scorecardresearch
Monday, 18 November, 2024
होमदेशइलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा स्थापित 'पैड बैंक' कैसे झुग्गी-झोपड़ी के निवासियों की मदद कर रहा है

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा स्थापित ‘पैड बैंक’ कैसे झुग्गी-झोपड़ी के निवासियों की मदद कर रहा है

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वर्तमान और पूर्व छात्रों के एक समूह द्वारा शुरू की गई इस एक पहल के तहत जनवरी 2021 में स्थापित हुआ यह बैंक अपने लाभार्थियों को मुफ्त में सॅनिटरी पैड उपलब्ध कराता है.

Text Size:

प्रयागराज: प्रयागराज के बाहरी इलाके में बसी एक झुग्गी बस्ती में रहने वाली 41 वर्षीय दिहाड़ी मजदूर सरिता बंसल के लिए, ‘महीने के उन दिनों’, या मासिक धर्म की अवधि (पीरियड्स) में, कपड़ों के चिथड़े हमेशा से एक महत्वपूर्ण ‘समान/संसाधन’ रहा है. यह एक ऐसी परंपरा है जो उन्होने उनकी चार बेटियों में से तीन, जो पहले ही शारीरिक रूप से प्रौढ़/जवान हो चुकी हैं और जिनका मासिक धर्म भी शुरू हो चुका है, को विरासत मे दी है.

इसी सप्ताह जब दिप्रिंट ने उनसे बात की तो तेज बरसात के बीच अपने कच्चे घर में एक टपकती हुई पॉलीथिन वाली छत के नीचे बैठीं सरिता बंसल ने हमें बताया कि उनके लिए तो सैनिटरी नैपकिन के उपयोग का कोई सवाल ही नहीं उठता. बे कहती हैं, ‘यह कितना महंगा है. इसके लिए कौन हर महीने 30 रुपये खर्च करेगा?’

वे कहती हैं, ‘हमारे घर में पहले से ही चार मासिक धर्म वाली महिलाएं हैं. यानी हमें हर महीने 120 रुपये खर्च करने होंगे. मेरी चौथी भी बेटी एक या दो साल में जवान (मासिक धर्म के योग्य) हो जाएगी यानी हमें हर महीने कम-से-कम 150 रुपये सेनेटरी पैड पर खर्च करने होंगे.’

वे आगे बताती हैं, ‘मैं अपने डलिया (लकड़ी की टोकरियाँ) बनाने के काम से 15 दिनों में सिर्फ़ 500 रुपये कमाती हूं और मेरे पति के पास ज्यादातर दिनों में कोई काम नही रहता. लॉकडाउन में हमारी हालत और भी पतली हो गई थी क्योंकि हमारे पास अपना पेट भरने के लिए कोई ज़रिया नहीं था.’

इसी झुग्गी बस्ती, जिसे स्थानीय तौर पर ‘अलोपी बाग चुंगी’ के नाम से जाना जाता है, में रहने वाली बंसल की एक पड़ोसन भी उनकी चिंताओं से सहमति व्यक्त करते हुए कहती हैं, ‘हमें तो अब काफ़ी लंबे अरसे से कपड़ों का उपयोग करने की आदत पड़ गई है. शुरुआत में यह असहज सा महसूस होता है लेकिन समय के साथ हम इससे तालमेल बिठाना सीख जाते हैं.’ पर वे यह भी बताती हैं क़ि उनकी बेटी को इसके बारे में बहुत सारी शिकायतें हैं.

लेकिन ‘शुरुआत पैड बैंक’ के आगाज़ के साथ हीं बंसल, उनकी पड़ोसन और प्रयागराज की झुग्गी-झोपड़ियों – लाल कोठी, लुकरगंज, तुलाराम बाग, हरि नगर बस्ती और नामानी बस्ती – में रहने वाली लगभग 300 महिलाओं की इस स्थिति में अब बदलाव आ रहा है.

पैड बैंक जनवरी 2021 में स्थापित किया गया था | ज्योति यादव/ दिप्रिंट

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वर्तमान और पूर्व छात्रों के एक समूह द्वारा शुरू की गई इस एक पहल के तहत जनवरी 2021 में स्थापित हुआ यह बैंक अपने लाभार्थियों को मुफ्त में सॅनिटरी पैड उपलब्ध कराता है. उन्हें बस इतना करना होता है कि उन्हें अपनी मासिक धर्म की अपेक्षित तारीखों के आसपास उन से संपर्क करना होता है. पूरी तरह से अनुदान पर चलने वाला यह बैंक, वंचित समुदाय में शिक्षा के प्रसार लिए शुरू की गई एक पहल – ‘शुरुआत – एक ज्योति शिक्षा की’ – की हीं एक उप-शाखा है. इस पहल को इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सामाजिक कार्य में स्नातकोत्तर (मास्टर्स इन सोसल वर्क) की उपाधि प्राप्त करने वाले 30 वर्षीय अभिषेक शुक्ला द्वारा साल 2016 में शुरू किया गया था.

इसका लाभ उठाने वाली महिलाओं में से रेणु देवी का कहना हैं, ‘लॉकडाउन की अवधि के दौरान (इसकी दूसरी लहर के समय) यह बैंक वास्तव में हमारे लिए एक लाइफ-लाइन जैसा बन गया था.’

एक दबी ज़ुबान वाला मुद्दा/विषय

सरिता बंसल जिस झुग्गी में रहती हैं वहां अनुसूचित जाति के करीब 3,000 लोग रहते हैं. उनमें से अधिकांश दिहाड़ी मजदूर हैं जो विभिन्न प्रकार के कामों में लगे रहते हैं. उनके काम के दायरे में कूड़ा चुनने से लेकर प्लास्टिक बटोरने और शादियों में वेटर के रूप में काम करना आदि शामिल होता है.

जिस दो कमरों के घर में सरिता बंसल और उनका परिवार रहता है उसकी दीवारें गोबर से ढकी हुई हैं और जो भारी बारिश के दौरान टूट जाती हैं. अपने अधिकांश पड़ोसियों की तरह उनके पास शौचालय भी नहीं है.

सरिता की चार बेटियों में से एक 15 वर्षीय नंदिनी ने स्वच्छता के इस बुनियादी स्वरूप के बारे में पूछे जाने पर कुछ दूरी पर स्थित एक जगह की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘हम (शौच के लिए) अंधेरे में बाहर जाते हैं.’

पैड बैंक के सामने आने से पहले, मासिक धर्म से संबंधित स्वच्छता के बारे में जागरूकता भी न के बराबर हीं थी.
मासिक धर्म, जो भारतीय घरों में प्रचलित कई प्रकार के मिथकों से जुड़ा है, अभी भी कई लोगों के लिए एक वर्जित विषय बना हुआ है. इस सामान्य जैविक क्रिया के प्रति दबी ज़ुबान वाला यह बर्ताव कई लड़कियों और महिलाओं को रक्तस्राव की स्थित का सामना करने के लिए कपड़े के चिथड़ों जैसे अस्वास्थ्यकर उपायों का सहारा लेने के लिए मजबूर करता है.

मासिक धर्म से जुड़ी स्वच्छता न केवल किसी भी लड़की के शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अति महत्वपूर्ण है – स्वच्छता की खराब/ ग़लत परंपराओं के कारण उन्हें संक्रमणों का ख़तरा बना रहता है – बल्कि यह उनके आत्मविश्वास और गतिशीलता के लिए भी ज़रूरी है जैसा कि यूनिसेफ के द्वारा बताया गया है, यह स्कूल में उनकी उपस्थिति के साथ-साथ सामुदायिक जीवन में उनकी भागीदारी को भी प्रभावित कर सकता है.

केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई एक पहल के तहत 2018 के बाद से हीं देश भर के जन औषधि केंद्रों में सैनिटरी नैपकिन दिए जाते हैं. यहां इस पैड की कीमत एक रुपये प्रति पीस है. लेकिन अलोपी बाग चुंगी में दिप्रिंट ने जिन महिलाओं से बात की, उनका कहना है कि उन्होंने इस योजना के बारे में कभी सुना हीं नहीं.

अभिषेक और उनके साथी स्वयंसेवकों ने बैंक की शुरुआत के साथ जागरूकता की इसी कमी से निपटने की कोशिश की है
‘हमने एक लंबा रास्ता तय किया है.’


यह भी पढ़ें : आखिर मिजोरम और असम क्यों भिड़ गए, इन पांच सवालों में छिपा है इसका राज


अभिषेक बताते हैं कि उनके मन में ‘शुरुआत-एक ज्योति शिक्षा की’ का विचार एक अचानक हुई मुलाकात के बाद आया.
अभिषेक ने हमें बताया, ‘एक दिन, मैं एक लाल बत्ती पर रुका था और वहीं मैंने एक छोटी बच्ची को देखा. मैंने उस लड़की, जो लगभग 8 साल की थी, से पूछा कि वह स्कूल क्यों नहीं जाती. उसने जवाब दिया कि उसे अपने 5 साल के भाई की देखभाल करनी होती है.’ अभिषेक आगे कहते हैं, ‘मैं अपने 5 साल के भाई की देखभाल करने वाली उस 8 वर्षीय लड़की के विचार से बहुत परेशान था और तभी मैंने यह शिक्षा पहल शुरू की और उसी वर्ष इसे पंजीकृत करवा लिया.‘

अभिषेक कहते हैं, ‘6 महीनों के भीतर हीं और भी कई छात्र (स्वयंसेवकों के रूप में) इस पहल में जुड़ गये और बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया. हमने पार्क जैसे खुले स्थानों में कक्षाएं लीं. जैसे हीं महामारी ने देश में अपने पैर पसारे हमें एक दो मंजिला इमारत किराए पर लेनी पड़ी ताकि बच्चे पढ़ना ना छोड़ दें. हम उनकी ट्यूशन फीस का भी ध्यान रखते हैं.‘

अभिषेक ने बताया कि फिलहाल 150 छात्र इस समूह के साथ नामांकित हैं, जिनमें से 80 लड़कियां हैं. इन 80 लड़कियों में से 50 पैड बैंक की भी लाभार्थी हैं.

पैड बैंक का विचार तब उभरा जब स्वयंसेवकों ने अपनी छात्राओं और उनके परिवारों में मासिक धर्म संबंधित स्वच्छता के बारे में जागरूकता की कमी देखी. इसके बाद एक मासिक कार्यशाला का आयोजन किया गया जहां उन्होंने मासिक धर्म और इससे जुड़े आवश्यक स्वच्छता व्यवहार के बारे में जानकारी का प्रसार करने की कोशिश की.

स्वयंसेवी शिक्षकों में से दो, अंजलि और शालिनी (जिन दोनों की उम्र 28 वर्ष है), ने कक्षाओं के दौरान पीरियड्स (मासिक धर्म) के बारे में बातचीत शुरू की.

अंजलि कहती हैं, ‘अपनी रोजमर्रा की बातचीत में पीरियड्स शब्द का उल्लेख तक नहीं करने से लेकर बिना किसी झिझक के पैड मांगने तक, हमने एक लंबा सफर तय किया है.‘

वे बताती हैं, ‘लेकिन इसमें हमें समुदाय की जड़ता/कठोरता का भी सामना करना पड़ा. उन्होंने मासिक धर्म के बारें में बात करने पर कुछ इस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त की जैसे कि यह कोई विदेशी अवधारणा है. एक तरह से यह सब उनके नज़रिए से उचित हीं था क्योंकि उनके दिमाग में आने वाली पहली बात अपनी रोज़ी-रोटी कमाना ही होता है.’

अभिषेक ने कहा कि पैड बैंक की स्थापना महीनों तक लगातार चली कोशिशों का नतीजा था. उन्होंने कहा, ‘यह बात बड़ी तेजी से फैली और अब हमारे लाभार्थियों में विभिन्न झुग्गियों की महिलाएं शामिल हैं.’

उनका कहना है कि स्वयंसेवकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती निरंतरता को बनाए रखना था. वे कहते हैं, ‘हम नहीं चाहते थे कि महिलाएं सिर्फ़ एक बार इसका इस्तेमाल करें और फिर मुफ्त पैड के अभाव में अपनी पुरानी आदतों पर वापस लौट जाएं. हम इसका पूरा लेखा-जोखा (रिकॉर्ड) रखते हैं और फॉलो-अप भी करते हैं. हमारे पंजीकृत आंकड़ों के अनुसार, ज्यादातर महिलाओं को पिछले छह महीने से लगातार मासिक धर्म संबंधी स्वच्छता की सुविधा मिली है.’

वह रजिस्टर जहां अभिलेखों का रखरखाव किया जाता है | ज्योति यादव/ दिप्रिंट

वह कहते हैं, ‘हमें उस दिन का इंतजार हैं जब नंदिनी की बहन को पैड के बजाय कपड़े का उपयोग नहीं करना पड़ेगा. हम लगातार उस दिशा में काम कर रहे हैं और व्यक्तिगत सहयोग के माध्यम से हम इस बैंक को चालू रखने में सक्षम हैं.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

share & View comments