नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारत सरकार के लिए सुनिश्चित करना ज़रूरी है, कि गैंग्सटर अबू सलेम की उम्र क़ैद की सज़ा को बदलकर 25 साल कर दिया जाए. इसका मतलब है कि अबू सलेम, जिसे 1993 के मुंबई धमाकों और 1995 के एक हत्या मामले में दोषी क़रार दिया गया था, संभावित रूप से नवंबर 2030 तक जेल से आज़ाद हो जाएगा.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का आधार भारत और पुर्तगाल के बीच 2002 में की गई प्रत्यर्पण संधि थी, जहां सलेम छिपने की कोशिश कर रहा था.
भारत ने पुर्तगाल को आश्वासन दिया था कि अगर सलेम का प्रत्यर्पण किया गया, तो उसे सज़ाए मौत या 25 साल से ज़्यादा की सज़ा नहीं दी जाएगी.
लेकिन, 2015 में मुंबई की एक अदालत ने 1995 के एक हत्या मामले, और फिर 2017 में एक विशेष अदालत ने 1993 के मुंबई धमाकों के सिलसिले में, अबू सलेम को उम्र क़ैद की सज़ा सुना दी.
सलेम ने 2015 और 2018 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें कहा गया था कि निचली अदालत के आदेश ने उस ‘गंभीर संप्रभु आश्वासन’ का उल्लंघन किया, जिसे 17 दिसंबर 2002 को तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री एलके आडवाणी ने पुर्तगाल को दिया था. इस मामले पर शीर्ष अदालत ने आख़िरकार सोमवार को फैसला दिया.
प्रत्यर्पण संधि के मद्देनज़र, एससी ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि संविधान की धारा 72(1) के अंतर्गत वो ‘भारत के राष्ट्रपति को सलाह दे’, कि सलेम की बाक़ी बची सज़ा को ख़त्म कर दिया जाए.
कोर्ट ने आगे कहा कि सरकार आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धाराओं 432 या 433 के तहत, अपनी ख़ुद की शक्तियों का भी इस्तेमाल कर सकती है, जिनके तहत उसे किसी सज़ा को स्थगित या ख़त्म करने की अनुमति है.
कोर्ट ने सरकार की इस दलील को ख़ारिज कर दिया, कि सलेम की रिहाई पर तभी विचार होना चाहिए जब वो जेल में 25 साल पूरे कर ले.
दिप्रिंट से बात करते हुए, सलेम के वकील ऋषि मल्होत्रा ने कहा कि एससी के आदेश में सरकार को ‘सकारात्मक निर्देश’ दिया गया है, कि वो अपराधी की रिहाई के लिए क़दम उठाए
मल्होत्रा ने आगे कहा कि ये दूसरी बार था कि सलेम ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी, कि वो भारत सरकार से कहे कि पुर्तगाल से किए गए अपने ‘वादे का सम्मान करे’. वो पहली बार 2013 में भी जीत गया था, और पुर्तगाल लगभग प्रत्यर्पण को रद्द करने को तैयार हो गया था.
दिप्रिंट एक नज़र डालता है सलेम के खिलाफ मामलों पर, और किस तरह उसने दो बार पुर्तगाल से कई संधि को सफलतापूर्वक लागू कराया.
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सलेम के खिलाफ मुक़दमे
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सलेम का इतिहास ‘बिल्कुल भी रुचिकर नहीं है’. वो दाऊद इब्राहीम सिंडिकेट का हिस्सा था, और कथित तौर पर बहुत से अपराधों में लिप्त था.
इन्हीं में से एक था 12 मार्च 1993 के मुंबई धमाके, जिनमें 250 से अधिक लोग हलाक हुए थे. अपनी एफआईआर में केंद्रीय जांच ब्यूरो ने आरोप लगाया था, कि सलेम ने कथित तौर पर हथियारों और विस्फोटकों को गुजरात से मुंबई ले जाने, उन्हें स्टोर करने, और वितरित करने का काम अंजाम दिया था.
गिरफ्तारी से बचने के लिए सलेम मुंबई से भाग गया, और आख़िरकार एक नक़ली पाकिस्तानी पासपोर्ट का इस्तेमाल करके पुर्तगाल पहुंच गया.
इस बीच, एक मुंबई बिल्डर प्रदीप जैन की हत्या के सिलसिले में, 7 मार्च 1995 को सलेम के खिलाफ भारत में एक और केस दर्ज कर लिया गया. हत्या और जबरन वसूली के अलावा सलेम पर, आर्म्स एक्ट और पूर्व आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम की कई धाराओं के अंतर्गत भी, जिसे टाडा के नाम से जाना जाता है, कई मुक़दमे दर्ज किए गए.
सलेम कोर्ट के सामने पेश नहीं हुआ, इसलिए उसे एक घोषित अपराधी क़रार दे दिया गया, और बाद में उसे एक भगोड़े के तौर पर दिखाया गया.
उसके ख़िलाफ एक ग़ैर-ज़मानती वॉरंट जारी किया गया, जिसके बाद 18 सितंबर 2002 को एक इंटरपोल रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया गया, जो दुनिया भर की पुलिस को अंतर्राष्ट्रीय भगोड़ों के प्रति सतर्क करता है.
उसी दिन, सलेम को पुर्तगाल में एक फर्ज़ी पासपोर्ट के ज़रिए यात्रा करने का दोषी ठहराकर सज़ा सुना दी गई. इसके अलावा, रेड कॉर्नर नोटिस के आधार पर भी उसे वहां हिरासत में ले लिया गया.
भारत का ‘आश्वासन’
भारत सरकार ने 13 दिसंबर 2002 को सलेम को पुर्तगाल से प्रत्यर्पित किए जाने का अनुरोध दाख़िल किया.
उसी महीने भारत सरकार ने एक ‘गंभीर संप्रभु आश्वासन’ दिया, कि सलेम को सज़ाए मौत या 25 साल से अधिक की सज़ा नहीं सुनाई जाएगी.
28 मार्च 2003 को पुर्तगाल के न्याय मंत्रालय ने, भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या), 120-बी आईपीसी (आपराधिक षडयंत्र) और टाडा की धारा 3 (2) (आतंकी गतिविधि) के अंतर्गत, सलेम के प्रत्यर्पण की अनुमति दे दी. आदेश में टाडा तथा आर्म्स एक्ट की बाक़ी धाराओं को हटा दिया गया, जिसका मतलब था कि वापस भारत में उसपर उन आरोपों के तहत मुक़दमा नहीं चलाया जाएगा.
नवंबर 2005 तक सलेम पुर्तगाल में न्यायिक हिरासत में रहा. उसे आख़िरकार भारतीय अधिकारियों को तब सौंपा गया, जब प्रत्यर्पण आदेश के खिलाफ उसकी अपीलें ख़ारिज हो गईं.
लेकिन, पुर्तगाल के सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर भारत अपने वचन से पलटता है, तो पुर्गताल प्रत्यर्पण को रद्द कर सकता है. उसने आगे ज़ोर देकर कहा कि ‘विशिष्टता के सिद्धांत’ के अंतर्गत, सलेम पर केवल प्रत्यर्पण अनुरोध में उल्लिखित कथित अपराधों के लिए ही मुक़दमा चलाया जाना चाहिए.
सलेम की पहली ‘जीत’
भारत में लाए जाने के कुछ महीनों के भीतर ही सलेम ने आरोप लगाया, कि भारत ‘विशिष्टता के सिद्धांत’ का उल्लंघन करते हुए, भारत उन अतिरिक्त आरोपों के लिए उस पर मुक़दमा चला रहा है, जो पुर्तगाल के साथ हुए समझौते में तय किए गए थे.
उसने इन आधारों पर शीर्ष अदालत से इन आरोपों को रद्द करने की गुहार लगाई, कि उसके प्रत्यर्पण आदेश में उक्त आरोपों के तहत मुक़दमा चलाए जाने की मनाही है. सलेम ने लिस्बन की अपीलीय अदालत में भी इसी तरह की अपील दायर की, जिसमें दावा किया गया था कि उसपर लगाए गए आरोप प्रत्यर्पण आदेश का उल्लंघन हैं.
सितंबर 2010 में, एससी ने आदेश दिया कि ‘विशिष्टता के सिद्धांत’ का कोई उल्लंघन नहीं हुआ था, लेकिन एक साल बाद लिस्बन की अदालत एक विपरीत निष्कर्ष पर पहुंची, और उसने प्रत्यर्पण संधि ख़त्म करने का आदेश दे दिया.
भारत ने इस आदेश के खिलाफ अपील की लेकिन दो उच्चतर न्यायिक मंचों- पुर्तगाल की सुप्रीम कोर्ट और संवैधानिक कोर्ट पर उसकी हार हुई.
उसके बाद, सीबीआई दौड़कर शीर्ष अदालत पहुंची और गुहार लगाई, कि कोर्ट के शिष्टाचार और वैश्विक आतंकवाद के मुकाबले के हित में, एजेंसी को सलेम के खिलाफ लगाए गए अतिरिक्त आरोपों को वापस लेने की अनुमति दी जाए.
अगस्त 2013 में, सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को अतिरिक्त आरोपों को वापस लेने की अनुमति दे दी. ये सलेम के लिए एक जीत थी, लेकिन उसके खिलाफ मुक़दमों की सुनवाई कर रही मुम्बई की निचली अदालत की कुछ और ही योजना थी.
मुंबई आदालतों ने क्या कहा
अभियोजन पक्ष ने स्वीकार किया कि अबू सलेम के लिए सज़ाए मौत का कोई सवाल नहीं था, लेकिन उसने तय किया कि उसे फिर भी उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई जा सकती है.
राज्य का मानना था कि आडवाणी द्वारा दिया गया ‘गंभीर संप्रभु आश्वासन’ कोई गारंटी नहीं हो सकता था, कि भारत की कोई भी अदालत भारतीय क़ानून के तहत सज़ा नहीं सुना सकती.
सलेम को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाते हुए, दो निचली अदालतों ने कहा कि दोषी को सज़ा देना उनके अधिकार क्षेत्र में आता है. वहीं दूसरी ओर, सज़ा पर अमल कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में आता है, और सरकार ये निर्णय कर सकती है कि वो आश्वासन का किस तरह पालन करती है.
‘आश्वासन’ का सम्मान केंद्र का काम है, अदालत का नहीं
एससी में सलेम की चुनौती के जवाब में केंद्र ने शुरू में एक तटस्थ रुख़ इख़्तियार किया, लेकिन फिर बाद में उसने एक हलफनामा दायर किया जिसमें कहा गया कि वो अपने आश्वासन का ‘सम्मान’ करेगी, लेकिन ऐसा 25 वर्ष की अवधि समाप्त होने के बाद ही किया जाएगा.
इस व्याख्या को ख़ारिज करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसे समयबद्ध करना ज़रूरी है, जिससे कि ये एक ‘अंतहीन क़वायद’ न बन जाए.
एससी ने कहा कि सलेम की सज़ा को ख़त्म करना कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से बाहर है, लेकिन ये भारत सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वो उस आश्वासन के बारे में कार्रवाई करे, जो उसने पुर्तगाल को दिया था.
कोर्ट ने कहा कि ऐसा न करने से पुर्तगाल को ‘अधिकार मिल जाएगा, कि वो राजनयिक या न्यायिक चैनल के ज़रिए, प्रत्यर्पित किए जाने वाले व्यक्ति को उसे सौंपे जाने की मांग कर सकता है’.
लेकिन, एससी ने सलेम की इस दलील को ख़ारिज कर दिया, कि उसकी सज़ा की अवधि उस समय से जोड़ी जानी चाहिए जब उसे पुर्तगाल में गिरफ्तार किया गया था. कोर्ट ने कहा कि उसकी जेल की अवधि नवंबर 2005 से शुरू होगी, जिन दिन उसे अधिकारिक तौर पर भारतीय अधिकारियों के हवाले किया गया था.
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