नई दिल्ली: कश्मीरी हिंदू हर साल 14 सितंबर को ‘बलिदान दिवस’ के रूप में याद करते हैं. कई ऐसे संगठन जो आतंकवाद की मार झेल कर अपना सब कुछ खो देने वाले कश्मीरी हिंदूओं की उनके घरों में वापसी की पुरजोर वकालत करते आए हैं, वे भी इस दिन को बलिदान दिवस के रूप में स्मरण करते हैं. गौरतलब है कि 1990 में आतंकवाद के चलते कश्मीरी हिंदुओं को कश्मीर घाटी से रातों रात पलायन करना पड़ा था.
यह विडंबना है कि जहां भारत में इस बलिदान दिवस के रूप में अधिक जानकारी नहीं है वहां ब्रिटेन की संसद में 14 सितंबर 2020 को इसी बलिदान दिवस को लेकर यह प्रस्ताव रखा गया था.
इसमें लिखा गया है, ‘यह सदन 14 सितंबर को कश्मीरी हिंदुओं के बलिदान दिवस को गहरे दुख के साथ मनाता है, यह दिवस उन हिंदुओं की याद में है जिन्होंने सीमा पार इस्लामिक जिहाद में अपनी जान गंवा दी, और जम्मू— कश्मीर में अत्याचार का शिकार हुए. उनके नरसंहार के दौरान मारे गए, बलात्कार के शिकार और घायल हुए सभी लोगों के परिवारों और दोस्तों के प्रति यह सदन अपनी संवेदना व्यक्त करता है; सदन इस बात से इस बात से चिंतित है कि जो कश्मीरी जीवन बचाने के लिए पलायन करने को मजबूर कर दिए गए थे, उन्हें अभी भी उनके खिलाफ किए गए अत्याचारों के लिए न्याय नहीं मिला है; उस भीषण जातीय नरसंहार से बचे कश्मीरी पंडित समुदाय के सदस्यों द्वारा दिखाए गए साहस की हम सराहना करते हैं; कश्मीर में हिंदुओं के अधिकारों के लिए अभियान चलाने में पनुन कश्मीर की भूमिका को यह सदन मान्यता देता है; और भारत सरकार से नरसंहार के अपराध की रोकथाम और इसके लिए सजा पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के प्रस्तावक और हस्ताक्षरकर्ता बनकर अपने अंतरराष्ट्रीय दायित्व को पूरा करने के लिए एक नरसंहार अपराध दंड कानून बनाने का आग्रह करता है.’
यह तारीख महत्वपूर्ण है क्योंकि 14 सितंबर, 1989 को कश्मीर में किसी बड़े हिंदू नेता की यह पहली हत्या थी. आतंकवाद का विरोध करते हुए बलिदान देने वाले इस नेता काम नाम था पंडित टीका लाल टपलू. वास्तव में उनकी हत्या उस आतंक के नए दौर का आगाज़ थी जिसके कारण चार महीनों के भीतर ही कश्मीरी हिंदुओं का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ.
पंडित टपलू की आतंकवादियों के हाथों हत्या कश्मीर में आतंकवाद के दौर का एक महत्वपूर्ण मोड़ था क्योंकि वह उस समय घाटी में सबसे प्रमुख कश्मीरी हिंदू नेता थे. इस हमले को कश्मीरी हिंदू नेताओं पर आतंकवादी हमलों की शुरुआत भी मान सकते हैं.
पंडित टपलू की हत्या यकीनन कश्मीरी हिंदुओं के मनोबल के लिए सबसे बड़ा आघात था, जिन्होंने घाटी में अलगाववाद को चुनौती देते हुए वहीं बने रहने का निर्णय लिया था . यह स्पष्ट है कि कश्मीरी हिंदुओं के पलायन की शुरूआत करने के लिए एक सोची समझी रणनीति के तहत उनके सबसे प्रमुख नेता को आतंकवादियों ने अपना निशाना बनाया था.
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एएमयू से वकालत पढ़ी
पंडित टपलू ने 1945 में पंजाब विश्वविद्यालय से मैट्रिक पास किया. उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एमए और एलएलबी की डिग्रियां हासिल कीं. 1957 में कश्मीर घाटी में उन्होंने अपनी वकालत शुरू की .
उनकी कॉलेज की पढ़ाई को लेकर एक दिलचस्प किस्सा है.आरंभ में उन्हें कुछ अन्य कश्मीरी हिंदुओं के साथ एएमयू में प्रवेश से वंचित कर दिया गया था, लेकिन उन्होंने विश्वविद्यालय परिसर में धरना दिया. इस विरोध प्रदर्शन और धरने ने एएमयू प्रशासन को झुकने के लिए मजबूत किया तथा पंडित टपलू और उनके साथ के सभी कश्मीरी हिंदू छात्रों को विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल गया.
टपलू, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी जुड़े थे, ने 1971 में जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय के एक वकील के रूप में नामांकन किया. टपलू की शादी 1957 में सरला से हुई थी जो एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका थीं.
जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल लगाया, तो उन्होंने श्रीनगर के लाल चौक पर गिरफ्तारी दी और घाटी में आपातकाल के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया.
मुसलमानों और हिंदुओं दोनों ही समुदायों में वह काफी लोकप्रिय थे. हर किसी की मदद करने के लिए विख्यात पंडित टपलू को लोग ‘लाला’ (पश्तो में ‘बड़ा भाई’) कहकर संबोधित करते थे. वह अपनी सादा जीवन शैली के लिए जाने जाते थे. असल में यह मुसलमानों के बीच उनकी लोकप्रियता ही थी जो कश्मीर में उन आतंकवादियों के लिए बड़ी चुनौती साबित हो रही थी जो 1980 के दशक में माहौल को सांप्रदायिक बनाने की कोशिश कर रहे थे.
आतंकवादियों से कई धमकियां मिलने के बाद, पंडित टपलू अपने परिवार को दिल्ली ले गए. उनका परिवार दिल्ली में ही रह गया लेकिन खुद पंडित टपलू आतंकवादियों को चुनौती देने के लिए वापिस घाटी आ गए. दिल्ली से लौटने के चार दिन बाद चिंकारा मोहल्ला स्थित उनके आवास पर आतंकवादियों ने 12 सितंबर, 1989 को हमला किया. लेकिन पंडित टपलू को मारने में असफल रहे. इस हमले के बाद पंडित टपलू ने सार्वजनिक रूप से आतंकवादियों को फिर से हमला करने की हिम्मत करने की चुनौती दी. 14 सितंबर को दिनदहाड़े आतंकियों ने उन्हें गोली मार दी और उनकी मृत्यु हो गई.
उनके अंतिम संस्कार में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता एल.के. आडवाणी और केदारनाथ साहनी सहित हजारों की संख्या में हिंदू व मुस्लिम शामिल हुए. टपलू भाजपा की जम्मू-कश्मीर इकाई के उपाध्यक्ष भी थे.
उनकी हत्या कश्मीरी हिंदुओं के मनेाबल पर एक क्रूर आघात थी. उन्होंने विरोध के रूप में एक दिन के लिए सभी दुकानों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को बंद कर अपना आक्रोश व्यक्त किया. यह संभवत: पहली और आखिरी बार था जब कश्मीरी हिंदुओं ने घाटी में ‘बंद’ का आयोजन किया था.
उनकी हत्या के बाद कश्मीरी हिंदुओं को निशाना बनाकर हत्याओं की बाढ़ आ गई. पंडित टपलू की मौत के बाद श्रीनगर के जिला सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की गोली मारकर हत्या कर दी गई. उन्होने आतंकवादी और अलगाववादी संगठन नेशनल लिबरेशन फ्रंट के संस्थापक मकबूल भट्ट को सजा सुनाई थी. भट्ट को 11 फरवरी 1984 को नई दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दी गई थी.
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कश्मीरी हिंदूओं का पलायन
1989 में, तत्कालीन जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने उसी वर्ष जुलाई और दिसंबर के बीच लगभग 70 आतंकवादियों को रिहा करने का आदेश दिया था. ये वो आतंकी थे जिन्हें पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी शिविरों में प्रशिक्षित किया गया था.
उनमें से शीर्ष चार हामिद शेख, अशफाक वानी, जावेद मीर और यासीन मलिक थे. उन्होंने उग्रवाद को बढ़ावा देने और घाटी में हिंदू विरोधी माहौल बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई.
1989 के अंत तक, कश्मीर घाटी में इस्लामी प्रभुत्व स्थापित करने और इसे भारत से अलग करने की मांग अपने चरम पर पहुंच गई थी. 19 जनवरी 1990 की शाम को घाटी में मस्जिदों से पाकिस्तान समर्थक नारेबाजी शुरू हो गई और भीड़ जमा होने लगी. पोस्टर लगे, जिसमें हिंदुओं से या तो इस्लाम धर्म अपनाने और अलगाववादियों में शामिल होने या अपने घरों को छोड़ने के लिए कहा गया.
हजारों हिंदू रात भर पलायन कर गए. दिल्ली स्थित एक थिंक टैंक, जम्मू-कश्मीर स्टडी सेंटर की एक रिपोर्ट के अनुसार, मार्च 1990 तक, घाटी में रहने वाले 90 प्रतिशत से अधिक हिंदुओं ने अपना घर छोड़ दिया था. इस बीच, घाटी में अधिकांश हिंदुओं के घर जला दिए गए और उनकी चल संपत्ति में से जो कुछ बचा था उसे लूट लिया गया. इन सभी घटनाओं का आगाज़ 14 सितंबर, 1989 को पंडित टपलू की हत्या से हुआ था.
(लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो पुस्तकें लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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