नई दिल्ली: बेंगलुरू के मिलर्स रोड पर चल रही एक गाड़ी, जिसे एक सफेद बैल खींच रहा था सोना टावर्स के बाहर रुकी हुई थी. इस ब्लैक-एंड-व्हाइट क्लासिक फोटो में, मज़दूरों को उससे हाई-टेक माल उतारते देखा जा सकता था: भारत की पहली निजी सेटेलाइट डिश. इसे अमेरिका में टेक्सास इंस्ट्रुमेंट्स (टीआई) के साथ संचार के लिए लाया गया था, एक ऐसी अमेरिकी कंपनी जिसने इलेक्ट्रॉनिक चिप्स और सेमीकंडक्टर्स डिज़ाइन करने के लिए, तभी एक आरएंडडी सुविधा स्थापित की थी.
1985 के उस दिन के बाद से बेंगलुरू एक अंतर्राष्ट्रीय टेक और उद्यम केंद्र बन गया है. सेमीकंडक्टर उद्योग में भी बेहद तेज़ी से प्रगति हुई है. आज तक़रीबन हर इलेक्ट्रॉनिक चीज़ में चिप्स मौजूद हैं- राइस कुकर्स और मोबाइल फोन्स से लेकर गाड़ियों और मिसाइल प्रणालियों तक.
फिर भी, बहुत से कारणों और अच्छी शुरुआत के बावजूद, 1980 के दशक में भारत सेमीकंडक्टर क्रांति में पिछड़ गया था, जबकि चीन और ताइवान जैसे देश तेज़ी से आगे बढ़ गए.
मोहाली स्थित सरकारी सेमीकंडक्टर फैब्रिकेशन फाउंड्री, सेमीकंडक्टर कॉम्प्लेक्स लिमिटेड (एससीएल),1989 में आग की लपटों की भेंट चढ़ गई, और सरकार की बहुत सी पहलक़दमियों के नाकाम हो जाने के बाद, 1990 तथा 2000 के दशक में भारत सेमीकंडक्टर डिज़ाइन बैकरूम की भूमिका में स्थापित होकर रह गया, और वो मैन्युफैक्चरिंग ताक़त नहीं बन पाया जिसकी उसने कभी उम्मीद थी.
लेकिन पिछले क़रीब 15 सालों में, स्वदेश में ही विकसित बेंगलुरू की कुछ सेमीकंडक्टर डिज़ाइन कंपनियां, अपनी नवीनता का लोहा मनवाने में जुटी हैं, न कि उस कहावती ‘बैल गाड़ी’ छवि का, जिसकी विदेशी कंपनियां सवारी करती हैं.
मसलन, टर्मिनस सर्किट्स के पास उन चिप्स की बौद्धिक संपदा है, जो वो अपने ग्राहकों के लिए डिज़ाइन करती है- जो अपने आप में एक दुर्लभता है. फिर एक सांख्य लैब्स है जिसने 2012 में सॉफ्टवेयर डिफाइंड रेडियो (एसडीआर) संचार प्रणाली के लिए, पहला कंज़्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स चिप डिज़ाइन किया था. स्टिरेडियन सेमीकंडक्टर्स 4डी इमेजिंग रडार टेक्नोलॉजीज़ के अग्रणी क्षेत्र में काम करती है.
अब ऐसी कंपनियों की अहमियत को पहले से कहीं ज़्यादा मान्यता मिल रही है.
भारत, जो फिलहाल अपने 100 प्रतिशत चिप्स आयात करता है, चिप की विश्वव्यापी कमी से बुरी तरह प्रभावित हुआ था, जिसे कोविड और रूस-यूक्रेन युद्ध ने और बिगाड़ दिया था. बाक़ी दुनिया की तरह हमारा देश भी चिप में थोड़ी बहुत आत्मनिर्भरता हासिल करना चाहता है.
पिछले दिसंबर में, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (एमईआईटीवाई) ने 76,000 करोड़ रुपए (क़रीब 10 बिलियन डॉलर) के बजट से ‘भारत सेमीकंडक्टर मिशन’ शुरू किया, ताकि देश ‘इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माण और डिज़ाइन के एक वैश्विक केंद्र’ के रूप में उभर सके.
अप्रैल में, सरकार ने इस क्षेत्र में स्टार्ट-अप्स और एसएमई (छोटे और मझोले उद्यमों) को सहायता पहुंचाने के लिए, एक पैनल का भी गठन किया.
बहुत सी स्टार्ट-अप इकाइयों को उम्मीद है कि सरकार के सेमीकंडक्टर को बढ़ावा देने से, उन्हें अपनी बाधाओं पर क़ाबू पाने और अपने अंतर्राष्ट्रीय क़द को बढ़ाने में मदद मिलेगी.
जैसा कि स्टिरेडियन सेमीकंडक्टर्स के सह-संस्थापक आशीष लछवानी कहते हैं: ‘दुनिया आपके साथ कोई रिआयत नहीं करती, सिर्फ इसलिए कि आप भारत के कोई स्टार्ट-अप हैं’.
सेमीकंडक्टर्स क्यों महत्वपूर्ण हैं
सेमीकंडक्टर्स- जिन्हें माइक्रोचिप्स, इंटीग्रेटेड सर्किट्स और प्रॉसेसर्स भी कहा जाता है, सभी बिजली और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के अंदर फिट होते हैं. ज़्यादातर उपकरणों में चिप्स का एक इकोसिस्टम होता है, जो अलग अलग कार्यों को नियंत्रित करता है.
चिप्स तक़रीब हर इलेक्ट्रॉनिक चीज़ का एक आवश्यक हिस्सा होते हैं: जैसे स्मार्टफोन्स, गाड़ियां, ट्रेनें, वॉशिंग मशीन्स, ट्रैफिक लाइट्स, स्टॉक एक्सचेंज के कंप्यूटर्स, लड़ाकू विमान आदि. लेकिन उनकी ओर लोगों की ज़्यादा तवज्जो तब तक नहीं हुई, जब तक कोविड लॉकडाउंस से उत्पन्न सप्लाई की बाधाओं के चलते उनकी कमी नहीं हो गई. इसकी वजह से बहुत सी चीज़ें या तो उपलब्ध नहीं थीं, या वो ज़्यादा महंगी हो गई थीं.
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सरकारें इस बात को समझती हैं कि राष्ट्रीय और आर्थिक सुरक्षा के लिए चिप्स बहुत अहम होते हैं. मार्च 2021 में अमेरिकी चिप लीडर आईबीएम ने एक नोट में कहा: ‘आप कभी ऐसी स्थिति में नहीं आना चाहते जहां कोई दूसरा देश किसी ऐसे बहुमूल्य संसाधन के नियंत्रण में हो, जिस पर आपका देश निर्भर करता हो’.
यही कारण है कि अमेरिका अब सेमीकंडक्टर सप्लाई के इस मसले को सुलझाने की कोशिश कर रहा है, जिसके लिए इस क्षेत्र में ‘कम से कम’ 50 बिलियन डॉलर का निवेश किया जाएगा.
भारत भी अब इसमें अपनी रफ्तार बढ़ाना चाहता है, जिसके कुछ कारण भौगोलिक-राजनीतिक भी हैं. मैन्युफैक्चरिंग फिलहाल ताइवान जैसे देशों में केंद्रित है, जिस पर हमेशा चीन के संभावित हमले का ख़तरा रहता है. एक और सेमीकंडक्टर हब दक्षिण कोरिया पर भी, अपने पड़ोसी उत्तर कोरिया के साथ युद्ध का लगातार ख़तरा रहता है.
भारत के इतिहास में पहली बार, इस अप्रैल में किसी प्रधानमंत्री ने सिर्फ सेमीकंडक्टर्स के बारे में एक सम्मेलन ‘सेमीकॉनइंडिया 2022’ का उदघाटन किया, जिसका स्पष्ट संदेश था कि ये छोटे से चिप्स इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं, कि देश के प्रधानमंत्री ने उन पर अपना चेहरा लगा दिया है.
4 जुलाई को पीएम मोदी ने डिजिटल इंडिया वीक 2022 भी लॉन्च किया, जिसमें सेमीकंडक्टर डिज़ाइनिंग पर एक कार्यक्रम शामिल था.
मई में, इंटरनेशनल सेमीकंडक्टर कंसॉर्शियम (आईएसएमसी) ने, जिसमें अबू धाबी की निवेश फर्म नेक्स्ट ऑर्बिट वेंचर्स और इज़राइल की टावर सेमीकंडक्टर शामिल हैं, 3 बिलियन डॉलर की लागत से कर्नाटक में एक चिप कारख़ाना लगाने का ऐलान किया.
नेक्स्ट ऑर्बिट वेंचर्स के संस्थापक-प्रबंध भागीदार अजय जालान ने दिप्रिंट से कहा, कि फंड का ‘दृढ़ विश्वास’ है कि उसके निवेश से 5 ट्रिलियन डॉलर की पीएम की परिकल्पना को साकार करने में भी मदद मिलेगी.
पिछले महीने, ताइवान स्थित इलेक्ट्रॉनिक्स दिग्गज फॉक्सकॉन के अध्यक्ष ने वेदांता समूह के अध्यक्ष से मिलकर, एक चिप निर्माण प्लांट स्थापित करने की योजना पर चर्चा की, जिसके लिए उन्होंने फरवरी में एक क़रार पर दस्तख़त किए थे.
लेकिन सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कुख्यात रूप से कठिन और महंगी होती है. भारत के लिए इस क्षेत्र में दूसरों को पकड़ने का काम आसानी या जल्दी से नहीं होने वाला है, चूंकि अत्याधुनिक चिप्स बनाने में करोड़ों-अरबों डॉलर के निवेश, शुद्ध कच्चे माल, और ठोस इन्फ्रास्ट्रक्चर की ज़रूरत होती है. पानी सप्लाई में बाधा या बिजली कटौती, सेमीकंडक्टर प्लांट के लिए मुसीबत बन सकती है.
जैसाकि कुछ पर्यवेक्षकों ने कहा है कि फिलहाल सबसे वास्तविक उम्मीद अब यही है, कि मोदी सरकार स्थानीय चिप उद्योग की अपनी योजनाओं को अमलीजामा पहना दे.
स्थानीय प्रतिभा लेकिन कोई औद्योगिक विकास नहीं
भारत की सेमीकंडक्टर कहानी छूटे हुए अवसरों और नाकामियों की एक दुखद फेहरिस्त है.
जैसा कि पत्रकार चूड़ी शिवराम ने फरवरी 2022 में दि स्टेसमैन के एक लेख में ख़ुलासा किया: ‘1987 में, भारत चिप निर्माण की नवीनतम तकनीक से केवल दो साल पीछे था. आज हम 12 पीढ़ी पीछे हैं’.
सरकारी स्वामित्व के एकमात्र निर्माण संयंत्र, सेमीकंडक्टर कॉम्प्लेक्स लिमिटेड ने 1983 में मोहाली में काम करना शुरू किया था, लेकिन छह साल बाद लगी एक आग ने 1997 तक के लिए उसका काम ठप कर दिया. उसे फिर से पटरी पर लाने के लिए कुछ आधे-अधूरे प्रयास हुए, लेकिन कुछ काम नहीं बना.
एससीएल अभी भी वजूद में है, बस हुआ ये है कि इसके आकार को घटाकर इसे सेमी-कंडक्टर लैबोरेट्री (एससीएल) बना दिया गया है, जो आरएंडडी पर फोकस करती है. इस साल मार्च में, सरकार ने इस सुविधा की ‘उन्नति’ की योजना का ऐलान किया, लेकिन इस पर अभी भी बहस जारी है कि इससे कितना कुछ हासिल किया जा सकता है.
आज, निर्माण के क्षेत्र में ताइवान सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी (टीएसएमसी) और दक्षिण कोरिया की सैमसंग इलेक्ट्रॉनिक्स जैसी दिग्गज कंपनियों का भारी दबदबा है.
लेकिन, जिस क्षेत्र में भारत को बढ़त हासिल है वो है उसकी इंजीनियरिंग प्रतिभा. लगभग सभी शीर्ष अंतर्राष्ट्रीय चिप डिज़ाइन कंपनियों की भारत में मौजूदगी है, जहां कथित रूप से दुनिया के 20 प्रतिशत सेमीकंडक्टर डिज़ाइन इंजीनियर रहते हैं.
अभी तक, इस प्रतिभा का फायदा ज़्यादातर विदेशी कंपनियां ही उठाती रही हैं, जिसकी शुरुआत टेक्सास इंस्ट्रुमेंट्स (टीआई) से हुई थी जो 1985 में पहली अंतर्राष्ट्रीय टेक कंपनी थी, जिसने बेंगलुरू में अपना व्यवसाय शुरू किया था.
टीआई इंडिया के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक संतोष कुमार ने कहा, ‘भारत के पास शानदार इंजीनियर्स हैं. विश्व स्तर के उत्पाद बनाने के लिए टीआई ने बहुत पहले ही, इस तकनीकी प्रतिभा का फायदा उठाने का अवसर देख लिया था’.
फिर है सेमीकंडक्टर की अगुवा इंटेल. अमेरिका से बाहर उसका सबसे बड़ा डिज़ाइन और इंजीनियरिंग केंद्र भारत में है, जहां उसकी सुविधाएं बेंगलुरू और हैदराबाद में स्थित हैं.
इंटेल इंडिया में स्ट्रेटजी और बिज़नेस डेवलपमेंट के सीनियर डायरेक्टर अजय शर्मा ने बताया, ‘भारत को आज हर साल 2,000 से अधिक चिप्स का डिज़ाइन तैयार करने का गौरव प्राप्त है’.
फिर भी, हालांकि भारत के इंजीनियरों की योग्यता की व्यापक रूप से सराहना होती है, लेकिन उन्हें आमतौर से किसी नवीनता या महत्वपूर्ण मूल्यवर्द्धन के लिए नहीं जाना जाता.
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स्टिरेडियन सेमीकंडक्टर्स के सह-संस्थापक आशीष लछवानी ने कहा कि टीआई जैसी कुछ गिनी-चुनी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ही, चिप की परिभाषा और उसकी बनावट जैसे मूलभूत कार्यों के लिए इंडिया टीमें स्थापित कीं थीं.
एक भारतीय सेमीकंडक्टर कंपनी के एग्ज़िक्यूटिव ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘आज तक, भारत में ज़्यादातर सत्यापन का काम ही किया जाता है, जिसमें देखा जाता है कि क्या चिप अपेक्षानुसार काम कर रही है. ये एक ऐसा काम है जिसे आसानी से दूसरे देशों को दिया जा सकता है’.
लेकिन, कुछ कंपनियां ऐसी भी हैं जो बरसों से यथास्थिति को बदलने की दिशा में काम कर रही हैं.
पहचान का प्रयास
2006 में, हेमंत मल्लापुर, पराग मलिक और विश्वकुमार कायरगड्डे ने एक जुआ खेलने का फैसला किया. उन्होंने कैलिफोर्निया-स्थित सेमीकंडक्टर फर्म जिनेसिस माइक्रोचिप से अपनी नौकरियां छोड़ दीं, और सांख्य लैब्स के नाम से अपना ख़ुद का उद्यम शुरू कर दिया.
मल्लापुर ने दिप्रिंट से कहा, ‘उत्पाद विकास के सभी काम हम भारत में कर रहे हैं, लेकिन चूंकि कंपनी मुख्यालय अमेरिका में था इसलिए स्वाभाविक रूप से उसके उत्पाद को अमेरिकी उत्पाद समझा गया, भारतीय नहीं’.
उन्होंने आगे कहा, ‘लंच के बाद अपनी चहलक़दमियों के दौरान किए गए विचार मंथनों के बाद, हमने नौकरियां छोड़कर अपनी ख़ुद की सेमीकंडक्टर कंपनी शुरू करने का फैसला कर लिया’.
सांख्य लैब्स के बेंगलुरू ऑफिस में एक फ्रेम की हुई तस्वीर कॉन्फ्रेंस कक्ष में प्रमुखता के साथ टंगी हुई है. पहली नज़र में, ये टीवी की स्थिर तस्वीर के क्लोज़-अप जैसी लगती है. लेकिन दरअसल ये वो नहीं है.
असल में ये एक उन्नत चिप की बड़ी तस्वीर है, जिसे कंपनी ने 2019 में एक अमेरिकी टेलीकॉम समूह सिंक्लेयर ब्रॉडकास्ट ग्रुप, और सैमसंग की सेमीकंडक्टर फाउण्ड्री के सहयोग से तैयार किया था.
100 इंजीनियरों ने दो साल में एक सर्किट डायग्राम तैयार किया- जिसमें ट्रांज़िस्टर्स जैसे पुर्ज़ों का प्लेसमेंट भी शामिल था- जिसे फाउण्ड्री बाद में सिलिकॉन के वेफर पर प्रिंट कर देती है- जिसमें तय किया गया कि उससे बिजली किस तरह पास होगी. टीवी में गड़बड़ी की स्थिति में उस पर जो काली लाइनें आती हैं, वो उन बेहद बारीक सूक्ष्म तारों से आती हैं, जो सिलिकॉन चिप पर अरबों ट्रांज़िस्टर्स को आपस में जोड़ते हैं.
प्रेस वक्तव्यों में, एटीएससी 3.0 को ‘5जी दुनिया का एक विघटनकारी भविष्य’ बताया गया है, जिसमें सांख्य लैब्स को सैंमसंग और सिंक्लेयर ग्रुप के साथ जोड़ा गया है.
लेकिन सांख्य ने ख़ुद अपना नाम भी बनाया है.
2012 में, स्टार्ट-अप ने सॉफ्टवेयर डिफाइंड रेडियो (एसडीआर) संचार प्रणाली के लिए पहला कंज़्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स चिप तैयार किया.
एसडीआर चिप एक सॉफ्टवेयर-नियंत्रित चिप होती है, जो एक मुकम्मल रेडियो संचार प्रणाली के लिए आवश्यक बहुत सारे हार्डवेयर पुर्ज़ो के प्रभावों की नक़ल कर सकती है, लेकिन जिसमें किसी भारी निवेश की ज़रूरत नहीं होती. अगर आप गूगल पर ‘एसडीआर चिपसेट’ टाइप करें, तो सांख्य का नाम सर्च नतीजों में सबसे ऊपर आएगा.
उसके बाद आती है टर्मिनस सर्किट्स, जो बेंगलुरू स्थित एक और सेमीकंडक्टर सर्किट डिज़ाइन फर्म है. उसके संस्थापक डॉ. शंकर रेड्डी ने कहा कि उन्होंने इसे इसलिए शुरू किया, क्योंकि ‘उन्हें लगा कि हम क्यों नहीं कर सकते?’
उन्होंने आगे कहा, ‘ज्ञान, संसाधनों, और शैक्षणिक संस्थानों की कोई कमी नहीं है, तो फिर हम उच्च जटिलता की बौद्धिक संपदा क्यों तैयार नहीं कर सकते? इसलिए भविष्य के लिए टेक्नॉलजी तैयार करने के लिए मैंने बिल्कुल शुरू से एक टीम बनाई और उसे प्रशिक्षित किया’.
टर्मिनस इस तरह से इस मायने में अलग है कि इसके पास उन चिप्स के लिए बौद्धिक संपदा है, जो ये अपने ग्राहकों के लिए डिज़ाइन करती है. मसलन, उसने एक जर्मन कंपनी के लिए ‘चिप पर नेटवर्क’ का एक हार्डवेयर पुर्ज़ा तैयार किया, जिसे उच्च प्रदर्शन वाले कंप्यूटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर में इस्तेमाल किया जाना था.
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टर्मिनस ने जो पुर्ज़े डिज़ाइन किए उनकी बौद्धिक संपदा उसके पास है, जर्मन कंपनी के पास नहीं.
ऐसी उपलब्धियों के बावजूद, भारत की ज़्यादातर चिप स्टार्ट अप्स को अपने पांव जमाने के लिए संघर्ष करना पड़ा है.
निवेश के लिए संघर्ष, नौकरशाही का विलंब
मल्लापुर ने कहा कि सेमीकंडक्टर्स एक पूंजी प्रधान व्यवसाय है, और स्थानीय निवेशक ढूंढ़ना एक संघर्ष होता है.
2006 में जब सांख्य शुरू हुई, तो कंपनी को शुरुआती पैसा जुटाने में छह महीने लग गए, और तीन साल में जाकर वो अपनी पहली चिप बना पाई. 2013 में एक नई चिप डिज़ाइन तैयार करने में क़रीब 2.5 करोड़ डॉलर लगते थे, लेकिन सांख्या उतनी फंडिंग नहीं जुटा पाई. कंपनी को अपने प्रयास ग्रामीण इंटरनेट कनेक्टिविटी के लिए एक उत्पाद बनाने पर केंद्रित करने पड़े, और अपने कर्मचारियों की छुट्टी करनी पड़ी.
फिर 2016 में, यूरो आर्थिक संकट की वजह से एक संभावित निवेशक पीछे हट गया. संकट तब टला जब हैदराबाद स्थित एक कंपनी से किसी डिफेंस ग्राहक के लिए एक रेडियो संचार प्रणाली बनाने का काम मिल गया. मल्लापुर ने बताया, ‘उससे हमारी अच्छा-ख़ासी कमाई हो गई, और हम डूबने से बच गए’.
मल्लापुर ने आगे कहा कि एक सेमीकंडक्टर दिग्गज दिवंगत डॉ महंत शेट्टी, जिन्होंने टीआई में एक अहम भूमिका निभाई, स्थानीय क्षेत्र में योगदान देने वाले कुछ गिने-चुने प्रमुख भारतीयों में थे.
शेट्टी ने सांख्य जैसी स्टार्ट-अप्स में निवेश किया, वैश्विक कंपनियों द्वारा दिए गए सेमीकंडक्टर कार्यों को करने के लिए मणिपाल में कार्मिक डिज़ाइन नाम से एक कंपनी खड़ी की, और ख़ुद अपने पैसे से ग्रामीण कर्नाटक में चिप डिज़ाइन ट्रेनिंग केंद्र स्थापित किए. 2017 में शेट्टी की मौत हो गई.
स्टिरेडियन सेमीकंडक्टर्स की भी 2016 में एक धीमी शुरुआत हुई, जो रडार तकनीक की सहायता से स्वचालित ट्रैफिक प्रबंधन के लिए चिप्स और उससे जुड़े उपकरण बनाने में विशेषज्ञता रखती है.
संस्थापक आशीष लछवानी के अनुसार उनकी एक बड़ी समस्या वैश्विक फर्मों द्वारा गंभीरता से लिए जाने की है.
लेकिन, 2018 में कंपनी ने माइक्रोकंट्रोलर्स में दुनिया की एक अग्रणी कंपनी, जापान की रिनेसस इलेक्ट्रॉनिक्स और ऑटोमोटिव सेक्टर के लिए इलेक्ट्रॉनिक्स सप्लाई करने वाली एक बिलियन डॉलर की अमेरिकी कंपनी, विस्टियॉन के साथ साझेदारी कर ली. लछवानी ने कहा, ‘उनका भरोसा जीतने में कई साल लग गए, लेकिन आख़िरकार उन्होंने हमारा चयन किया, जबकि वो दुनिया में किसी के भी चुन सकते थे’.
फंडिंग की समस्याओं के अलावा, भारत में कंपनियों को भारतीय क़ानूनों से जूझना पड़ता है, जो ग़लत कामों को रोकने के लिए बनाए गए हैं, लेकिन वो कामकाज में बाधा बन जाते हैं.
मसलन, भारतीय क़ानून पुराने उपकरणों के आयात की अनुमति नहीं देते, ताकि यहां पर ई-कचरे के ढेर न लग सकें. लछवानी ने कहा कि इसकी वजह से जब किसी ग्राहक को कम समय में कोई चीज़ टेस्ट करानी होती है, तो उसके लिए उपकरण जुटाने में कंपनी का काम अटक जाता है.
उन्होंने आगे कहा कि वैसे ये उपकरण केवल डीआरडीओ की विशिष्ट सरकारी लैब्स, और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स में उपलब्ध है, और भारत में खुली पहुंच की वो व्यवस्था नहीं है जो अमेरिका या यूरोप में मौजूद है.
ज़रूरत ‘दीर्घ-कालिक नीति’ की है, एकबारगी की ‘रीइंबर्समेंट स्कीमों’ की नहीं
भारतीय चिप कंपनियों में सरकार के सेमीकंडक्टर को बढ़ावा देने पर ख़ुशी है, लेकिन उनका मानना है कि इसके लिए एक दीर्घ-कालिक और रणनीतिक दृष्टिकोण ज़रूरी है.
टर्मिनस सर्किट्स के डॉ शंकर रेड्डी यहां भारत में सेमीकंडक्टर कारख़ाने या निर्माण संयंत्र लगाने के लिए, कंपनियों को प्रोत्साहित करने की सरकार की योजना का स्वागत करते हैं, लेकिन उनका कहना कि ‘तत्काल नतीजों’ की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए.
‘मेरा दृढ़ विश्वास है कि फैब्स स्थापित करना एक रणनीतिक क़दम होना चाहिए, चूंकि इसमें बहुत अधिक पूंजी (क़रीब 5-10 बिलियन डॉलर्स) लगती है, और मुनाफे की स्थिति में आने में कम से कम पांच से छह साल लग जाते हैं’.
लछवानी ने कहा कि जिस चीज़ की ज़रूरत नहीं है वो ये कि मोहाली में सरकारी-स्वामित्व की सेमीकंडक्टर लैब और निर्माण संयंत्र की कहानी को ‘दोहराया’ नहीं जाना चाहिए. उनके अनुसार इसके लिए एक चरणबद्ध दृष्टिकोण सबसे अच्छा काम करेगा- पहले एक फैब से शुरुआत कीजिए जिसमें परिपक्व तकनीक प्रक्रियाओं का इस्तेमाल हो, और फिर ज़्यादा जटिल चिप्स बनाने के लिए अत्याधुनिक तकनीक के इस्तेमाल पर जाइए.
उन्होंने आगे कहा, ‘भारत को 20 साल के लिए सेमीकंडक्टर नीति की ज़रूरत है, आकस्मिक रीइंबर्समेंट स्कीमों की नहीं’.
मल्लापुर ने इस ज़रूरत पर बल दिया कि नीतिगत बदलावों के लागू होने से पहले ही, इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग को उनसे अवगत करा दिया जाना चाहिए.
मसलन 2011 में, सरकार ने टीवी देखने के लिए डिजिटल सेट टॉप बॉक्स अनिवार्य कर दिए. मल्लापुर ने कहा कि घोषणा से पहले अगर कुछ वर्षों का समय दे दिया जाता, तो ‘चीन से आयात करने की बजाय सेट टॉप बॉक्स भारतीय कंपनियों के सेमीकंडक्टरों, और प्रणालियों का इस्तेमाल करके बनाए जा सकते थे’.
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