नई दिल्ली: पिछले हफ्ते एक अध्ययन के निष्कर्षों से यह बात सामने आई है कि 2014 में पंजाब के अजनाला में एक कुएं से निकले कंकाल इंडो-गैंगनेटिक के मैदानों में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों के ही हैं.
वैज्ञानिक और ऐतिहासिक साक्ष्यों को जोड़कर किया गया यह अध्ययन 1857 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों के हाथों मारे गए भारतीय सिपाहियों के नरसंहार की घटना और कंकालों के इन अवशेषों के बीच एक कड़ी को जोड़ता नजर आता है.
लेकिन खुदाई के दौरान उपयुक्त तकनीकी संसाधनों के अभाव में बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने के बावजूद शोधकर्ताओं ने इन कंकालों के अवशेषों की उत्पत्ति की पहचान कैसे की? तो इसका जवाब है—दांत के नमूने और आनुवंशिक विश्लेषण.
शोधकर्ताओं के समूह ने अपने निष्कर्षों की पुष्टि के लिए जेनेटिक मेकअप का सहारा लिया. इस काम के लिए उन्होंने कंकाल के अवशेषों का माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए (एमटीडीएनए) देखा—जिसे क्षतिग्रस्त या लगभग नष्ट हो चुके नमूनों से हासिल करना डीएनए की तुलना में आसान है. एमटीडीएनए का उपयोग मातृ पक्ष के वंश का पता लगाने के लिए किया जाता है, क्योंकि यह मां से ही संतान तक जाता है.
दांत का डीएनए आमतौर पर उच्च गुणवत्ता का होता है, और हड्डी के डीएनए की तुलना में इस अपघटन या नष्ट होने की संभावना कम होती है, यही वजह है कि वैज्ञानिक कुछ मामलों में हत्या के पीड़ितों के अवशेषों को अपराध स्थल से जोड़कर अपराधों को सुलझाने के लिए इस पर ही भरोसा करते हैं.
अजनाला में मिले अवशेषों का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने जेनेटिक विश्लेषण के अलावा अनुमानित तौर पर 165 वर्ष पुराने कंकालों के दांत के नमूनों का भी सहारा, ताकि उनके वंश और खानपान की आदतों की पहचान की जा सके. कार्बन आइसोटोप के विश्लेषण का उपयोग करके यह प्रक्रिया अपनाई गई.
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क्या होता है कार्बन-14 विश्लेषण
पृथ्वी और उस पर जीवन के सभी रूप विभिन्न तत्वों से निर्मित हैं, जो कि मुख्य तौर पर ऑक्सीजन, कार्बन और नाइट्रोजन हैं. इनमें अधिकांश तत्व कार्बन जैसे स्थिर रूपों में मौजूद रहते हैं, जिनमें 99 प्रतिशत अपने सबसे स्थिर रूप (कार्बन-12) में मौजूद होते हैं.
यह एक प्रतिशत कार्बन हमारे वायुमंडल में छोड़ता है जो कार्बन के विभिन्न रूपों—आइसोटोप कार्बन-13 और कार्बन-14 से बना है. छह प्रोटॉन और सात न्यूट्रॉन वाले कार्बन-13 की तुलना में कार्बन-14 में छह प्रोटॉन और आठ न्यूट्रॉन होते हैं.
दो अतिरिक्त न्यूट्रॉन की उपस्थिति कार्बन-14 को जोड़े रखने के लिए बहुत भारी बना देती है. नतीजतन, ऊर्जा-वाहक कणों के रूप में अतिरिक्त द्रव्यमान उत्सर्जित होता है. क्षय होने पर ऊर्जा छोड़ने वाले ऐसे पदार्थ रेडियोधर्मी तत्व कहलाते हैं.
किसी नमूने में मौजूद कार्बन-14 के क्षय का अध्ययन करके वैज्ञानिक पृथ्वी पर इस तरह के नमूने की आयु की गणना कर सकते हैं.
चूंकि मनुष्य और जानवर एक निश्चित क्षेत्र में पौधों से मिलने वाले भोज्य पदार्थ इस्तेमाल करते हैं, उस क्षेत्र के विभिन्न तत्व, जैसे ऑक्सीजन, कार्बन और नाइट्रोजन का आइसोटोप अनुपातिक रूप से हड्डियों और दांतों में वहां की जलवायु के एक ‘फिंगरप्रिंट’ या ‘छाप’ की तरह जमा हो जाता है.
चूंकि, अतीत में खानपान की आदतें काफी हद तक स्थानीय रूप से उपलब्ध चीजों पर आधारित थीं, शोधकर्ता किसी व्यक्ति के मूल स्थान को ट्रैक करने के लिए हड्डियों के आइसोटोप विश्लेषण पर ज्यादा भरोसा करते हैं. उदाहरण के तौर पर जौ या गेहूं आधारित फसलें आमतौर पर ठंडी और नम जलवायु वाले उच्च अक्षांशों में उगाई जाती हैं, उनमें मक्का, बाजरा और ज्वार जैसी फसलों की तुलना में कार्बन-13 की हायर-वैल्यू होती है, जिन्हें गर्म और आर्द्र जलवायु परिस्थितियों वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है. इसी प्रकार, नाइट्रोजन की आइसोटोपिक वैल्यू शुष्कता, मिट्टी के प्रकार, खाद की उपस्थिति और जल की उपलब्धता से निर्धारित होती है.
इस प्रकार किसी अवशेष में कार्बन और नाइट्रोजन के इन आइसोटोप का एक साथ अध्ययन करने से किसी व्यक्ति की आहार संबंधी आदतों का पता लगाने में मदद मिल सकती है. इस प्रक्रिया को आइसोटोप विश्लेषण कहा जाता है.
अजनाला में शोधकर्ताओं ने क्या पाया
अजनाला में पाए गए कंकालों का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने इस तकनीक का उपयोग करते हुए निष्कर्ष निकाला कि इस तरह के दांतों के नमूने आमतौर पर वर्षा और/या बर्फबारी के अनुभवों वालों अंतर्देशीय क्षेत्रों (तट से कुछ दूरी वाले स्थानों) से जुड़े होते हैं.
निष्कर्ष में पाया गया कि जिन लोगों के कंकाल अवशेष कुएं से निकाले गए, उनमें से अधिकांश के संतुलित सर्वाहारी आहार का सेवन करने वाले थे. पांच अन्य लोगों का खानपान मुख्य तौर पर स्थानीय कृषि पर आधारित आहार था जिसमें गेहूं और जौ शामिल थे, जो सामाजिक और आर्थिक स्थिति में संभावित अंतर का संकेतक है.
इस बीच, कम से कम चार कंकाल अवशेषों के दांतों के नमूनों में गन्ना या मक्का जैसे पौधों के अवशेष, या पशुओं से मिलने वाले प्रोटीन का एक बड़ा हिस्सा, या फिर संयुक्त रूप से दोनों ही पाए गए हैं.
अवशेषों के आइसोटोपिक नतीजे इस बात को इंगित करते हैं कि मरने वाले ये लोग एक समान भौगोलिक क्षेत्र में रहते थे, सबसे अधिक संभावना है कि उनका बचपन ऐसी ही जगहों पर बीता, और यह भी कि वे अपने जीवनकाल के अंतिम 10 वर्षों के दौरान विभिन्न तरह के स्थानों पर रहे.
अजनाला के कंकालों का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने इन निष्कर्षों को ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ जोड़ा, जिसमें बताया गया है कि ब्रिटिश सेना की मूल बंगाल इन्फैंट्री बटालियन में भर्ती लोग उड़ीसा, बंगाल, बिहार, अवध, मेघालय और मणिपुर और अन्य पूर्वोत्तर और तटीय राज्यों वाले क्षेत्रों के रहने वाले थे. इस तरह से ही वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पंजाब के अजनाला में उस कुएं में पाए गए कंकाल 1857 के युद्ध के दौरान मारे गए भारतीय सिपाहियों के हो सकते हैं.
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