scorecardresearch
Sunday, 3 November, 2024
होमदेशमुगलों के शिकार का सहयोगी और ब्रिटिश राज के लिए दरिंदा, भारत से कैसे लुप्त हो गया चीता

मुगलों के शिकार का सहयोगी और ब्रिटिश राज के लिए दरिंदा, भारत से कैसे लुप्त हो गया चीता

भारत सरकार देश में चीतों की आबादी फिर से विकसित करने की तैयारी कर रही है, जिसके लिए नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से ‘प्रयोगात्मक आधार पर’ इस जानवर का आयात किया जाएगा.

Text Size:

नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने इस सप्ताह संसद को बताया कि एशियाई चीता- जो कभी भारत का निवासी होता था- मुख्य रूप से ‘शिकार और प्राकृतिक वास ख़त्म होने से’ लुप्त हो गया था. भारत में 1952 में इस प्राणी को विलुप्त घोषित कर दिया गया था.

भारत सरकार अब देश में चीतों की आबादी फिर से पैदा करने की योजना बना रही है, जिसके लिए नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से ‘प्रयोगात्मक आधार पर’ इस जानवर का आयात किया जाएगा.

भारत ने 20 जुलाई को नामीबिया के साथ एक क़रार कर लिया और सरकार ने संसद को बताया कि ‘दक्षिण अफ्रीका के साथ उसकी बातचीत अगले चरण में है’.

भारत में चीतों का आयात करने की ये पहली कोशिश नहीं है. मसलन, पहले भी ईरान से चीतों का आयात करने की कोशिशें हो चुकी हैं और ऐसे रिकॉर्ड्स भी उपलब्ध हैं कि पूर्व की कुछ रियासतों ने अफ्रीका से इस जानवर को अपने यहां मंगाया था.

अभिलेखागार को खंगालने पर पता चलता है कि किस तरह चीते के बारे में अलग-अलग अवधारणाओं ने- भारत के मुगल शासकों के लिए शिकार के एक प्रमुख सहयोगी से लेकर, ब्रिटिश राज के एक कम अनुकूल नज़रिए तक- इसकी घटती संख्या में एक अहम भूमिका निभाई है.

मुगल दौर में चीते

सबसे तेज़ रफ्तार ज़मीनी जानवर समझे जाने वाले चीते, आकार में बिग कैट परिवार के सबसे छोटे सदस्य होते हैं. आमतौर पर उन्हें इंसानों पर हमला करने या उनका शिकार करने के लिए नहीं जाना जाता है.

अपने पेपर लायंस, चीताज़ एंड अदर्स इन दि मुग़ल लैण्ड्सकेप में वन्यजीव इतिहासकार और संरक्षणवादी दिव्यभानु सिंह ने लिखा, कि मुगल दौर में शेर और चीते में एक ‘अहम’ फर्क़ था.

उन्होंने लिखा, ‘पहला उनके लिए एक चीज़ था, जिसका सबसे बड़ा मक़सद शाही खेल होता था, जिसे सामना होने पर एक ख़ास अंदाज़ में ख़त्म किया जाता था. दूसरी ओर, चीते को पकड़ा जाता था और उसे पालतू बनाकर, शिकार के साधन के तौर पर प्रशिक्षित किया जाता था.’

चीतों को जंगल से पकड़ा जाता था और हिरणों का शिकार या उनका पीछा करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था और दिव्यभानु सिंह के अनुसार, मुगल उनकी ‘बहुत एहतियात के साथ देखभाल करते थे.’

पेपर में उन्होंने बताया कि किस तरह 1572 में, अकबर चित्र नंजन नाम के एक चीते को उस जगह शिकार पर ले गया, जो अब जयपुर हवाई अड्डे के आस-पास का इलाक़ा है और उसे जानवर के प्रदर्शन से इतना सुखद आश्चर्य हुआ कि उसने आदेश दिया कि उसे ‘एक रत्न जड़ित कॉलर पहनाया जाए और उसके आगे आगे ढोल बजाया जाए.’

दूसरे रिकॉर्ड्स से पता चलता है कि 1556 से 1605 तक के अपने शासन काल में अकबर ने 9,000 चीते जमा कर लिए थे.

चीते पूरे महाद्वीप में अच्छे से फैले हुए थे और उन्हें अपने आवास के लिए घास के खुले मैदान और झाड़ीदार जंगल पसंद थे, जहां वो अपने शिकार के पीछे खुलकर दौड़ सकते थे.

लेकिन, एक और वन्यजीव इतिहासकार रज़ा काज़मी का कहना था कि इंसानी ज़रूरतों के हिसाब से ढलने के लिए, ये आवास भी भूमि उपयोग परिवर्तन को लेकर बहुत संवेदनशील थे.

उन्होंने कहा, ‘जब भारत में वंशों और साम्राज्यों का राज था, तो सबसे पहले खुली ज़मीनों को हल के नीचे लाया जाता था. इस बात में बहुत रूचि रहती थी कि ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीन को खेती में लाया जाए. लेकिन साथ ही ये भी सही है कि कुछ इलाक़ों में चीतों के सामान्य आवास, उनकी मौजूदगी ख़त्म होने के बाद भी बने रहे.’

भारत में अभी भी घास के खुले मैदान और झाड़ीदार जंगल मौजूद हैं, भले ही उनका आकार सिकुड़ रहा हो.

संरक्षणवादियों का कहना है कि मुग़लों और उनके बाद के दौर में, चीतों की आबादी कम होने के पीछे एक प्रमुख कारण ये था, कि उस समय चीतों की नस्ल का प्रजनन नहीं किया गया.

चीते इस बात के लिए कुख्यात हैं कि उनका बंदी बनाकर प्रजनन करना बहुत कठिन होता है. 2019 के एक साझा पेपर में, जिसमें भारत में चीतों के लुप्त होने पर रोशनी डाली गई, दिव्यभानु सिंह और काज़मी को ‘20वीं सदी तक दुनिया में किसी भी जगह चीते की ब्रीडिंग की पहली और अकेली मिसाल’ का पता चला. उसे 1613 में सम्राट जहांगीर ने दर्ज किया था.


यह भी पढ़ें : विदेश से चीते लाने की भारत की योजना को लेकर इतनी चिंता क्यों


ब्रिटिश दौर में

जब तक अंग्रेज भारत में क़दम रखते, तब तक यहां एशियाई चीतों की आबादी घटनी शुरू हो गई थी.

पर्यावरण इतिहासकार और अशोका यूनिवर्सिटी में अशोका आर्काइव्ज़ ऑफ कंटेंपरेरी इंडिया के अध्यक्ष महेश रंगाराजन कहते हैं, कि अंग्रेज़ों के भारत में आने के बाद चीते के प्रति रवैया थोड़ा बदल गया.

‘नेचर एंड नेशन’ किताब में उन्होंने लिखा, ‘दक्षिण एशिया के विपरीत, अंग्रेज़ों का बड़े जंगली स्तनधारियों के साथ एक बिल्कुल अलग तरह का रिश्ता था. यूरोप के अधिकतर हिस्सों की तरह, कुछ विशेष जानवरों के खिलाफ संगठित अभियान चलाए जाते थे.’

शेर और बाघ जैसे बड़े कैट्स को मारने का खेल चुनौती भरा समझा जाता था, जबकि चीते समेत दूसरे छोटे जानवर ‘दरिंदे थे जिन्हें मारा जाना था.’

रंगाराजन ने दिप्रिंट को बताया, ‘चीतों के मारने को बहुत ज़्यादा अहमियत नहीं दी जाती थी, क्योंकि इंसानों के लिए उतना बड़ा ख़तरा नहीं थे. वो आकार में भी उतने बड़े नहीं थे, इसलिए उन्हें ट्रॉफी नहीं समझा जाता था.’

रंगाराजन ने ये भी पता लगाया कि औपनिवेशिक शासन में, बड़ी संख्या में चीतों का इनामी शिकार कराया जाता था, जिसमें शावक के लिए 6 रुपए और वयस्क चीते के लिए 18 रुपए दिए जाते थे. उनके शोध के अनुसार, 1870 और 1925 के बीच औसतन हर एक साल में 1.2 चीते इनाम के लिए मारे जाते थे. ये संख्या उन चीतों से अधिक है जो 1800 और 1950 के बीच मारे गए, जिनकी संख्या 127 थी या जिसका सांख्यिकीय औसत साल में एक से कम था.

1998 में जर्नल ऑफ दि बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने लिखा, ‘इसलिए हो सकता है कि इनामी शिकार ने, उन बहुत से क्षेत्रों में जहां ये अभी भी मौजूद है, इनकी संख्या घटने की रफ्तार बढ़ाई हो. इनके अपेक्षाकृत कम घनत्व के मद्देनज़र, छोटी सी संख्या को ख़त्म करने का भी, जंगली आबादी की अपने अस्तिव के लिए ज़रूरी न्यूनतम प्रजनन क्षमता पर विपरीत असर पड़ सकता था.’

चीतों की घटती संख्या की भरपाई के लिए, कुछ रियासतों ने 20वीं सदी के पहले हिस्से में अफ्रीका से चीतों का आयात शुरू कर दिया था. दिव्यभानु सिंह और काज़मी के अनुसार, इसकी पहली मिसाल 1918 में मिलती है और ये प्रथा 1950 के दशक के आरंभ तक जारी रही.

जंगलों की ओर वापसी

सरगुजा के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव के 1947 के एक लोकप्रिय चित्र को, जिसमें वो अपनी बंदूक़ के साथ खड़े हैं और तीन मुर्दा चीते उनके पैरों के पास पड़े हैं, व्यापक रूप से भारत में आख़िरी तीन एशियाई चीतों की तस्वीर माना जाता है.

लेकिन, काज़मी ने उसके बहुत बाद 1975 में झारखंड में एक चीता देखे जाने की घटना दर्ज की है.

अब भारत में नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से कुछ नए चीते लाए जा रहे हैं, लेकिन क्या उनकी संख्या कभी इतनी बढ़ पाएगी कि उन्हें खुले जंगल में छोड़ा जाए- ये एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब समय ही दे पाएगा.

काज़मी ने कहा, ‘अफ्रीकी जीव विज्ञानी बंदी हालत में कुछ चीतों का प्रजनन कराने में सफल हुए हैं और उन्हें विश्वास है कि उनके प्रोटोकाल्स को भारत में भी अपनाया जा सकता है. संभावना व्यक्त की जा रही है कि वो अपने नए आवास को अपना लेंगे, और उनकी संख्या स्थिर हो जाएगी.’

उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन क्या हम चीतों की एक ऐसी मुक्त आबादी क़ायम कर सकते हैं, जो दूसरे बिग कैट्स की तरह, आपस में जुड़े हुए परिदृश्यों में खुले रूप से घूम सकते हों? मैं उतना निश्चित नहीं हूं.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें : कैसे दिल्ली के चिड़ियाघर में अफ्रीकी हाथी शंकर लड़ रहा है अकेलेपन की लड़ाई


 

share & View comments