नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते उस 20 वर्षीय युवक को रिहा करने का आदेश जारी किया जिसे दिसंबर 2017 में चार साल की बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या के लिए दोषी ठहराते हुए मौत की सजा सुनाई गई थी, जबकि उस समय वह किशोर उम्र का था.
जस्टिस बी.आर. गवई, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संजय करोल ने 20 वर्षीय इस युवक की सजा को तो बरकरार रखा लेकिन उसकी मौत की सजा को रद्द कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश मध्य प्रदेश की निचली अदालत से एक रिपोर्ट मिलने के बाद किया, जिसमें यह निष्कर्ष निकाला गया था कि अपराध के समय आरोपी की आयु वास्तव में 15 वर्ष और 4 महीने की थी.
वह दिसंबर 2017 के बाद से पांच साल से अधिक समय हिरासत में बिता चुका था, और मई 2018 से मौत की सजा की कतार में था.
किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 कहता है कि यदि 16 वर्ष से कम उम्र के नाबालिग को जघन्य अपराध में लिप्त होने का दोषी पाया जाता है, तो उसे अधिकतम स्पेशल होम में रखे जाने की सजा दी जा सकती है. और ‘स्पेशल होम में रखे जाने के दौरान उसके लिए शिक्षा, कौशल विकास, काउंसलिंग, व्यवहार में बदलाव के लिए थेरेपी, और मनोरोग सहायता आदि सुधारात्मक कदम उठाए जाएंगे.’
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘इस मामले में अपीलकर्ता की उम्र अपराध के समय 16 साल से कम थी, और इसलिए वह अधिकतम तीन साल तक सजा का ही पात्र था. वह पहले ही 5 साल से अधिक समय हिरासत में गुजार चुका है. तीन साल से अधिक समय तक उसे कैद रखा अवैध होगा, और इसलिए, उसे तत्काल रिहा कर दिया जाना चाहिए.’
आरोपी को पहले एक वयस्क माना गया था और इसी आधार पर उस पर मुकदमा चलाया गया था. अपराध के समय उसकी उम्र को लेकर सवाल तब उठा जब उसने 2019 में सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में एक आवेदन दायर किया. उसने यह आवेदन तब दिया जब उसे दोषी ठहराने और मौत की सजा सुनाए जाने के कुछ महीनों बाद मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी उस सजा को बरकरार रखा था.
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क्या है पूरा मामला
अभियोजन पक्ष के मुताबिक, पीड़िता 15 दिसंबर 2017 को लापता हो गई थी. उसका शव अगली सुबह मध्य प्रदेश के धार जिले के एक गांव में एक नदी के किनारे मिला था. पीड़िता की चाची ने पुलिस को बताया था कि उसे आखिरी बार उसी दिन शाम 6.30 बजे आरोपी के साथ देखा गया था.
पुलिस ने आरोपी को 16 दिसंबर को गिरफ्तार किया था. हालांकि, उसने दावा किया कि उसे झूठमूठ फंसाया जा रहा है.
जिला अदालत के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने मई 2018 में परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर उसे हत्या के लिए मौत की सजा सुनाई. उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 363 (अपहरण), धारा 376 (दुष्कर्म) और धारा 302 (हत्या) के अलावा यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम, 2012 के प्रावधानों के तहत भी दोषी ठहराया गया था.
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने नवंबर 2018 में अपने 31 पन्नों के एक फैसले में उस पर दोषसिद्धि और मौत की सजा की पुष्टि कर दी थी. उसकी सजा अन्य साक्ष्यों के अलावा बच्ची की चाची की गवाही पर आधारित थी कि पीड़िता को आखिरी बार आरोपी के साथ ही देखा गया था. अदालत ने यह भी कहा कि पीड़िता के अंडरगारमेंट्स से मिला डीएनए प्रोफाइल आरोपी के डीएनए प्रोफाइल से मेल खाता है, और उसके बयान के आधार पर ही पुलिस को खून से सने कपड़े बरामद करने में मदद मिली थी.
मौत की सजा की पुष्टि करते हुए उच्च न्यायालय की दो-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि ‘बच्चियों के खिलाफ अपराध बढ़ते जा रहे हैं इसलिए… इस तरह के अपराधों में कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए.’
हाई कोर्ट ने आगे कहा, ‘जिस तरह पूरी सतर्कता और सोची-समझी साजिश के साथ इस अपराध को अंजाम दिया गया और जिस तरह से क्रूरता के साथ इसमें मानवता की सारी हदें पार कर दी गई, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि दोषी भविष्य में ऐसे और अपराधों को अंजाम दे सकता है और इसकी कोई संभावना नहीं है उसका सुधार या पुनर्वास किया जा सकता है.’
उच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया कि आरोपी ‘अपराध के समय लगभग 19 वर्ष की आयु का एक अविवाहित युवा’ था.
क्या कहता है कानून
किशोर न्याय (देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015 कुछ जघन्य अपराधों में 16-18 वर्ष के आयु वर्ग के किशोरों के खिलाफ वयस्कों की तरह मुकदमा चलाने की अनुमति देता है. जघन्य मामलों में उस तरह अपराध शामिल होते हैं जिनमें कानून के तहत न्यूनतम सात साल या उससे अधिक की सजा निर्धारित है.
किशोर न्याय अधिनियम, 2015 की धारा 18 के तहत, यदि किशोर न्याय बोर्ड (जेजेबी) पाता है कि 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चे ने जघन्य अपराध किया है, तो यह विभिन्न सजाएं सुना सकता है. हालांकि, ऐसे मामले में अधिकतम सजा तीन साल तक विशेष गृह में रखे जाने की है.
इसके साथ ही जेजेबी को यह भी सुनिश्चित करना होता है कि इस अवधि के दौरान बच्चे को सुधारने के लिए शिक्षा, कौशल विकास, काउंसिलिंग और मनोरोग सहायता आदि मिलती रहे.
किशोर न्याय अधिनियम की धारा 9 में कहा गया है कि कोई आरोपी कथित अपराध के समय किशोर होने संबंधी दावे को लेकर किसी भी कोर्ट के समक्ष और किसी भी चरण में, यहां तक कि मामले के अंतिम निस्तारण के बाद भी, याचिका दायर कर सकता है.
इसलिए, कानून किसी भी अभियुक्त को यह अनुमति देता है कि अपराध के समय बच्चा होने की स्थिति में वह अधिनियम के तहत मिलने वाले सभी लाभ उठा सकता है, भले ही मामले का अंतिम रूप से निपटारा हो चुका हो या फिर इस छूट के लिए दावा करते समय दोषी भले ही बालिग क्यों न हो गया हो.
इसमें यह भी कहा गया है कि अगर अदालत को पता चलता है कि अपराध को अंजाम देते समय कोई व्यक्ति नाबालिग था, तो वह उसे किशोर न्याय बोर्ड के पास भेज देगी, और अगर अदालत ने बच्चे को कोई सजा सुनाई है, तो उसे ‘निष्प्रभावी माना जाएगा.’
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सुप्रीम कोर्ट ने कैसे पाया कि अपराध के समय वह नाबालिग था
यद्यपि अभियुक्त की अपील सर्वोच्च न्यायालय में लंबित थी, लेकिन उसने अपराध के समय नाबालिग होने का दावा करते हुए मार्च 2019 में किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के तहत छूट पाने के एक आवेदन दायर किया.
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 28 सितंबर को ट्रायल कोर्ट से इस बात की जांच के लिए कहा कि क्या वह घटना के समय किशोर था. शीर्ष अदालत के निर्देश में यह भी कहा गया कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए निचली अदालत सभी संबंधित दस्तावेजों पर विचार करने के साथ आरोपी का मेडिकल चेकअप भी कराए.
इस पर निचली अदालत ने पिछले साल अक्टूबर में 20 पन्नों की एक रिपोर्ट पेश की, जिसमें बताया गया कि आरोपी की जन्मतिथि 25 जुलाई 2002 है. इसलिए, वह घटना के समय उसकी उम्र 15 साल और चार महीने थी. यह तथ्य उसके अभिभावक, सरकारी प्राथमिक विद्यालय की वर्तमान प्रधानाध्यापिका, सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक और उसके स्कूल के पांच शिक्षकों के मौखिक बयान के आधार पर था. इसमें उसकी मार्कशीट, स्कूल छोड़ने का प्रमाणपत्र और स्कूल से मिले जन्म प्रमाणपत्र जैसे अन्य दस्तावेजों का भी हवाला दिया गया था.
इसके जवाब में, मध्य प्रदेश सरकार ने मांग की कि उसकी उम्र निर्धारित करने के लिए एक मेडिकल बोर्ड से अस्थि परीक्षण (हड्डियों के आधार पर उम्र निर्धारित करने की प्रक्रिया) कराया जाए.
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पिछले फैसलों का संदर्भ दिया कि क्या होगा जब पहले ही दोषी ठहराए जा चुके एक आरोपी को 2015 के कानून के तहत नाबालिग माना जाएगा.
शीर्ष अदालत ने जोर देकर कहा कि किसी सत्र अदालत में चले मुकदमे और उस मामले में सुनाई गई सजा को गलत नहीं माना जाएगा, भले ही जिस व्यक्ति पर मुकदमा चलाया गया है, वह अपराध के समय नाबालिग पाया जाए. इसमें कहा गया है कि कानून का उद्देश्य दोषी करार दिए गए ऐसे किसी व्यक्ति को सजा के हिस्से के संदर्भ में राहत पहुंचाना है जो अपराध के समय नाबालिग पाया जाता है.
इसके बाद अदालत ने फैसला सुनाया, ‘अपीलकर्ता को इस मामले में दोषी माना जाता है. हालांकि, उसे मिली सजा को खत्म किया जा रहा है… उसे तुरंत रिहा कर दिया जाए.’
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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