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Monday, 23 December, 2024
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इलाहाबाद HC ने कहा- पहली पत्नी और बच्चों की देखभाल में नाकाम मुस्लिम को दूसरी शादी का हक नहीं

बेंच वैवाहिक अधिकारों की बहाली की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी. कोर्ट ने कहा कि पहली बीवी की सहमति के बगैर बिना बताए शादी करना क्रूरता है और यह जानते हुए पहली पत्नी को उसके साथ रहने के लिए मजबूर करना महिला के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा.

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नई दिल्ली: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि अगर कोई मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी और बच्चों की देखभाल नहीं कर सकता है, तो कुरान उसे दूसरी बार शादी करने की इजाजत नहीं देता है. कोर्ट ने एक मुस्लिम महिला को अपने पति के साथ रहने के लिए मजबूर करने से इनकार कर दिया, जिसने अपनी बीवी की सहमति के बगैर बिना बताए दूसरी शादी की थी.

19 सितंबर को दिए गए इस फैसले, जिसे पिछले सप्ताह सार्वजनिक किया गया था, में अदालत ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर जोर दिया और कहा कि ‘मौजूदा समय की जरूरत है कि लोगों को जागरूक किया जाए और उन्हें बताया जाए कि महिलाओं के साथ सम्मान और गरिमा के साथ व्यवहार करना जरूरी है’.

जस्टिस सूर्य प्रकाश केसरवानी और राजेंद्र कुमार-IV की पीठ ने कहा, ‘अगर कोई मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी और बच्चों को पालने में सक्षम नहीं है, तो पवित्र कुरान के उपरोक्त आदेश के अनुसार, वह दूसरी महिला से शादी नहीं कर सकता है.’

इस मामले में दंपति – अज़ीज़ुर्रहमान और हमीदुन्निशा ने मई 1999 में शादी की और उनके चार बच्चे हैं. इसके बाद अज़ीज़ुर्रहमान ने दूसरी शादी की और दूसरी पत्नी के साथ भी उनके बच्चे हैं.

फैसले की प्रति के अनुसार, उसने अपनी पहली पत्नी हमीदुन्निशा से यह बात छिपाई थी और दूसरी शादी के लिए उसे कोई स्पष्टीकरण भी नहीं दिया था. उसके बाद हमीदुन्निशा उससे अलग अपने 93 वर्षीय पिता के साथ रहने लगी.


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2015 में अज़ीज़ुर्रहमान ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली की मांग करते हुए उत्तर प्रदेश में एक पारिवारिक अदालत का दरवाजा खटखटाया. वह चाहता था कि अदालत उसकी पहली पत्नी को उसके साथ रहने का निर्देश दे.

अदालत ने इस साल अगस्त में उसकी याचिका खारिज कर दी थी, जिसके बाद उसने इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया.

अपने फैसले में अदालत ने कुरान के सूरह 4 आयत 3 को हवाला दिया, जिसमें कहा गया है, ‘अगर तुम्हें डर है कि तुम अनाथों के साथ न्यायसंगत व्यवहार नहीं कर पा रहे हो, तो उन महिलाओं से शादी करें जो तुम्हें अच्छी लगती हैं: दो, या तीन, या चार. अगर तुम्हें इस बात की आशंका है कि तुम उन सभी के साथ न्यायसंगत व्यवहार न कर पाओगे, तो एक किसी एक करीबी (राइट हैंड) से विवाह कर लो. इससे इस बात की अधिक संभावना होगी कि तुम अन्याय करने से बचे रहोगे.’

कुरान का उल्लेख करते हुए फैसला पढ़ा गया, ‘सूरा 4 आयत 3 का धार्मिक जनादेश सभी मुस्लिम पुरुषों पर बाध्यकारी है, जो विशेष रूप से सभी मुस्लिम पुरुषों को अनाथों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करने का आदेश देता है और फिर वे अपनी पसंद की महिलाओं से दो या तीन या चार से शादी कर सकते हैं, लेकिन यदि एक मुस्लिम व्यक्ति को डर है कि वह उनके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं कर पाएगा, तो वह सिर्फ एक के साथ शादी करे.’

अदालत ने स्पष्ट किया कि एक मुस्लिम पति को अपनी पहली पत्नी के रहते हुए दूसरी बार शादी करने का कानूनी अधिकार है, लेकिन वह अदालत से अपनी पहली पत्नी को उसके साथ रहने के लिए मजबूर करने के लिए कहता है, तो ऐसे में अगर अदालत को लगता है कि पहली पत्नी को उसके साथ रहने के लिए मजबूर करना अन्यायपूर्ण और अनुचित होगा, तो वह इसकी इजाजत नहीं देगी.’

पीठ ने कहा कि अगर कोई मुस्लिम पुरुष पहली पत्नी की इच्छा के विरुद्ध दूसरी पत्नी लाने के बाद भी पहली पत्नी को अपने साथ रहने के लिए मजबूर करने के लिए दीवानी अदालत की सहायता चाहता है, तो अदालत ‘दूसरी शादी की पवित्रता का सम्मान करेगी, लेकिन यह पहली पत्नी को, उसकी इच्छा के विरुद्ध, बदली हुई परिस्थितियों में पति के साथ रहने के लिए मजबूर नहीं करेगी और किसी अन्य महिला के साथ अपने आपको साझा करने के लिए नहीं कहेगी. सबूतों के आधार पर उसे ऐसा करने के लिए मजबूर करना अनुचित होगा.’

‘पत्नी के अधिकारों का हनन’

अदालत ने यह भी देखा कि जिन परिस्थितियों में दूसरी शादी हुई, वे यह तय करने में प्रासंगिक हैं कि क्या दूसरी बीवी लाना, अपने आप में पहली पत्नी के साथ क्रूरता का कार्य था.

कोर्ट ने कहा कि इस तथ्य को छिपाना कि उसने दूसरी बार शादी की, अपनी पहली पत्नी के प्रति क्रूरता है. इसलिए, अदालत ने अपील को ‘पूरी तरह से गंभीरता से विचार न करने वाला’ बताते हुए खारिज कर दिया. कोर्ट के मुताबिक, ‘इन परिस्थितियों में अगर पहली पत्नी अपने पति-वादी अपीलकर्ता के साथ नहीं रहना चाहती है, तो उसे उसके साथ जाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है.’

अदालत ने महसूस किया कि अगर पत्नी को ऐसी परिस्थितियों में अपने पति के साथ रहने के लिए मजबूर किया जाता है, तो यह ‘भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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