नई दिल्ली: गुजरात में पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) में कमियां पाए जाने के बाद सोडा ऐश निर्माण संबंधी एक संयंत्र को फिलहाल मंजूरी देने से इनकार कर दिया गया है. पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफ और सीसी) की वेबसाइट पर उपलब्ध दस्तावेजों के मुताबिक इस परियोजना से व्यापक स्तर पर प्रदूषण बढ़ने और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा उत्पन्न होने की आशंका है.
डालमिया समूह की एक इकाई गुजरात हेवी केमिकल्स लिमिटेड (जीएचसीएल) की तरफ से प्रस्तावित परियोजना के तहत कच्छ के तट से कुछ दूर मांडवी तालुका के गांव बाड़ा में एक विशाल सोडा ऐश निर्माण इकाई की जानी थी. सोडा ऐश का उपयोग डिटर्जेंट, कांच और मिट्टी के पात्र बनाने में किया जाता है.
कंपनी के दस्तावेजों के मुताबिक, परियोजना की अनुमानित लागत 3,500 करोड़ रुपये है. बताया जा रहा है कि इससे वायु प्रदूषण काफी ज्यादा बढ़ने के साथ ही तमाम तरह के अपशिष्ट अरब सागर में पहुंचने की भी आशंका है.
पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया के तहत जीएचसीएल ने 24 नवंबर को केंद्र सरकार को लोगों की टिप्पणियों के साथ अपनी ईआईए रिपोर्ट पेश की थी.
हालांकि, विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (ईएसी) के सदस्य सचिव एम. रमेश ने 7 दिसंबर को ये प्रस्ताव लौटा दिया और प्रोजेक्ट को आगे मंजूरी देने से पहले कंपनी से और अधिक ब्योरा देने को कहा.
ईएसी केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त निकाय है और पर्यावरणीय मंजूरी के लिए सिफारिश करने से पहले परियोजनाओं की समीक्षा का जिम्मा यही समिति संभालती है.
नाम न छापने की शर्त पर ईएसी के एक सदस्य ने दिप्रिंट को बताया, ‘ईएसी ने फिलहाल इस प्रस्ताव पर चर्चा नहीं की है क्योंकि कंपनी से और ब्योरा देने को कहा गया है. उनसे ईआईए अधिसूचना में निर्धारित बिंदुओं के आधार पर जानकारी मांगी गई है, और उन्हें आवश्यक दस्तावेजों के साथ जवाब देना होगा.’ साथ ही जोड़ा, ‘एक बार सही दस्तावेज मिलने के बाद इस पर ईएसी में आगे आगे चर्चा हो सकती है. यदि वे उपयुक्त दस्तावेज पेश नहीं कर पाए तो परियोजना को सूची से बाहर किया जा सकता है.’
स्थानीय निवासी और पर्यावरण कार्यकर्ता महीनों से यह कहते हुए परियोजना का विरोध कर रहे हैं कि इससे क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा. साथ ही, पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) के लिए अपनाए गए तरीके में खामियां होने का आरोप भी लगा रहे हैं. उनका दावा है कि पर्यावरण प्रभाव का आकलन करने वाली एजेंसियों राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (नीरी) और राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान (एनआईओ) को इसके लिए उचित मान्यता हासिल नहीं है.
इस पर मंत्रालय की समिति ने जीएचसीएल से दोनों एजेंसियों के मान्यता संबंध प्रमाणपत्र मांगे हैं.
नेशनल एक्रिडिशन बोर्ड की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, नीरी और एनआईओ दोनों ही सोडा ऐश उद्योग के लिए ईआईए अध्ययन करने के लिए अधिकृत नहीं हैं.
दिप्रिंट ने फोन कॉल और मैसेज के जरिये जीएचसीएल के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर एन.एन. राडिया से संपर्क साधने की कोशिश की और उनके जनसंपर्क प्रतिनिधि और मीडिया प्रभारी को ईमेल भी भेजा. लेकिन अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है. जवाब आने पर रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.
लेकिन द प्रोब को दिए एक बयान में जीएचसीएल ने कहा कि वह ‘अपने सभी हितधारकों के हितों को पूरा महत्व देने को प्रतिबद्ध है, जिसमें समाज, वेंडर, ग्राहक, कर्मचारी और निवेशक शामिल हैं.’
बयान में कहा गया है, ‘समाज के लिए, जीएचसीएल फाउंडेशन ट्रस्ट स्वास्थ्य सेवा, कृषि और पशुपालन, शिक्षा और कौशल विकास के क्षेत्रों में विभिन्न सीएसआर गतिविधियों को अंजाम दे रहा है. हमारे परिचालन क्षेत्रों के आसपास रहने वाले तीन लाख से अधिक लोगों पर हमारी विभिन्न पहल का सकारात्मक असर भी पड़ा है.’
‘त्रुटिपूर्ण’ पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन
बाड़ा गांव के आसपास के क्षेत्र में दूर-दूर तक फैले घास के मैदान हैं और तमाम वनस्पतियां भी पाई जाती हैं. प्रोजेक्ट के लिए प्रस्तावित स्थल से एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर समुद्र तट है. स्थानीय लोगों का कहना है कि यहां अब तक कोई औद्योगिक गतिविधियां नहीं देखी गई हैं, और अधिकांश निवासी कृषि पर निर्भर हैं.
मुंबई और बाड़ा के बीच आते-जाते रहने वाले बाड़ा गांव के निवासी भारत गाला ने फोन पर दिप्रिंट को बताया, ‘जहां हम रहते हैं वहां बिल्कुल भी प्रदूषण नहीं है और हम चाहते हैं कि यह जगह इसी तरह बनी रहे.’
उन्होंने बताया कि स्थानीय लोगों ने सामूहिक तौर पर नेशनल एक्रिडिशन बोर्ड—जो भारत में उच्च शिक्षण संस्थानों को मान्यता प्रदान करने वाली दो प्रमुख एजेंसियों में से एक है—के समक्ष नीरी और एनआईओ को मान्यता न होने को लेकर शिकायत दर्ज कराई थी.
उन्होंने कहा कि इस पर एनएबी की तरफ से 1 दिसंबर को दिए गए जवाब में इस मामले पर गौर करने का आश्वासन दिया गया है.
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, पर्यावरण समिति ने मान्यता प्रमाणपत्रों के अलावा जीएचसीएल को तटीय और वन मंजूरी के प्रमाण पेश करने को कहा है, साथ ही 25 नवंबर को हासिल सार्वजनिक टिप्पणियों का अंग्रेजी में अनुवाद कराने को भी कहा है. सार्वजनिक टिप्पणियां अभी राज्य प्रदूषण बोर्ड की वेबसाइट पर गुजराती में उपलब्ध हैं.
अक्टूबर 2018 और जनवरी 2019 के बीच आयोजित ईआईए के मुताबिक, बाड़ा के तट पर कोई कछुआ नहीं देखा गया. लेकिन स्थानीय लोगों ने इस दावे का कड़ा विरोध किया है.
वन्यजीव प्रेमी और नजदीकी गांव कठदा निवासी वलजी जसराज गढ़वी ने बिना तारीख वाले एक पत्र में गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को लिखा था कि क्षेत्र में विभिन्न लुप्तप्राय प्रजातियों—चिंकारा, लकड़बग्घा और कैराकल से लेकर कांटेदार पूंछ वाली छिपकली तक—को पाया जा सकता है.
उन्होंने ‘सबूत’ के के तौर पर कुछ तस्वीरें और पिछली सरकारी रिपोर्ट भी भेजी है.
इस साल मार्च में गढ़वी की तरफ से दायर एक आरटीआई के जवाब के मुताबिक, स्थानीय वन विभाग ने 2011 और 2021 के बीच 8,548 समुद्री कछुए के अंडे बचाए हैं.
दिप्रिंट ने पत्र और आरटीआई के जवाब देखे हैं.
गढ़वी का दावा है कि यह इलाका लुप्तप्राय ओलिव रिडले और हरे समुद्री कछुओं के लिए घोंसला बनाने वाला एक स्थान है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘यह भी हैरानी की बात है कि ईआईए में मोर का जिक्र ही नहीं है, जबकि क्षेत्र में कम से कम 500 मोर हैं. यह एक साफ समुद्र तट है. लुप्तप्राय हरे समुद्री कछुए यहां अपने अंडे देने आते हैं. कोई प्रदूषणकारी संयंत्र स्थापित किए जाने से यह वन्यजीवन नष्ट हो जाएगा.’
परियोजना के तहत वन्यजीव संरक्षण योजना में क्षेत्र में कुछ वन्यजीवों की उपस्थिति को स्वीकारा गया है. हालांकि, रिपोर्ट में यह दावा भी किया गया कि इसके ‘प्राथमिक आकलन’ से पता चलता है कि प्रस्तावित परियोजना स्थल के पास का तट कछुओं के घोंसले के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता है क्योंकि यह ‘संकीर्ण और व्यापक ज्वारीय क्षेत्र है, और साथ ही खड़ी ढलान, सघन वनस्पतियों, और कुत्तों और सियार जैसे शिकारी जीवों की वजह से भी यह जगह उपयुक्त नहीं हो सकती.’
जीएचसीएल के प्लान में आगे कहा गया है, ‘हालांकि, हमारे आकलन से पता चलता है कि यहां समुद्री कछुए के घोंसले बनाने की थोड़ी-बहुत या फिर नगण्य संभावना ही हो सकती है, लेकिन विशेषज्ञ के माध्यम से अध्ययन क्षेत्र में समुद्री कछुए के घोंसले की सटीक स्थिति का पता लगाने के लिए एक उचित व्यवस्थित अध्ययन किया जाएगा.’
वायु प्रदूषण फैलने का भी जोखिम
योजना के मुताबिक, स्थानीय वन्यजीवों को होने वाले खतरों के अलावा, संयंत्र से प्रति वर्ष 11 लाख टन लाइट सोडा ऐश, 5 लाख टन डेंस सोडा ऐश और 2 लाख टन सोडियम बाइकार्बोनेट का उत्पादन होने का अनुमान है. इसके संचालन के लिए कोयला या लिग्नाइट चालित बिजली संयंत्र होगा, जिससे क्षेत्र में काफी ज्यादा प्रदूषण फैलने की आशंका है.
कंपनी की भूमिगत पाइप बिछाने की भी योजना है.
गुजरात के एक पर्यावरण शोधकर्ता ध्वनि शाह ने कहा, ‘जीएचसीएल की भूमिगत इनटेक और आउटफॉल पाइप बिछाने की भी योजना है जिसके जरिये अपशिष्ट और पानी छोड़ा जाएगा. इससे निकलने वाला पानी सामान्य तापमान से कम से कम 5 डिग्री अधिक गर्म ही होगा. निश्चित तौर पर यह न केवल समुद्री कछुओं के घोंसले पर बल्कि तटवर्ती क्षेत्र में मछली के घोंसले पर भी गंभीर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा.’
ऊपर उद्धृत निवासी, गाला ने कहा कि 17 अक्टूबर को आयोजित एक सार्वजनिक परामर्श स्थानीय समुदाय की तरफ से जताई गई आपत्तियों के कारण 11 घंटे से अधिक समय तक चला.
पूर्व में ईआईए में ‘खामियों’ पर कैग ने जताई नाराजगी
यह पहला मौका नहीं है कि ईआईए प्रक्रिया जांच के दायरे में आई है—दरअसल, सोडा ऐश परियोजना को लेकर लग रहे आरोपों ने पर्यावरण और तटवर्ती क्षेत्रों को लेकर क्लीयरेंस प्रोसेस की खामियों को ही उजागर किया है.
8 अगस्त को भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने प्रक्रिया के तहत निरीक्षण पर एक रिपोर्ट जारी की. कैग ने अपने निष्कर्षों में कहा कि ईआईए सलाहकारों के पास मान्यता की कमी के बावजूद परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है, जैसा आरोप मौजूदा मामले में भी लग रहा है.
कैग ने पर्यावरण मंजूरी के ऐसे 14 मामलों को सामने रखा जब पर्यावरण प्रभाव आकलन जैव विविधता हॉटस्पॉट की पहचान में विफल रहा, और अन्य 12 ऐसे मामले भी बताए जहां ईआईए पुराने डेटा पर निर्भर था.
कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस तरह से उल्लंघन हो रहा है, उसे देखते हुए इस प्रक्रिया पर ‘अमल के तरीके का ही आकलन किए जाने की जरूरत’ नजर आ रही है.
(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: अलमिना खातून)
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