभर में 100 से ज़्यादा जगहों पर संत और पर्यावरण कार्यकर्ता गंगा को लेकर अनशन कर रहे हैं लेकिन ये लोग कभी एक मंच पर नहीं आते.

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ढेरों संत हैं जो गंगा को बचाने के लिए सक्रिय हैं. कई एक्टिविस्ट और पर्यावरणविद भी जुटे हैं कि गंगा अविरल रहे. लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात. गंगा आंदोलन जनआंदोलन नहीं बन पा रहा इसका सबसे बड़ा कारण है राजनीति. संतों की राजनीति और उनका दंभ गंगा पुत्रों को एक मंच पर नहीं आने देता. जीडी अग्रवाल के देहांत के बाद जो लोग उनकी मौत पर सबसे ज्यादा हल्ला मचा रहे हैं उनके जीवित रहते वही लोग राजनीतिक कारणों से अग्रवाल से बात भी नहीं कर रहे थे.

जीडी अग्रवाल की मौत के बाद एक तस्वीर सामने आई, जिसमें अग्रवाल अपने गुरु अविमुक्तेश्वरानंद की गोद में सिर रखकर लेटे हुए हैं. अपनी मौत के पहले तक अग्रवाल अपने गुरु से बात भी नहीं करते थे. कारण– उन्हें लगता था कि गुरुजी ने गंगा को धोखा दिया है.

साल 2012 की बात है. जीडी अग्रवाल गंगा की अविरलता के मुद्दे पर 14 जनवरी से अनशन पर थे. 22 मार्च को संवेदनशीलता दिखाते हुए पीएमओ ने उन्हें सूचना दी कि सरकार उनकी मांगों पर विचार करने को तैयार है. इसके बाद उन्हें दिल्ली स्थित एम्स लाया जाता है और 23 मार्च को प्रधानमंत्री का संदेश लेकर कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल और नारायण सामी एम्स पहुचते हैं.

यहीं घोषणा की जाती है कि 17 अप्रैल को होने वाली बैठक में स्वामी ज्ञानस्वरुप सानंद (जीडी अग्रवाल) विशेष आमंत्रित के तौर पर शामिल होंगे और बैठक का एजेंडा भी अग्रवाल ही तय करेंगे. पीएमओ द्वारा दिए गए पत्र में यह भी लिखा गया था कि जीडी अग्रवाल अपने साथ पांच संतों को ला सकते हैं.

जीडी अग्रवाल के लिए 17 अप्रैल को होने वाली बैठक बहुत महत्वपूर्ण थी. वे पांच संतों की सूची में पहला नाम अपने गुरु का लिखते हैं और बाकी चार नामों में पुरी के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती, रामानंदाचार्य स्वामी हंसदेवाचार्य, प्रमोद कृष्णन और शिवानंद सरस्वती थे. लेकिन इस बैठक के पहले ही इसे असफल करने की तैयारी शुरू हो चुकी थी.

17 अप्रैल 2012 की सुबह दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के प्राइवेट वार्ड के अपने कमरे में प्रो. जीडी अग्रवाल सुबह जल्दी उठ गए थे. वे और दिनों की अपेक्षा खुद को ऊर्जावान महसूस कर रहे थे. वे स्वयं उठ कर बाथरूम तक गए, स्नान किया, अपने गुरु अविमुक्तेश्वरानंद की तस्वीर की पूजा की और तैयार होने लगे.

प्रो. अग्रवाल बाहर निकलने को होते हैं तभी उनके डॉक्टर अपनी टीम के साथ कमरे में प्रवेश करते हैं. डाक्टर अपने मरीज से कहते हैं कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है और वे बेहद कमज़ोर हैं इसलिए मीटिंग में नहीं जा सकते. जीडी अग्रवाल समझ नहीं पाते कि अचानक क्या हो गया. अभी एक दिन पहले तक उन्हें कहीं भी जाने की अनुमति थी. जीडी अग्रवाल और उनके सहयोगी, डॉक्टर को समझाने की कोशिश करते हैं कि आज की बैठक बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन वरिष्ठ डॉक्टर के इशारे पर उनके साथ आई कनिष्ठ डाक्टरों की टीम प्रो. जीडी अग्रवाल को बेड पर लिटा कर ड्रिप चढ़ा देती है. प्रोफेसर अग्रवाल प्रधानमंत्री के साथ होने वाली बहुप्रतीक्षित बैठक में नही जा पाते.

कुछ बाबाओं और पर्यावरणविदों के साथ हुई प्रधानमंत्री की यह बैठक खानापूर्ति साबित होती है. इस बैठक में अविमुक्तेश्वरानंद विशेष रूप से शामिल होते हैं जो प्रो. अग्रवाल के गुरु हैं. उन्होंने ही बैठक में शामिल होने वाले नए प्रतिनिधियों के नाम तय किए. यह जानना भी जरूरी है कि अविमुक्तेश्वरानंद, स्वरूपानंद के शिष्य हैं और इस नाते दो पीठों के भावी शंकराचार्य हैं. यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि स्वरूपानंद कांग्रेस समर्थित शंकराचार्य हैं. कांग्रेस ने हमेशा ही बद्रीनाथ स्थित शंकराचार्य पीठ पर उनके दावे का समर्थन किया है.

अग्रवाल द्वारा तय किए पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद को 17 की बैठक के लिए 16 को पत्र भेजा गया. वे चाह कर भी इस बैठक में शामिल नहीं हो पाए. रामानंदाचार्य स्वामी हंसदेवाचार्य का नाम भी सूची में से काट दिया गया. इन दोनों के स्थान पर शिया धर्मगुरु कल्बे जब्बार और जैन संत लोकेश मुनि को बैठक में शामिल किया गया. जल्दी ही यह साफ हो गया कि प्रधानमंत्री का गंगा पर दिया गया आश्वासन सिर्फ एक आश्वासन है और कुछ नहीं.

इस बैठक के बाद अग्रवाल को एहसास हो जाता है कि उन्हें सरकार और साथियों दोनों ठगा है. लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. जीडी अग्रवाल गंगा के नाम पर राजनीति चमकाने वाले संगठनों, बाबाओं और शंकराचार्यों की लड़ाई का एक मोहरा बन चुके थे. इसके बाद सानंद ने खुद को अविमुक्तेश्वरानंद से अलग कर लिया और मातृ सदन आकर रहने लगे.
लेकिन मातृ सदन में सबकुछ ठीक है यह सोचना भी हमारा भोलापन है.

एक संत हैं गोपाल दास. जिन दिनों प्रोफेसर जीडी अग्रवाल का अनशन मातृ सदन में जारी था उन्हीं दिनों गोपाल दास भी गंगा की अविरलता को लेकर अनशन कर रहे थे. (उनका अनशन अब भी जारी है.) गोपाल दास का सीधा संबंध हरिद्वार के आश्रम मातृ सदन से नहीं रहा, इसलिए वे अपना अनशन कभी हरियाणा, कभी ऋषिकेश तो कभी बद्रीनाथ में करते रहे हैं. अग्रवाल की शहादत के बाद बदली परिस्थितियों में वे मातृ सदन आए और वहां से अनशन जारी रखने की इच्छा प्रकट की. इस माहौल में जब पूरे देश का ध्यान मातृ सदन की ओर था. आश्रम के प्रमुख स्वामी शिवानंद ने उन्हें अग्रवाल की जगह बैठने की अनुमति दी और एलान किया कि सरकार को खून चाहिए तो संत एक के बाद एक खून देने को तैयार हैं.

लेकिन दो दिन में तस्वीर बदल गई.

गोपाल दास ने खुद को अग्रवाल के कमरे में बंद कर लिया और अपने खून से एक पत्र प्रधानमंत्री को लिखा. आनन फानन में प्रशासन दरवाज़ा काटने का कटर लेकर मातृ सदन पहुंचा और गोपाल दास को उठा कर ऋषिकेश एम्स में भर्ती करा दिया. गोपाल दास दसियों बार अलग–अलग अस्पतालों में भर्ती हो चुके हैं. वर्तमान में वे दिल्ली एम्स में भर्ती हैं और वहीं से अपना अनशन जारी रखे हुए हैं.

इस घटना के बाद शिवानंद ने उन्हें मातृ सदन लौटने की अनुमति नहीं दी. कहा गया कि गोपाल दास गंगा आंदोलन की गरिमा को ठेस पहुंचा रहे हैं. मातृ सदन ने कहा कि आश्रम हिंसा के खिलाफ है और गोपाल दास द्वारा खून से लिखे गए पत्र का समर्थन नहीं करता. सरकार को अपना खून देने को तैयार शिवानंद ने खून से लिखे पत्र पर घोर आपत्ति दर्ज की. एक पक्ष यह भी है कि गोपाल दास मीडिया का ध्यान खींच रहे थे और आंदोलन का चेहरा बन गए थे. इस पूरी खींचतान में गंगा का मूल विषय पीछे छूट गया और श्रेय तथा ध्यान खींचने का खेल चलने लगा.

गोपाल दास फिर मातृ सदन नहीं लौटे और त्रिवेणी घाट पर अनशन जारी रखा. जहां से प्रशासन उन्हें उठाकर दिल्ली ले आया. इस बीच आश्रम के दो संत ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद और स्वामी पुण्यानंद ने अनशन शुरू कर दिया. मातृ सदन बेशक गंगा आंदोलन के मुद्दे पर सन्यासी विद्रोह का गढ़ बनकर उभरा है लेकिन यह भी सच है कि इस समय देशभर में 100 से ज़्यादा जगहों पर संत और पर्यावरण कार्यकर्ता गंगा को लेकर अनशन कर रहे हैं लेकिन ये लोग कभी भी एक साथ एक मंच पर नहीं आते.

इनके अलावा सैकड़ों हज़ारों की संख्या में ऐसे एनजीओ हैं जो गंगा की बात करके ही अपनी रोज़ी रोटी चलाते हैं. इनमें कई अपने कामों को लेकर गंभीर हैं लेकिन फंड के लिए सरकार पर निर्भर हैं, अत: खुलकर बोलने से डरते हैं. कई संगठन हैं जिनकी गंगा के प्रति आस्था किसी भी संदेह से परे है किंतु इन संगठनों की आपस में नहीं बनती. सबके अपने– अपने स्वार्थ हैं.

दिल्ली एम्स में भर्ती गोपाल दास का समर्थन संत समुदाय खुलकर नहीं कर रहा. कुछ लोग तो दबी जुबान में उन्हें फर्ज़ी बताने से भी नहीं चूक रहे. इन बातों का फायदा सत्ता उठाती है. यही कारण है कि गोपाल दास से बात करने गंगा मंत्रालय का कोई अधिकारी नहीं गया.

मातृ सदन की निष्ठा सिर्फ गंगा और उसके पर्यावरण के प्रति है. अग्रवाल के पहले सफल अनशनों में भी मातृ सदन शामिल रहा था. निगमानंद की मौत के बाद मातृ सदन सुर्खियों में आ गया और अग्रवाल के आ जाने के बाद से मातृ सदन गंगा आंदोलन का गढ़ बन गया. लेकिन मातृ सदन या गंगा अभियान या गंगा एक्शन परिवार या गंगा आह्वान को यह तय करना होगा कि वे क्या बनना चाहते हैं- आंदोलन के झंडाबरदार या सच्चे गंगा पुत्र.

(अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार हैं.)

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