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Tuesday, 17 December, 2024
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राजस्थान के आदिवासियों की सदियों पुरानी ‘मौताणा’ प्रथा अब उन्हीं के लिए नासूर कैसे बन गई है

मौताणा का मक़सद आरोपी को आर्थिक दंड और पीड़ित को सहायता देना था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह प्रथा साजिश और शोषण का ज़रिया बन गई है.

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बीस साल के मुकेश मीना का शव 30 घंटे से जीप में पड़ा है, लेकिन परिजन मातम मनाने और अंतिम संस्कार की तैयारी करने की बजाय उसकी हत्या के आरोपियों के परिवार से मौत के मुआवज़े का मोलभाव करने में जुटे हैं. कड़ी मशक्कत और कई दौर की बातचीत के बाद आख़िर में तय हुआ कि आरोपियों का परिवार पीड़ित परिवार को 4 लाख रुपये तब शव को आग नसीब हुई.

शव के सौदे की यह कहानी गुजरात से सटे राजस्थान के आदिवासी जिले डूंगरपुर के चुंडावाड़ा गांव की है. 3 अगस्त की शाम को करीब 5 लोगों ने मुकेश पर धारदार हथियारों से हमला कर उसकी हत्या कर दी थी. आमतौर पर इस प्रकार की वारदात होने पर पुलिस आरोपियों को पकड़ने के लिए मशक्कत करती है, लेकिन इस मामले में उसे दूसरी ही उलझन को सुलझाने के लिए दौड़भाग करनी पड़ी.

पहले तो परिजनों ने पुलिस को मुकेश का शव पोस्टमार्टम के लिए नहीं दिया. दिया तो पोस्टमार्टम होने के 20 घंटे बाद तक नहीं लिया. लिया तो 30 घंटे तक गाड़ी में रखे रखा. यह पूरा घटनाक्रम दक्षिणी राजस्थान के आदिवासियों की सदियों पुरानी ‘मौताणा’ नाम की उस प्रथा पर अमल के दौरान हुआ, जो अब उन्हीं के लिए नासूर बन गई है.

‘मौत’ पर ‘आणा’

‘मौताणा’ का मतलब ‘मौत’ पर ‘आणा’ यानी पैसा. शव का सौदा करने की यह प्रथा सदियों पुरानी है. उस ज़माने में कोई कानून तो था नहीं. तब दक्षिणी राजस्थान में अरावली पर्वत शृंखला से सटे उदयपुर, बांसवाड़ा, सिरोही व पाली जिले के आदिवासियों में अस्वाभाविक या अप्राकृतिक मृत्यु होने पर इसके लिए ज़िम्मेदार व्यक्ति से मौताणा वसूलने की प्रथा शुरू हुई.

दोनों पक्षों की मौज़ूदगी में ‘पंचायत’ मौताणा की रकम तय करती है. मौताणा की राशि का दस फीसदी पंचों में, पच्चीस फीसदी पीड़ित परिवार और बाकी कुटुंब के सभी लोगों में बराबर बांटी जाती है. मौताणा देने वाले कथित आरोपी परिवार को कुल राशि का पच्चीस फीसदी देना होता है और बाकी परिजन व रिश्तेदार मिलकर देते हैं.

यदि कोई इसे देने से इंकार कर दे तो ‘चढ़ोतरा’ यानी दल-बल के साथ चढ़ाई की कार्रवाई की जाती है. इसमें कथित आरोपी परिवारों के घर लूटे जाते हैं और बाद में आग लगा दी जाती है. 2004 में उदयपुर जिले के गउपीपला गांव में चढ़ोतरा में 16 घरों को लूटने के बाद जला दिया गया. पीड़ित परिवारों की गुहार पर पहुंची पुलिस को हालात काबू करने के लिए फायरिंग करनी पड़ी. इसमें एक आदिवासी की मौत पुलिस के लिए ही गलफांस बन गई.

गुस्साए आदिवासियों ने डीएसपी की जीप को जला डाला और इंस्पेक्टर की तीर मार घायल कर दिया. आख़िर में पुलिस ने दो लाख रुपये का मौताणा चुका पिंड छुड़ाया. उस समय इस मामले की गूंज संसद तक भी पहुंची थी. मौताणा का मक़सद आरोपी को आर्थिक दंड और पीड़ित को सहायता प्रदान करना था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह प्रथा साजिश और शोषण का ज़रिया बन गई है.

लगातार ऐसे मामले सामने आ रहे हैं, जिनमें बेवजह मौत का जिम्मेदार बताकर मौताणा वसूला गया. 2016 में उदयपुर जिले के ढेडमारिया गांव में भैरूलाल डामोर की बीमारी से मौत हुई, लेकिन चचेरे भाई ने पड़ौसी पर हत्या का आरोप लगा मौताणा मांग लिया. इसके लिए लाश को 35 दिनों तक घर पर ही रखा, जिसका रकम मिलने पर ही अंतिम संस्कार हुआ.

उदयपुर जिले के ही गल्दर इलाके में मोटरसाइकिल से हादसा हुआ, तो उसे बिठाने वाले को मौताणा देना पड़ा. कउचा गांव में एक औरत को सांप ने डस लिया तो मायके वालों यह कहकर मौताणा ले लिया कि सांप ससुराल का था. महादेव नेत्रावला गांव में पालतू कुत्ते के काटने पर मालिक को मौताणा देना पड़ा. कोटड़ा की हामिरा को इसलिए मौताणा चुकाना पड़ा, क्योंकि उसके उस के घर के बाहर कोई लाश फेंक गया.


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मौताणा चुकाने में बिक जाते हैं घर-बार

झूठा दोष झेलने के अलावा मौताणा की रकम चुकाना बड़ी समस्या है. पिछले काफी समय से पंचायत जो रक़म मुकर्रर करती है वह हज़ारों की बजाय लाखों में होती है, जिसे चुकाना इलाके के किसी भी आदिवासी परिवार के लिए टेढ़ी खीर होती है. यहां के आदिवासियों के पास न तो नौकरियां हैं और न ही रोज़गार का कोई स्थायी साधन. ज़्यादातर परिवार पारंपरिक ख़ेती पर निर्भर हैं. इसमें इतनी बचत नहीं होती कि लाखों रुपये का मौताणा चुका पाएं.

ऐसे में मौताणा के चंगुल में फंसने वाले परिवारों के पास ज़मीन को गिरवी रखने या बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता. कई मामले ऐसे सामने आए हैं, जिनमें पूरी ज़मीन और पशु बेचने के बाद भी मौताणा की राशि का इंतज़ाम नहीं हो सका. इस स्थिति में इनमे पास गांव छोड़कर जाने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं बचता. सैकड़ों परिवार इस दंश को झेल रहे हैं. उदयपुर जिले के नाली गांव में 1995 में हत्या के मामले में मौताणा न चुकाने पर 30 परिवारों को गांव छोड़ना पड़ा. मामला मीडिया में आया तो प्रशासन की मदद से 30 साल बाद यानी 2015 में इनकी घर वापसी हुई.

आदिवासियों को मौताणा से मुक्त करने के लिए प्रशासन और स्वयंसेवी संस्थाएं खूब प्रयास कर चुकी हैं, लेकिन वे इस प्रथा को पीछे छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. इस ज़िद में कई परिवार तो पिसते ही हैं, शव की भी बेकद्री होती है. मौताणा पर दोनों पक्षों के रज़ामंद होने में दो से दस दिन तक लगना सामान्य बात है. कई बार समय इतना ज़्यादा लग जाता है कि शव कंकाल बन जाता है.

एक मामले में तो मौताणा तय नहीं होने की वजह से शव सवा साल तक पड़ा रहा. घटना 2014 की है. गुजरात से सटे निचली आंजणी गांव का युवक अजमेरी अपनी बहन से मिलने पड़ोस के गांव बूझा गया. तीन दिन बाद नहीं लौटा तो तलाश शुरू हुई. एक महीने बाद गांव के लोगों को पहाड़ी पर उसका क्षत-विक्षत शव मिला. परिजनों ने बूझा के ग्रामीणों पर हत्या का आरोप लगाते हुए मौताणे की मांग की. बूझा के लोगों ने हत्या में अपनी भूमिका नहीं होना बताते हुए रक़म देने से इंकार कर दिया.

परिजनों ने शव को पोटली में बांध गांव के स्कूल के जर्जर भवन में लटका दिया. दोनों पक्षों के बीच कई दौर की बातचीत हुई. मामला नहीं सुलझा तो बूझा गांव के लोगों ने मुक़दमा दर्ज़ करवा दिया. पुलिस पहुंची ज़रूर, लेकिन कार्रवाई करने की बजाय मध्यस्त की भूमिका निभाने. आख़िरकार दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ और अजमेरी के शव को सवा साल के लंबे इंतज़ार के बाद आग मयस्सर हुई.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और जयपुर में रहते हैं. उनका ट्विटर हैंडल @avadheshjpr है)

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