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Saturday, 21 December, 2024
होमदेश'नुकसान उठाकर भी माल बेच सकते हैं'- कोरोना के कारण धारावी के चमड़ा उद्योग पर कैसे छाया संकट

‘नुकसान उठाकर भी माल बेच सकते हैं’- कोरोना के कारण धारावी के चमड़ा उद्योग पर कैसे छाया संकट

कोरोना महामारी ने धारावी के पूरे चमड़ा कारोबार की रौनक छीन ली है. वहीं, ग्राहकों की कमी के कारण इस उद्योग से रोजी रोटी चलाने वाले कारीगर भी त्रस्त हैं. इनकी माली हालत दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है.

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मुंबई: देश की आर्थिक राजधानी कही जाने वाली मुंबई में धारावी का स्लम एरिया अलग-अलग कारणों से चर्चा में रहता है. इस एरिया में कई तरह के छोटे-छोटे उद्योग-धंधे करोड़ों रुपए का कारोबार करते हैं. इनमें सबसे अहम है चमड़ा उद्योग. यहां के चमड़ा उद्योग ने धारावी को एक अलग पहचान दी है. लेकिन, इन दिनों यह उद्योग संकट के दौर से गुज़र रहा है.

कोरोना महामारी ने इस इलाके के पूरे चमड़ा कारोबार की रौनक छीन ली है. वहीं, ग्राहकों की कमी के कारण इस उद्योग से रोजी रोटी चलाने वाले कारीगर भी त्रस्त हैं. इनकी माली हालत दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है.

इस उद्योग से जुड़े कारीगर बताते हैं कि कोरोना महामारी से पहले भी धारावी का चमड़ा कारोबार कुछ दूसरी वजहों से मुश्किल में चल रहा था लेकिन महामारी के बाद यह इस समय अपने वजूद को बचाने के लिए जूझ रहा है. ऐसी विकट स्थिति की मुख्य वजह यह है कि कोरोना संक्रमण के डर और लॉकडाउन के कारण बड़ी तादाद में यहां सामान खरीदने के लिए आने वाले ग्राहकों की संख्या सीमित हो गई है.

ग्राहक इस इलाके में सामान खरीदने के लिए नहीं आ रहे हैं. इसका नतीजा यह हुआ है कि यहां चमड़ा उद्योग से जुड़ी व्यवसायिक गतिविधियां लगभग रुक गई हैं. इसी तरह, चमड़ा उद्योग से जुड़े ज्यादातर कारोबारी फिलहाल व्यवसाय शुरू करने से कतरा रहे हैं.

धारावी मुंबई में करीब ढाई सौ हेक्टेयर क्षेत्र में फैला स्लम एरिया है. यहां बीस हजार से अधिक छोटे व्यवसायी और उत्पादक हैं. यहां चमड़ा सहित वस्त्र और रि-साइकिलिंग से जुड़ी वस्तुओं का सालाना करीब छह सौ करोड़ रुपए का कारोबार है.


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जीएसटी के बाद कोरोना महामारी की मार

मुंबई की धारावी को एशिया में सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती के रूप में जाना जाता है. धारावी को कई उद्योग और व्यवसायों का घर भी कहा जाता है. यहां रोजमर्रा की छोटी-छोटी जरूरतों से लेकर कई देशों को निर्यात किए जाने वाले सामान तैयार किए जाते हैं. कोरोना महामारी से पहले कई तरह की चीजों को बनाने के लिए यहां दिन-रात काम चलता रहता था. खास तौर से चमड़ा उद्योग के कारण यह बड़ी संख्या में न सिर्फ ग्राहकों को आकर्षित करता रहा है बल्कि चमड़ा उद्योग से जुड़ी अनेक कंपनियों और बड़े व्यवसायिकों को भी लुभाता रहा है.

नोटबंदी और जीएसटी के बाद अब कोरोना महामारी से धारावी चमड़ा उद्योग को नुकसान उठाना पड़ा है। फोटो साभार: गौथम राज केजे

इस बारे में यहां चमड़ा उद्योग से जुड़े छोटे व्यवसायी शम्मी शेख बताते हैं, ‘चमड़ा का कारोबार यहां मुख्य है. धारावी चमड़े के सामानों से जुड़े कई नामी ब्रांडों का ठिकाना है और बड़े पैमाने पर वे यहां से तैयार चीजों को बनवाते हैं या उन्हें थोक के भाव खरीदते हैं. इसलिए कई अन्य राज्यों के ग्राहक और बड़ी कंपनियों के अधिकारियों की भीड़ ट्रेनों से धारावी के बाजार तक माल लेने के लिए आती है. पर, अभी बाजार ठंडा हो गया है. जीएसटी के कारण इस बाजार को नज़र लग गई थी और यहां का कारोबार धीमा हो गया था. जीएसटी के बाद यहां का बाजार मुश्किल में था, अब कोरोना के बाद पूरा कारोबार खत्म होने के रास्ते पर है.’

इसी तरह, कई कारोबारी धारावी के चमड़ा उद्योग की बर्बादी के लिए अकेले कोरोना महामारी को जिम्मेदार नहीं मानते हैं. जैसे कि एक अन्य चमड़ा व्यवसायी राजेंद्र भोइटे कहते हैं, ‘नोटबंदी के समय यहां का चमड़ा उद्योग जब धीरे-धीरे संकट से उभर रहा था तो केंद्र (सरकार) ने जीएसटी लगा दिया. पहले 28 प्रतिशत तक जीएसटी लगाए जाने की चर्चा से छोटे कारोबारी घबरा गए, बाद में यह घटकर 18 प्रतिशत कर दिया गया. पर, सरकार को भले ही इतना जीएसटी कम लगे, हमारे लिए तो यह बहुत ज्यादा है. इन आर्थिक अड़चनों के बाद भी कई कारोबारी किसी तरह चमड़े का कारोबार कर ही रहे थे कि अब कोरोना ने उन्हें घर बैठा दिया है.’

दूसरी तरफ, कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन की घोषणा के बाद बड़ी संख्या में मजदूर मुंबई से पूरे परिवार के साथ गांव चले गए हैं. लॉकडाउन में धारावी का चमड़ा उद्योग छह महीने बंद रहा. अब स्थिति यह है कि यदि मजदूर यहां लौटे भी तो उनके लिए करने के लिए कुछ काम नहीं है.

चमड़े की चीजों के थोक विक्रेता गणेश दोईफोने बताते हैं कि वे 1988 से इस व्यवसाय से जुड़े हैं इसलिए लॉकडाउन में भी अपनी बचत के पैसे से किसी तरह घर-गृहस्थी चलाने में समर्थ हैं. उन्होंने कहा, ‘असल समस्या कारीगरों की है क्योंकि वे आमतौर पर इतना नहीं कमा सकते हैं कि अच्छा खासा बचत करके रख सकें और उससे कई महीनों तक बिना काम किए भी अपने परिवार वालों का पेट पाल सकें.’


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‘नुकसान उठाकर भी माल बेच सकते हैं’

धारावी के कई चमड़ा कारोबारी मानते हैं कि चमड़े की वस्तुएं जीवन के लिए अत्यावश्यक की श्रेणी में नहीं आती हैं. इसलिए ऐसे वस्तुओं की मांग आपातकालीन स्थितियों में घट गई.

इस क्षेत्र के कारोबारी सतीश खाडे कहते हैं, ‘कुछ वर्षों से चमड़े की चीजों की मांग में कमी आ रही है. कारण यह है कि चमड़े की चीजें मंहगी होती हैं. इसलिए आम ग्राहक सस्ती चीजों के लिए चमड़े की बजाय अन्य विकल्प तलाशता है और उन्हें खरीदता है. इसलिए भी धारावी में चमड़े की चीजों को लेने के लिए आने वाले ग्राहकों की संख्या में कमी आती जा रही थी. यही वजह है कि इस काम में सालों से लगे कई लोगों ने दूसरे काम तलाश लिए.’

दरअसल, यहां चमड़े का कारोबार करने वालों का मुनाफा बड़ी कंपनियों के साथ होने वाले समझौतों पर निर्भर रहता है. लेकिन, कोरोना लॉकडाउन में ऐसी कंपनियों का व्यवसाय भी प्रभावित हुआ. इन कंपनियों में काम करने वाले कर्मचारियों की बड़े पैमाने पर छंटनी हुई. इसलिए ग्राहकों के साथ जब कई कंपनियां भी माल खरीदने के लिए यहां आनी बंद हो गईं तो पूरा चमड़ा उद्योग पटरी पर आ गया. वहीं, कुछ कारोबारी बताते हैं कि कोरोना लॉकडाउन में ज्यादातर कारीगर अपने-अपने गांव चले गए हैं और वे वहीं कुछ काम तलाश रहे हैं. ऐसे में यदि बड़े आर्डर आए भी तो उन्हें पूरा करना मुश्किल इसलिए होगा कि पूरा क्षेत्र कारीगरों की कमी से भी जूझ रहा है.

धारावी के एक छोटे चमड़ा कारोबारी की परेशानी बताते हुए राजेंद्र भोइटे कहते हैं कि उसे अपनी वर्कशॉप के किराए और अन्य कार्यों के लिए हर महीने पचास हजार रुपए तक खर्च करना पड़ता है. यदि आमदनी बंद है तो इतना खर्च उठा पाना बहुत मुश्किल है. इसलिए लोगों ने किराए से लिए वर्कशॉप छोड़ दिए हैं. इसका मतलब यह है कि कारोबार के लिए जो माहौल चाहिए वह नहीं है और फिर से कारोबार के लिए माहौल बनाना आसान नहीं होता है. इसमें काफी समय लगता है.

इसी तरह, यहां एक अन्य छोटे चमड़ा कारोबारी बालासाहेब खरात बताते हैं, ‘हम तीस-बत्तीस सालों से इस धंधे में हैं. लेकिन, अभी जो हालत है वैसी कभी नहीं आई. इस धंधे में रहते हुए लगता नहीं है कि जिंदगी जी जा सकती है. हम जो आइटम बनाते हैं उसमें कारीगरी चाहिए होती है. यदि कारीगर को उसकी मेहनत भी नहीं मिलेगी तो हमें क्या मुनाफा मिलेगा. कई महीनों से माल लेने के लिए आने वाले काफी कम हो गए हैं. हालत ऐसी है कि हम पैसे के किए थोड़ा नुकसान उठाकर भी माल बेच सकते हैं.’

(शिरीष खरे स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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