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Tuesday, 19 November, 2024
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जलवायु की समस्या के लिए ICAR का हीट-रेजिस्टेंट गेहूं बाजारों में मौजूद, 100 दिनों में तैयार होगी फसल

'पूसा अहिल्या' या एचआई 1634 के बारे में कहा जाता है कि इसकी बुवाई हीटवेव के प्रभाव के जोखिम के बिना बाद में भी हो सकती है, और इसकी प्रति हेक्टेयर 70.6 क्विंटल की उच्च उपज क्षमता होती है.

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नई दिल्ली: ऐसे समय में जब देश भर के गेहूं किसान मार्च में पड़ रही झुलसने वाली गर्मी के कारण खराब फसल की समस्या से जूझ रहे हैं, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के वैज्ञानिकों ने इस फसल की एक नई ताप प्रतिरोधी (हीट-रेज़िस्टेंट) किस्म जारी की है.

एचआई 1634 या ‘पूसा अहिल्या’ के रूप में जानी जाने वाली इस किस्म को पश्चिम में राजस्थान और गुजरात से लेकर मध्य प्रदेश के बीच वाले इलाक़े तथा उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों तक जाने वाली एक पट्टी की जलवायु के लिए उपयुक्त बताया गया है.

ऐसा कहा जाता है कि इसके उपयोग से किसान अपनी फसलों को गर्मी की तपन से बचाने में सक्षम होंगे, भले ही वे सामान्य समय से बाद अपनी फसल बोएं.

तीन साल के फील्ड ट्रायल (खेत में किए गए परीक्षण) के बाद यह किस्म उपरोक्त राज्यों में अगले सीजन में खेती के लिए उपलब्ध है.

पूसा अहिल्या किस्म को विकसित करने वाले शोधकर्ताओं के अनुसार इसे दिसंबर या जनवरी के अंत तक बोया जा सकता है. इसमें 100 दिनों में फूल आ जाता है, जिसका अर्थ है कि फसल मार्च में काटी जा सकती है. आमतौर पर गेहूं अक्टूबर-नवंबर में बोया जाता है और मार्च-अप्रैल में काटा जाता है.

मध्य प्रदेश में आईसीएआर-इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ आयिलसीड्स रिसर्च में शोधकर्ता और इस किस्म को विकसित करने वाली टीम के एक हिस्से के रूप में शामिल दिव्या अंबाती ने दिप्रिंट को बताय., ‘एचआई 1634 या पूसा अहिल्या को देर से बुवाई की स्थिति के लिए जारी किया गया था – यानी उन किसानों के लिए जो आलू या किसी अन्य फसल के बाद दिसंबर या जनवरी के महीने में गेहूं बोना चाहते हैं.’

उन्होने आगे कहा ‘यह एक ब्रेड वीट वाली किस्म है, और चपाती, बिस्कुट और ब्रेड बनाने के लिए काफ़ी उपयोगी है.’

इस साल, मार्च में चली लू की वजह से देश भर में गेहूं सहित कई फसलों की पैदावार में गिरावट आई थी. गेहूं के कम उत्पादन और बढ़ती कीमतों का सामना करने के बाद सरकार ने पिछले महीने गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था.

जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर खाद्य सुरक्षा के वैश्विक चिंता का कारण बनने के साथ ही फसलों की जलवायु परिवर्तन प्रतिरोधी किस्में काफ़ी तेजी के साथ महत्वपूर्ण बन गई हैं.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ राइस रिसर्च (भारतीय चावल अनुसंधान संस्थान) में प्रमुख वैज्ञानिक एस.वी. साई प्रसाद , जिन्होंने इस किस्म के विकास का नेतृत्व किया है , के अनुसार पूसा अहिल्या न केवल ‘ताप प्रतिरोधी’ है, बल्कि इसकी उपज क्षमता भी 70.6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

इस संदर्भ में बता दें कि, पंजाब, जो देश में गेहूं का एक प्रमुख उत्पादक राज्य है, में गेहूं की औसत उपज 2022 में लगभग 42 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और उससे एक साल पहले लगभग 48 क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी.


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गेहूं को लगी गर्मी

जब तापमान मनचाहे स्तर से ऊपर चला जाता है तो गेहूं का उत्पादन और गुणवत्ता दोनो प्रभावित हो सकते हैं.

विशेष रूप से ‘एंथिसिस’ – जब इस फसल में फूल आते हैं – वाले चरण के दौरान गेहूं की फसल गर्मी वाले तनाव के प्रति संवेदनशील हो जाती है

इस महत्वपूर्ण चरण के दौरान, यदि फसल 23 डिग्री सेल्सियस के औसत से अधिक गर्मी के संपर्क में आती है, तो इसका दाना तेजी से पकने लगता है, और इसमें ‘कम भराव’ होता है. इससे उपज कम होती है.

इस साल, भारत के कई हिस्सों में काफ़ी जल्द पड़ने वाली और लंबे समय तक चली गर्मी का अनुभव किया गया , मार्च और अप्रैल में तो तापमान रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया था

गर्मी के इस जल्द आगमन ने गेहूं के उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित किया. मार्च में लू के चलते 2022 में गेहूं का उत्पादन इसके एक साल पहले की तुलना में 10 फीसदी कम रहने का अनुमान है.

पिछले महीने, सरकार को जून में समाप्त होने वाले फसल वर्ष (क्रॉप एअर) 2021-22 में गेहूं उत्पादन के अपने अनुमान को 5.7 प्रतिशत कम करके 105 मिलियन टन करना पड़ा, जबकि पहले का अनुमान 111.32 मिलियन टन था.

पूसा बकुला: पौष्टिक रूप से संवर्धित गेहूं

पूसा अहिल्या के अलावा, आईसीएआर टीम ने बायोफोर्टिफाइड या पौष्टिक रूप से संवर्धित गेहूं की एक और किस्म भी विकसित की है, जिसे यह जिंक से भरपूर और चपाती, बिस्कुट और ब्रेड बनाने के लिए भी उपयुक्त बताता है.

एचआई 1636, या ‘पूसा बकुला’ के रूप में जानी जाने वाली, यह किस्म इसी सत्र में जारी की गई है और नवंबर में बुवाई के लिए उपयुक्त है. इसकी उपज क्षमता 72 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

अंबाती ने कहा, ‘[पूसा बकुला] एक ऐसी किस्म है जो पिछली किस्म के 16 साल बाद जारी की गई है. इन सालों के दौरान हम इस किस्म में जिन विशेषताओं की अपेक्षा करते हैं, उनकी स्थिरता कम हो रही है.’

तीन से चार वर्षों की खेती के बाद, इन किस्मों के जीन ऐसे रूप विकसित हो सकते हैं जो उनकी विशेषताओं की कम कर देते हैं. अंबाती ने कहा, ‘हर जीन उत्परिवर्तन का पता लगाना या इसे ट्रैक करना संभव नहीं है. इसलिए, हर कुछ वर्षों में, कुछ नई विशेषताएँ सामने आ सकती हैं. उपज की बेहतर बनाने के लिए हम नई किस्मों को विकसित करने पर काम करते रहते हैं.’

साल 2008 में, आईसीएआर ने भारत के मध्य भागों में शुरुआती सर्दियों में होने वाली बुवाई के लिए ही एचआई 1544 नामक एक बायोफोर्टिफाइड फसल जारी की थी. इसकी उपज क्षमता लगभग 55 क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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