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Monday, 18 November, 2024
होमदेशCOVID महामारी के बीच कैसे कुपोषण से अपनी लड़ाई लड़ रहा है UP का यह सुदूर, पिछड़ा जिला

COVID महामारी के बीच कैसे कुपोषण से अपनी लड़ाई लड़ रहा है UP का यह सुदूर, पिछड़ा जिला

चित्रकूट में अभी तक लगभग 726 बच्चों की पहचान एसएएम से प्रभावित बच्चों के रूप में की गई है. 5 वर्ष से कम आयु के अन्य 9,028 बच्चों की पहचान कुपोषित के रूप में की गई है, लेकिन उनमें इसका स्‍तर एसएएम से कम है.

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चित्रकूट: अपने सबसे छोटे बच्चे – 11 महीने की राधिका – की चित्रकूट जिला अस्पताल के बाल रोग विशेषज्ञ डाक्टर से जांच करवाते हुए शोभा, जो 30 साल में पांच बच्चो की मां बन चुकी हैं, शिकायत करती हैं,’ सारा दिन री-री करती रहती है.’

शोभा, जो कभी स्कूल नहीं गई और जिनकी शादी बचपन में हीं हो गई थी. अपनी बीमार बेटी – जो स्पष्ट रूप से रुग्ण लगती है – के बारे में बस इतना हीं बता पाती है.

डॉक्टर तब उस आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, अनीता देवी, की और बढ़ते हैं जो मानिकपुर ब्लॉक से शोभा के साथ आई हैं,और तब जाकर एक स्पष्ट तस्वीर सामने आती है. राधिका, जिसे निमोनिया-ग्रस्त भी पाया गया है, गंभीर एवम् कुपोषण (सीवियर एक्यूट मॅलनुट्रिशन-एसएएम) से पीड़ित है.

चित्रकूट एनआरसी में बच्चों की जांच करती बाल रोग विशेषज्ञ | ज्योति यादव | दिप्रिंट/कैप्शन)

अनीता देवी ने दिप्रिंट को बताया, ‘उनकी (शोभा की) तीसरी संतान भी एसएएम है. लेकिन उसने एनआरसी में आने से इनकार कर दिया. इसलिए, उस बच्चे को घर पर हीं देखभाल और एक पूरक पोषण किट प्रदान की गई.’

उस वक्त हम सब एक ऐसी जगह पर थे जहां दो कमरों वाला एक सेट-अप पोषण पुनर्वास केंद्र (न्यूट्रीशनल रीहॅबिलिटेशन सेंटर- एनआरसी) के रूप में कार्य करता है. यह एक खास तरह की स्वास्थ्य संबंधी सुविधा है जिसे केंद्र सरकार द्वारा सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कुपोषित बच्चों को भर्ती करने, उनका समुचित इलाज करने और उनका स्वास्थ्य ठीक करने की लिए स्थापित किया गया है.

माना जाता है कि एक सुपोषित बच्चे की तुलना में एसएएम से प्रभावित बच्चों की मृत्यु का जोखिम नौ गुना अधिक होता है. इस स्थिति को इन बच्चों के शारीरिक विकास में एक बड़ी रुकावट से भी जोड़ा जाता है, लेकिन चित्रकूट जिले जैसे ग्रामीण इलाकों में इसके बारे में जागरूकता काफ़ी कम है.

यही विचार चित्रकूट के जिला मजिस्ट्रेट शुभ्रंत कुमार शुक्ला के दिलोदिमाग पर भी छा रहा है कि क्योंकि कई मीडिया रिपोर्टों में यह दावा किया जा रहा है कि कोविड की आसन्न तीसरी लहर के दौरान ऐसे बच्चों को अधिक जोखिम हो सकता है. (हालांकि इस सिद्धांत के आलोचक भी मौजूद हैं).

इसी विचार के बाद उन्होंने ‘संभव’ नाम से एक पहल शुरू की है, जिसमें आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता जून और जुलाई के महीने में जिले भर में घूमें और उन्होने विभिन्न घरों में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की एसएएम से ग्रस्त होने की संभावना के लिए जांच पड़ताल की और उनके परिवारों को संस्थागत मदद पाने के लिए राजी किया,

23 जुलाई से प्रशासन ने ऐसे बच्चों को एनआरसी में दाखिल करना शुरू कर दिया, जहां उन्हें एक या दो सप्ताह के लिए भर्ती रखना अनिवार्य है और मरीजों को तब तक वापस नहीं जाने दिया जाता जब तक कि उनका स्वास्थ्य स्थिर नहीं हो जाता और वे ठीक से खाना शुरू नहीं कर देते.

चित्रकूट में अभी तक लगभग 726 बच्चों की पहचान एसएएम से प्रभावित बच्चों के रूप में की गई है. 5 वर्ष से कम आयु के अन्य 9,028 बच्चों की पहचान कुपोषित के रूप में की गई है, लेकिन उनमें इसका स्‍तर एसएएम से कम है.

हालांकि शोभा सहित कई महिलाएं अपने बच्चों से साथ पिछले दो सप्ताह में इस केंद्र पर आ चुकी हैं, मगर अधिकारियों का कहना है कि जहां कई सारे बच्चों का इस केंद्र में इलाज चल रहा है, वहीं कुछ माता-पिता को अपने एसएएम से ग्रस्त बच्चों को यहां लाने और उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाने के लिए राजी करना एक चुनौती भरा काम है.

जो लोग बच्चों को भर्ती करवाने के लिए सहमत नहीं हैं, उन्हें नियमित जांच एवम् इलाज के लिए फिर से आने और पोषण किट प्रदान करने पेशकश की जाती है.

एसएएम का महासंकट

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का कहना है कि दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में होने वाली 35 फीसदी मौतों के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कुपोषण जिम्मेदार है.

संयुक्त राष्ट्र की स्वास्थ्य एजेंसी द्वारा एसएएम को वजन-ऊंचाई/वजन-लंबाई, के बहुत कम अनुपात अथवा बाइलॅटरल पिटिंग ऑयिड्मा (शरीर में द्रव निर्माण के कारण आने वाली सूजन), या फिर मध्य-ऊपरी बांह की बहुत कम मुटाई के नैदानिक संकेतों के रूप में परिभाषित किया गया है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-16) के विजन डॉक्यूमेंट के अनुसार, भारत में पांच साल से कम उम्र के 7.5 फीसदी बच्चे गंभीर रूप से कमजोर हैं और 35.8 फीसदी बच्चे कम वजन वाले हैं.

पिछले महीने राज्यसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए, केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने आईसीडीएस-आरआरएस (रैपिड रिपोर्टिंग सिस्टम) के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा था कि, 30 नवंबर 2020 तक के आंकड़ों के हिसाब से देश भर में 6 महीने और 6 साल के बीच की उम्र के 9,27,606 बच्चों की एसएएम प्रभावित के रूप में पहचान की गई है.


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भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश का इस आंकड़े में लगभग 40 प्रतिशत – 3,98,359 – का हिस्सा है.

इस खतरे से निपटने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत देश भर में 10 बेड वाले 1,151 एनआरसी स्थापित किए हैं.

जैसा कि कई राज्यों के अधिकारियों ने दिप्रिंट की बताया है कॉविड की तीसरी लहर से पहले, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार सहित कई राज्यों के जिलों ने एनआरसी पर अपना ध्यान और तेज कर दिया है,

हालांकि चित्रकूट हिंदुओं के लिए अत्यंत धार्मिक महत्व वाला स्थान है फिर भी यह दक्षिणी उत्तर प्रदेश का एक सुदूरवर्ती जिला है जो मध्य प्रदेश की सीमा से लगे स्थित है.

यह केंद्र सरकार द्वारा अपने आकांक्षी जिला कार्यक्रम (आस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट्स प्रोग्राम) के तहत विशेष रूप से विकास के लिए चिन्हित किए गये 100 से भी अधिक पिछड़े क्षेत्रों में से एक है.

एक ग्रामीण जिला होने के नाते – 2011 की जनगणना के अनुसार 90 प्रतिशत से अधिक आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है – चित्रकूट के निवासी मुख्य रूप से दिहाड़ी मजदूर हैं जो खेतों या खदानों में अपने कार्यस्थल तक पहुँचने के लिए रोजाना कई किलोमीटर पैदल चल कर जाते हैं. ऐसे में अक्सर वे अपने नवजात शिशुओं के देखभाल की ज़िम्मेदारी उनके भाई-बहनों पर छोड़ देते हैं. निम्न साक्षरता दर – 2011 की जनगणना के अनुसार 65.05 प्रतिशत (पुरुष -75.8 प्रतिशत, महिला – 52.7 प्रतिशत) का अर्थ यह है कि कुपोषण और और उसके निदान के लिए सरकार की योजनाओं जैसे कि राज्य पोषण मिशन (एसएनएम-यूपी), एकीकृत बाल विकास योजना (आईसीडीएस) राष्ट्रीय पोषण मिशन (एनएनएम) जैसी योजनाओं के बारे में जागरूकता की भारी कमी है.

बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों का व्यापक प्रचलन मामले को और भी बदतर बना देता है.

संभव कार्यक्रम के बारे में विस्तार से बताते हुए, डी एम शुक्ला ने कहा, ‘ह्मारे पास बच्चों को घर से केंद्र तक लाने और वापस छोड़ने (पिक-अप-ड्रॉप-सर्विस) के लिए 5 ब्लॉक में 10 एम्बुलेंस हैं. जिला प्रशासन के एक दर्जन से अधिक भी अधिकारी इस पहल में शामिल हैं. एक नोडल अधिकारी भी नियुक्त किया गया है और प्रत्येक मामले की निगरानी की जा रही है.’

उन्होने बताया कि आशा कार्यबल को और अधिक प्रेरित करने के लिए सरकार ने हर बच्चे को केंद्र (एन आर सी) में लाने और बच्चे की हालत स्थिर होने तक मां को वहां एक या दो सप्ताह तक रहने के लिए प्रेरित करने पर 50 रुपये का प्रोत्साहन प्रदान करने की व्यवस्था की है. अगर वे बच्चे की केंद्र से छुट्टी के बाद उससे तीन बार मिलने जाती हैं तो वे 50 रुपये अतिरिक्त कमा सकती हैं.

‘घर पर बच्चों को कौन देखेगा’

जब संभव कार्यक्रम की एक टीम – जिसमें छह सदस्य, एक बाल विकास परियोजना अधिकारी, एक जिला कार्यक्रम अधिकारी, एक आंगनवाड़ी पर्यवेक्षक, एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और एक एम्बुलेंस चालक शामिल थे – 27 वर्षीया फूलकली के दरवाजे पर बुधवार दोपहर को पहुंची, तो वह भौचक रह गयी.

शोभा की तरह ही वह भी एक बालिका वधू थी. अपने पांचवें बच्चे, 9 दिन की अंशु, को गोद में लिए, वह टीम को अपनी चार वर्षीय जुड़वां बेटियों तक ले गई, जिनकी पहचान एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता द्वारा एसएएम प्रभावित बच्चों के रूप में की गई थी.

अपने बच्चों के साथ फूलकली | ज्योति यादव | दिप्रिंट[/कैप्शन]

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उन्हें एनआरसी में भर्ती कराने के विचार ने फूलकली को चक्कर में डाल दिया.

वह टीम के साथ यह कहते हुए बहस करने लगी कि ‘हम चले जावें तो बच्चा को कौन देखे? मेरे पति दिहाड़ी मजदूर हैं. मुझे और भी चार बच्चों की देखभाल करनी है.’

यह बहस तकरीबन 30 मिनट तक चलती रही, तब तक जब तक कि फूलकली की भाभी, जो उनके पास में हीं रहती है, ने इसके समाधान की पेशकश करते हुए कहा कि वह लड़कियों को केंद्र में ले जाएगी.

इसने संभव टीम को उम्मीद की एक छोटी सी किरण दिखाई.

डीएम शुक्ला के मुताबिक प्रभावित परिवारों को केंद्र तक लाना उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है. वे कहते हैं, ‘चूंकि इनमें से अधिकांश परिवार दिहाड़ी मजदूरों वाले हैं, इसलिए वे स्वयं यहां आने,रुकने और अपने काम से वंचित होने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं.’

लेकिन चुनौती यहीं खत्म नहीं होती है

चित्रकूट एनआरसी में शोभा उन दर्जनों महिलाओं में से एक थीं, जो पिछले गुरुवार दोपहर अपने बच्चों के साथ वहां पहुंची थीं. जब वे सब अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहीं थी – कुछ अपने बच्चों को खिला रहीं थी, कुछ अन्य बच्चों की जांच कर रहे एकलौते बाल रोग विशेषज्ञ को देख रहीं थी, और अन्य अभी भी तनाव में दिख रहीं थी – तभी शोभा डॉक्टर के साथ बहस करने लगी.

डॉक्टर बे शोभा को बताया कि उसके बच्चे को तत्काल अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत है. लेकिन शोभा अपने अन्य चार बच्चों की चिंता की वजह से अपनी बेटी को भर्ती कराने से इंकार कर देती है.

उन्होने दिप्रिंट से कहा, ‘घर पर कौन देखेगा बच्चों को? पति से परमिसन भी नहीं लिया है. वो काम पर गये हैं और मुझे उनका नंबर भी याद नहीं है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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