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Thursday, 19 December, 2024
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रेडियो मेवात ने भारत के सबसे पिछड़े ज़िले में COVID से जुड़े दूसरे मिथकों को दूर करने में कैसे सहायता की

महामारी को शुरू हुए नौ महीने हो गए हैं, लेकिन रेडियो मेवात अभी भी अपने श्रोताओं को, महामारी की प्रगति और ज़िले की दूसरी स्थानीय घटनाओं की जानकारी दे रहा है.

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नूह (हरियाणा) : सुबह 9 बजे, जब सोहराब खान अपने माइक में झुककर ‘गुड मॉर्निंग’ कहते हैं, तो अपने रेडियो में उनकी आवाज़ गूंजने से पहले, लाखों लोगों को एक ज़ोरदार क्रैक की आवाज़ सुनाई पड़ती है.

खान एक मैनेजर हैं, और रेडियो मेवात के उन आठ रिपोर्टरों, और प्रेज़ेंटर्स में से एक हैं, जो हरियाणा के नूह में एक सामुदायिक रेडियो स्टेशन है. नूह को देशा का सबसे पिछड़ा हुआ ज़िला माना जाता है. 2016 तक मेवात कहा जाने वाला नूह, हरियाणा के दक्षिण में पड़ता है, और राजस्थान तथा उत्तरप्रदेश से सटा हुआ है.

रेडियो स्टेशन में कुल नौ कर्मचारी हैं, जिनमें से एक इसका प्रशासन देखता है.

मेवात में, सिर्फ 27 प्रतिशत घरों में टीवी सेट है, और ज़्यादातर लोगों के पास, या तो ग़लत ख़बरें रहती हैं, या वो ख़बरों के संपर्क में नहीं रहते. लेकिन पिछले आठ सालों में, जब से ये चल रहा है, रेडियो मेवात ने उस खाई को पाटने का काम किया है.

नूह के 431 गांवों में, रेडियो 170 गांवों तक पहुंचने में सक्षम है. एक ग़रीब और अलग थलग ज़िले में, जहां हर कोई स्मार्टफोन या टीवी वहन नहीं कर सकता, रेडियो अभी भी लोकप्रिय बना हुआ है.

हालांकि सरकारी गाइलाइन्स कम्यूनिटी रेडियो को समाचार, समसामयिक विषयों, और सियासत पर चर्चा की इजाज़ नहीं देतीं, लेकिन जब महामारी का प्रकोप फैला, तो रेडियो मेवात वायरस जुड़े मिथकों को दूर करने का एक यंत्र बन गया.

खान ने दिप्रिंट से कहा, ‘जब लॉकडाउन हुआ तो ज़िला मजिस्ट्रेट और मुख्य चिकित्सा अधिकारी, कोरोनावायरस के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए हमारे पास आए. हमने एक भी छुट्टी नहीं ली, और पूरे लॉकडाउन के दौरान काम किया’.

महामारी को शुरू हुए नौ महीने हो गए हैं, लेकिन रेडियो मेवात अभी भी अपने श्रोताओं को, महामारी की प्रगति और ज़िले की दूसरी स्थानीय घटनाओं की जानकारी दे रहा है.

ये रेडियो 12 घंटे के लिए चलता है- सुबह 8 से शाम 8 बजे तक- लेकिन इसकी छोटी सी टीम, इसे चालू रखने के लिए ओवरटाइम काम करती है.

रेडियो मेवात और एनजीओ सीकिंग मॉडर्न एप्लिकेशंस फॉर रियल ट्रांसफॉरमेशंस (स्मार्ट) की संस्थापक, अर्चना कपूर ने कहा, ‘लोगों को सशक्त करने के लिए, हम जानकारी का सहारा लेते हैं, लेकिन आचार संहिता को तोड़े बिना, हम अपने प्रसारण में आगे बढ़कर, लोगों को वो सब बता रहे हैं, जो उन्हें जानना चाहिए’.

कोविड और घरेलू हिंसा पर कार्यक्रम

नूह में अधिकतर मेव मुसलमान हैं, जो इस्लाम का एक रूढ़िवादी संप्रदाय है. ये ज़िला एक बड़े मेवात इलाक़े का हिस्सा है, जिसे तब्लीग़ी जमात का जन्म स्थान माना जाता है.

ज़िले की 79.2 प्रतिशत आबादी मुसलमान है, और एक स्थानीय मौलवी ने दिप्रिंट को बताया था, कि ज़्यादातर लोग इस संस्था से जुड़े हैं.

इस साल मार्च में, तबलीग़ी जमात को नई दिल्ली के निज़ामुद्दीन में अपने मरकज़ पर, भारत का पहला कोविड-19 ‘सुपर स्प्रैडर’ आयोजित करने का ज़िम्मेदार ठहराया गया था, जिसके नतीजे में पूरा समुदाय कलंकित हुआ था.

कपूर ने कहा, ‘नूह के मुसलमान पहले ही, बहुत अंतर्मुखी समुदाय हैं, और जब कोविड और लॉकडाउन हुआ, तो अफवाहें फैल रहीं थीं, और हमें न सिर्फ ग़लत ख़बरों से, बल्कि इस कलंक से भी निपटना था’.

उन्होंने कहा कि जमात वाक़ए के फौरन बाद, रेडियो मेवात की टीम ने मज़हबी नेताओं, स्थानीय पुलिस, और ज़िला प्रशासन अधिकारियों को, पैनल चर्चा और लाइव शोज़ के लिए आमंत्रित किया.

ख़ान ने कहा, ‘हमने मज़हबी नेताओं को बुलाया, और उनसे जमातियों और कोरोनावायरस से जुड़े मिथकों को दूर करने के लिए कहा. हर शाम ज़िला प्रशासन हमें ईमेल के ज़रिए अहम जानकारी भेज देता था, जिसे लोगों तक पहुंचाने की ज़रूरत थी. महामारी के फैलाव को रोकने में, इसने एक बड़ा रोल अदा किया’.

मेवाती और हिंदी में प्रसारित होने वाले इनके शो, ‘कोरोना से जंग, रेडियो मेवात के संग’ में, सुनने वालों को कोविड मामलों, इनके लक्षणों, और एहतियात से जुड़ी जानकारियां दी जाती थीं. इसमें अगले मोर्चे पर डटे स्वास्थ्य कर्मियों को बुलाकर, उनसे चर्चा भी की जाती थी.

महामारी से पहले, रेडियो मेवात स्थानीय घटनाओं, खेती बाड़ी, स्थानीय प्रतिभाओं, और स्कूलिंग तथा शिक्षा पर, रिटायर्ड सरकारी अधिकारियों से इंटरव्यूज़, आदि से पर शो करता था.

‘टीवी का वैसा असर नहीं होता’

श्रोताओं के लिए रेडियो मेवात केवल एक रेडियो स्टेशन से ज़्यादा है.

नूह का जोगीपुर गांव, जहां साक्षरता दर केवल 52 प्रतिशत है, के निवासी 19 वर्षीय वासिम अकरम ने कहा: ‘मैं घरेलू हिंसा, कोरोनावायरस, खेती, और दिन भर की घटनाओं से जुड़े शो सुनता हूं. रेडियो उस समय बहुत उपयोगी था, जब लॉकडाउन के दौरान स्कूल बंद थे. मुझे अपनी जारी जानकारी वहीं से मिलती है. मैं रेडियो को स्पीकर पर कर देता हूं, और पूरा परिवार उसे सुनता है’.


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अकरम रेडियो मेवात को तब से सुन रहे हैं, जब 2012 में वो पहली बार शुरू हुआ था.

धंडुका गांव में, जहां लिंग अनुपात हरियाणा के औसत 879 से कम है, महिलाएं हफ्ते में एक बार रेडियो के पास जमा हो जाती हैं, और साथ मिलकर एक कार्यक्रम ‘हिंसा को नो’ सुनती हैं, जिसमें घरेलू हिंसा की कहानियां सुनाई जाती हैं, और श्रोताओं को उनके अधिकार बताए जाते हैं.

गांव की एक महिला, जो अपना नाम सिर्फ सविता बताती है, कहती है, ‘हमें उसे एक साथ बैठकर सुनना, और उसपर चर्चा करना अच्छा लगता है. हम अपने परिवारों से कह देते हैं, कि हम मीटिंग के लिए जा रहे हैं, और फिर हम जमा होकर रेडियो सुनते हैं. टीवी का वैसा असर नहीं होता’.

घरेलू हिंसा पर एक शो करने का सुझाव, एक 22 वर्षीय प्रेज़ेंटर फरहीन खान ने दिया था, जिसने 12वीं क्लास पास की हुई है. एक साल से चल रहे इस शो को, एक नया परिप्रेक्ष्य तब मिला, जब लॉकडाउन के साथ घरेलू हिंसा के मामलों में भी इज़ाफा होने लगा.

फरहीन अब पिछले दो साल से, रेडियो मेवात की प्रेज़ेंटर हैं, और उससे पहले कई साल तक वो इसकी श्रोता रही हैं. उन्होंने कहा, ‘मैं रेडियो मेवात को उसके शिक्षा कार्यक्रमों के लिए सुना करती थी. कुछ साल पहले एक प्रेज़ेंटर, अशिक्षित महिलाओं के लिए एक वर्कशॉप करने के लिए, हमारे गांव में आई. मैं उसके साथ स्टूडियो में आई, और मैंने फैसला कर लिया, कि मुझे यही करना है’.

उसने आगे कहा, ‘मेरी बात एक बार एक महिला से हुई, जिसे उसके पति ने कुछ लोगों को बेंच दिया था. वो वहां से भाग निकली, और अपने परिवार से संपर्क किया, फिर आख़िरकार उसने हमसे बात की. इस तरह की चीज़ें होती रहती हैं, और कोई इस बारे में बात नहीं करता. मुझे लगा कि इसपर चर्चा होनी चाहिए. लॉकडाउन के दौरान चीज़ें और ख़राब हो गईं, और हमें दिनभर में 30-40 कॉल्स आती थीं’.

काम आसान नहीं है

रेडियो मेवात उन 251 कम्यूनिटी रेडियो स्टेशनों में से एक है, जो देश भर में चल रहे हैं. कम्यूनिटी रेडियो की कड़ी निगरानी की जाती है, और उन्हें कड़े दिशानिर्देश का पालन करना होता है, ताकि सुनिश्चित हो सके कि वो ग़लत जानकारियों के स्रोत, या सियासी पार्टियों के नुमाइंदे बनकर न रह जाएं.

ये रेडियो कुछ मामलों में वो करता है, जो ज़िला प्रशासन नहीं कर सकता. हर रोज़, नूह के अलग अलग कोनों से पांच लाख तक लोग, रेडियो मेवात, 90.4 एफएम को ट्यून करके, उन स्कीमों के बारे में जान सकते हैं, जिनके वो हक़दार हैं, शहर की घटनाओं के बारे में जान सकते हैं, और ये जान सकते हैं, कि कोविड से कैसे सुरक्षित रहा जाए.

ज़िला मजिस्ट्रेट धीरेंद्र खड़गाता ने दिप्रिंट से कहा, ‘हम चाहते हैं कि हर किसी को पता चले, कि स्कीमों तक कैसे पहुंचा जा सकता है. डीएम के रेडियो के साथ निकटता से काम करने से, समस्याओं को समझना आसान हो जाता है. हम समस्या की नेचर को देखते हैं, और फिर वहां से काम शुरू करते हैं’.

ऐसे ज़िले में, जहां साक्षरता दर सिर्फ 54.08 प्रतिशत है, और ग़रीबी लगभग सर्वव्यापी है, सरकारी ढांचे के आभाव में, रेडियो एक विकल्प का काम कर पाता है. लेकिन ये काम आसान नहीं है.

कपूर ने कहा, ‘हम सरकार के प्रवक्ता क़तई नहीं हैं, लेकिन हमारे पास कमर्शियल प्रसारकों वाली आज़ादी नहीं है. हम समसामयिक विषयों पर बात नहीं कर सकते, खेल से जुड़ी ख़बरें प्रसारित नहीं कर सकते, या सरकार की नीतियों की आलोचना नहीं कर सकते. भले ही हम समुदाय को आगे रखें, लेकिन हमें बहुत एहतियात से बोलना पड़ता है’.

सुनीता मिश्रा, जो ‘हिंसा को नो’ के लिए ज़मीनी काम करती हैं, ने कहा: ‘हम घरेलू हिंसा की बस कहानियां सुनाकर नहीं रुक जाते. हम महिलाओं के साथ सेशन करते हैं, ज़रूर पड़ने पर उन्हें सलाह देते हैं, और उनके परिवारों से बात करते हैं, ताकि वो इसपर खुली चर्चा कर सकें. उनसे खुलकर बुलवाने में बहुत प्रयास लगे हैं’.

उन्होंने आगे कहा, ‘उन्हें सरकारी हेल्पलाइन्स के बारे में नहीं पता, लेकिन ये पता है कि उन्हें हमें कॉल करना है’.

जब लॉकडाउन ने उनके पतियों के काम छीन लिए, तो रेडियो मेवात की महिला श्रोताओं को ‘स्मार्ट’ की ओर से, मास्क बनाने के काम में लगाया गया, जिससे उन्हें कुछ आय भी हुई.

रेडियो प्रेज़ेंटर्स का कहना है, कि अलग अलग कार्यक्रमों को सुनने वाले, अकसर फोन करके पूछते हैं, कि स्कीमों के लिए आवेदन कैसे दिए जाएं, या शिकायत कैसे दर्ज की जाएं, और हम हमेशा उन्हें ये बता देते हैं.

रेडियो चलाना

रेडियो मेवात जैसे कम्यूनिटी रेडियो की सामग्री में, 50 प्रतिशत भागीदारी समुदाय की होनी चाहिए. उन्हें उनके काम की भारी सब्सीडी दी जाती है- स्पेक्ट्रम फीस के रूप में सिर्फ 22,500 रुपए सालाना, जबकि कमर्शियल चैनल्स को इसके लिए, लाखों रुपए देने पड़ सकते हैं.

लेकिन, इन्हें ज़्यादा बंदिशों में भी काम करना पड़ता है. कम्यूनिटी रेडियो के पास राज्य या केंद्र सरकार, और यूनिसेफ जैसे जांचे गए जनहित समूहों के अलावा, कोई स्पॉन्सर नहीं हो सकता. इसके अलावा, वो सरकार अथवा स्थानीय व्यवसायों के सिवाय, किसी के विज्ञापन नहीं चला सकते, जिससे उनकी पूंजी के स्रोत संकुचित हो जाते हैं.

कपूर ने कहा, ‘रेडियो मेवात को चलाने में, हमें 1.6 लाख रुपए महीना का ख़र्च आता है, और हम बस उतना ही पूरा कर पा रहे हैं’.

उन्होंने आगे कहा, ‘लॉकडाउन के दौरान, हमें सरकार से कोई विज्ञापन नहीं मिले. उसने सारा पैसा कोविड राहत कार्यों में लगा दिया, और बहुत से कम्यूनिटी रेडियोज़ के लिए, काम करना मुश्किल हो गया. हमने किसी तरह मुश्किल से, ऐसे परोपकारी प्रतिष्ठानों की मदद से अपना काम चलाया, जो लोगों में वायरस से सुरक्षित रहने की जागरूकता फैलाना चाहते थे’.

प्रायोजित कार्यक्रम रेडियो मेवात को ज़िंदा रखे हुए हैं, और प्रेज़ेंटर्स को उनकी जीविका मुहैया करा रहे हैं, लेकिन कपूर ने कहा कि स्थिति में सुधार हो सकता है, अगर कम्यूनिटी रोडियो को थोड़ी और गुंजाइश मिल जाए.

कपूर ने आगे कहा, ‘हम अपने सुनने वालों को, सरकारी योजनाओं, प्राकृतिक आपदाओं, स्वास्थ्य, और उनके रोज़मर्रा जीवन से जुड़ीं, अन्य समस्याओं से अवगत कराते रहते हैं. सरकार को प्रायोजनों को खोलने पर ग़ौर करना चाहिए, ताकि हमारी आय कुछ बढ़ सके. ये सिर्फ भरोसे की बात है. उन्हें हम जैसी इकाइयों पर भरोसा करना होगा, और ख़ासकर दस साल से अधिक की, हमारी कम्यूनिटी सेवा को ध्यान में रखते हुए, प्रायोजनों की अनुमति देनी होगी, जैसी कि निजी चैनलों को मिलती है’.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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