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Saturday, 21 December, 2024
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फेसबुक समन के मामले में SC को फिर से क्यों आई 16 साल से लंबित पड़े एक मामले की याद

एन रवि बनाम विधान सभा केस, और फेसबुक बनाम दिल्ली असैम्बली केस दोनों का संबंध संसदीय/विधायी शक्तियों और विशेषाधिकारों तथा उनके उल्लंघन से है.

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नई दिल्ली: उत्तरपूर्वी दिल्ली में 2020 के दंगों के सिलसिले में, 8 जुलाई को दिल्ली असैम्बली की पीस एंड हार्मनी कमेटी की ओर से, फेसबुक को जारी समन की वैधता को बरक़रार रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने 16 साल से शीर्ष अदालत में लंबित पड़े एक संबंधित मामले के त्वरित निपटारे की भी बात की है.

2003-05 का एन रवि बनाम विधान सभा केस, और फेसबुक बनाम दिल्ली असैम्बली केस दोनों का संबंध संसदीय/विधायी शक्तियों और विशेषाधिकारों तथा उनके उल्लंघन से है.

दोनों ही केस वो सवाल भी उठाते हैं जिस पर आज अलग अलग संदर्भों में बहस बढ़ती जा रही है- संसदीय/विधायी शक्तियों की सीमाओं की परिभाषा, और क्या वो नागरिकों के बोलने, चुप रहने, और उनकी निजता के मौलिक अधिकारों पर भारी पड़ने चाहिएं.

सात जजों की बेंच के सामने लंबित बड़ा सवाल ये है, कि इस उल्लंघन की क्या लाइन अथवा सीमा होनी चाहिए. कोर्ट ने कहा कि सोशल मीडिया के प्रचलन और प्रभाव- मसलन, फेसबुक के भारत में 33 करोड़ से अधिक यूज़र्स हैं- और देश के नागरिक जीवन में इसकी भूमिका के चलते, ये सवाल और भी अहम हो जाता है.
जस्टिस संजय किशन कॉल की अध्यक्षता वाली एक तीन-सदस्यीय बेंच ने कहा कि एन रवि मामले को ‘कुछ प्राथमिकता दिए जाने की ज़रूरत है ताकि, विशेष रूप से ऐसे मामलों में बढ़ते टकरावों के संदर्भ में, इससे जुड़े कानूनी सिद्धांत तय किया जा सकें’.

फेसबुक इंडिया के वाइस प्रेसिडेंट अजीत मोहन ने, असैम्बली कमेटी द्वारा दंगों की जांच पूरी किए जाने से पहले ही, कमेटी की ओर से जारी समन को अदालत में चुनौती दी थी. अदालत ने इस क़दम को ‘पहले से चली गई चाल क़रार दिया’.

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ये भी चाहता था कि कोर्ट विधायी की विशेषाधिकार शक्तियों को विधिबद्ध कर दे, जिसके लिए कोर्ट ने कहा कि ‘ऐसा करना सदन के अपने विवेक के ऊपर है’.

एन रवि केस की रूप रेखा

2003 में पत्रकार एन रवि और अन्य ने, उस समय शीर्ष अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था, जब तमिलनाडु असैम्बली ने विशेषाधिकार उल्लंघन और घोर अवमानना के आरोपों में, पत्रकारों की गिरफ्तारी का आदेश जारी कर दिया था. तमिलनाडु असैम्बली के तत्कालीन स्पीकर के कालिमुथु ने ये आदेश दि हिंदू में छपे एक संपादकीय के सिलसिले में जारी किया था, जिसमें तब की मुख्यमंत्री जे जयललिता का उल्लेख किया गया था.

बाद में वही लेख डीएमके पार्टी के दैनिक अख़बार मुरासोली में फिर से छपा, जिसके संपादक एस सेल्वम उन पत्रकारों में थे, जिन्हें असैम्बली ने गिरफ्तार होने वाले व्यक्तियों की लिस्ट में नामित किया था.

2003 में, सुप्रीम कोर्ट ने छह पत्रकारों की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी, और असैम्बली स्पीकर, असैम्बली सचिव, तमिलनाडु पुलिस महानिदेशक, और चैन्नई पुलिस आयुक्त तथा दो अन्य अधिकारियों को नोटिस जारी किए थे.

दि हिंदू पत्रकारों के वकील सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे ने कोर्ट से गुज़ारिश की थी कि ‘अब समय आ गया है कि विधायिकाओं के विशेषाधिकारों को विधिबद्ध किए जाए…’.

उन्होंने कहा था, ‘मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता पर कलंक लगना अवमानना नहीं बनता, अगर किसी ने ‘ग़ुस्से से’ कहने की बजाय कि ये कह दिया कि वो ‘ग़ुस्से से खौल’ रहीं थीं.

उस समय केस की संक्षिप्त सुनवाई के दौरान, चर्चा इस बात पर थी कि विधायिका के सदस्यों के विशेषाधिकार क्या हैं, और मीडिया किस हद तक विधायिका के कामकाज की आलोचना कर सकता है. रवि और अन्य पत्रकारों की ओर से, साल्वे ने कोर्ट से गुज़ारिश की थी कि अगर इस बारे में कोई क़ानून नहीं है, तो कोर्ट नियम तय करे.

2005 में केस की आख़िरी सुनवाई के समय तक, उल्लंघन की परिभाषा और विधायिका के सदस्यों के विशेषाधिकार की सीमाएं, निर्धारित नहीं की गईं थीं.

2004 में, इसी तरह के पुराने मामलों में दो फैसलों के बीच टकराव को देखते हुए, इस केस को एक सात-सदस्यीय खंडपीठ को सौंप दिया गया. वो फैसले थे 1958 में दिया गया एमएसएम शर्मा फैसला, और 1965 का केशव सिंह मामला.

दोनों फैसलों में मौलिक अधिकारों और संसदीय विशेषाधिकारों के परस्पर रिश्तों पर, दो अलग अलग विचार दिए गए थे. जहां शर्मा फैसले में मौलिक अधिकारों को प्रधानता दी गई थी, वहीं केशव सिंह फैसला ये था कि मौलिक अधिकारों को, संसदीय विशेषाधिकारों पर तरजीह नहीं दी जा सकती.

मामले को सुलझाने के लिए, फेसबुक मामले की सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की बेंच चाहती है, कि अदालत एन रवि केस को फिर से खोलकर उसपर फैसला सुनाए.

बोलने के अधिकार में न बोलने का अधिकार भी शामिल: फेसबुक

एससी ने एन रवि केस का हवाला उस समय दिया, जब फेसबुक ने दावा किया कि संविधान के अनुच्छेद 105(3) और 194(3) के अंतर्गत शक्तियों, विशेषाधिकारों, और प्रतिरक्षाओं से- इन दो अनुच्छेदों का संबंध संसद या प्रदेश असैम्बली, और उसके सदस्यों की शक्तियों और विशेषाधिकारों से हैं- अनुच्छेद 19 (1)(a) के तहत अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन नहीं होना चाहिए.

फेसबुक ये भी चाहती थी कि संसदीय विशेषाधिकार के मुक़ाबले, बोलने की आज़ादी और निजता के अधिकार में विस्तार किया जाए, जिसका अर्थ ये हो कि उसे ख़ामोश रहने, और समन की तामील में कमेटी के सामने पेश होने से इनकार का अधिकार है.

फेसबुक के अनुसार, ‘आवश्यक कार्रवाई’ की धमकी ‘अभिव्यक्ति और निजता दोनों अधिकारों के उल्लंघन के लिए पर्याप्त थी’. उसकी दलील थी कि उसके अधिकारों पर ‘हमले की धमकी’ को ‘संभावित उल्लंघन करने वाले को रोककर ख़त्म किया जा सकता है’.

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का तर्क था, कि अगर सदन के विशेषाधिकार की शक्ति को मान लिया जाए तो भी इसका ‘अर्थ संकीर्ण’ किया जाना चाहिए, ताकि निजता और अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकारों को अधिक से अधिक प्रमुखता दी जा सके, जिसमें ख़ामोश रहने का अधिकार भी शामिल है.

विशेषाधिकार बनाम मौलिक अधिकार

लेकिन, कोर्ट ने कहा कि फेसबुक का तर्क स्वीकार करना मुश्किल है, क्योंकि एन रवि मामले, या संसदीय विशेषाधिकार बनाम भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे पर फैसला आना अभी बाक़ी है

कोर्ट ने कहा कि विधान सभा और उसकी कमेटियों जैसी निर्वाचित इकाइयों को पूरे अधिकार देने होंगे, और फेसबुक की इस दलील को स्वीकार करना एक ‘भारी त्रासदि’ होगी, कि विधायिका को केवल क़ानून बनाने तक प्रतिबंधित कर दिया जाए.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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