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Tuesday, 5 November, 2024
होमदेशजमीनी या सांकेतिक? महाराष्ट्र की महिला नेताओं ने स्थानीय निकायों में कोटा के साथ कैसा प्रदर्शन किया है

जमीनी या सांकेतिक? महाराष्ट्र की महिला नेताओं ने स्थानीय निकायों में कोटा के साथ कैसा प्रदर्शन किया है

जबकि महिला आरक्षण विधेयक अभी संसद में पेश किया गया है, लेकिन महाराष्ट्र में महिलाओं के लिए स्थानीय शासन कोटा 3 दशकों से था. इसने कई तेजतर्रार नेता पैदा किए, लेकिन लैंगिक भेदभाव अभी भी मौजूद है.

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मुंबई: मुंबई में तत्कालीन अविभाजित शिवसेना की एक मजबूत आवाज विशाखा राउत ने 1992 में जब नगरसेवक के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी, तब उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी. पांच साल के भीतर, वह मुंबई के नागरिक निकाय, बृहन्मुंबई नगर निगम के मेयर के पद तक पहुंच गईं. उनके मुताबिक ऐसा करने वाली वह अपनी पार्टी की पहली महिला थीं.

राउत दिप्रिंट से कहती हैं, “जब मैं मेयर बनी तो मुझे दिग्गजों के सामने बोलने से भी डर लगता था. मुझे कुछ पता नहीं था और मैं एक रसोई से निकलकर मेयर के पद पर पहुंची थी. हलांकि, धीरे-धीरे मैंने सारे गुर सीख गए. किसी ने हमें कुछ नहीं सिखाया. हमने बैठकों में भाग लेकर और सड़क पर रहकर सबकुछ सीखा.”

जहां संसद में ऐतिहासिक महिला आरक्षण विधेयक के पारित होने को महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक बड़ा कदम बताया जा रहा है, वहीं महाराष्ट्र ने 1990 के दशक में ही ऐसा कदम उठाया था. यह शहरी स्थानीय प्रशासन में महिलाओं को आरक्षण देने वाले पहले कुछ राज्यों में से एक था. 1994 में जहां महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था वहीं 2011 में बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया गया था.

महाराष्ट्र नगर निगम और नगर पालिका अधिनियम संख्या XIII के अनुसार, 1990 में बीएमसी के पास 30 प्रतिशत कोटा था. यदि यह आरक्षित सीट नहीं होती, तो विशाखा राउत – जो अब शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) का हिस्सा हैं – को चुनावी राजनीति में अपना रास्ता खोजने में अधिक समय लग सकता था.

सिर्फ राउत ही नहीं, किशोरी पेडनेकर, स्नेहल अम्बेकर, स्वप्ना म्हात्रे, नेत्रा शिर्के, लीना गराड और माधुरी मिसाल कुछ ऐसी महिला पार्षद हैं जो अक्सर सुर्खियों में रही हैं. इनके द्वारा कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए हैं.

पिछले कुछ सालों में, महिला पार्षदों ने कई मुद्दे उठाए हैं – पानी की मीटर से लेकर पार्किंग के मुद्दे और सड़कों की मरम्मत तक. उनकी मौजूदगी से फर्क पड़ता है कि वे महिला-केंद्रित मुद्दों को संवेदनशीलता और बेहतर समझ के साथ उठा सकती हैं, जिससे बेहतर नीतियों पर काम करने में मदद मिल सकती है.

दिप्रिंट ने जिन महिला नेताओं से बात की, उन्होंने बताया कि हालांकि राज्य कोटा ने कुछ मजबूत आवाज़ों को आकार दिया है, लेकिन बिना किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली महिलाओं को सीढ़ी पर चढ़ने और अपनी बात सुनने में कठिनाई होती है. उन्होंने कहा कि उनकी पार्टियों में बहुत कम सौंदर्यीकरण होता है और उन्होंने काम के दौरान सीखा है.

नवी मुंबई से बीजेपी नेता मंदा म्हात्रे ने कहा कि यह केंद्रीय विधेयक – जो लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करेगा – युवाओं के लिए इसे आसान बना देगा. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “मैं बूढ़ी हो गई हूं लेकिन यह बिल युवा महिला नेताओं को उनके सपनों को साकार करने और उनके लक्ष्य हासिल करने में मदद करेगा.”

म्हात्रे ने आगे कहा कि उन्होंने काफी लंबी यात्रा की है. पार्षद से लेकर निगम में विभिन्न पदों पर रहने और अब लगातार दो बार विधायक बनने तक का सफर पूरा किया है.

उन्होंने कहा, “मेरा कोई गॉडफादर नहीं था. जो लोग राजनीतिक पृष्ठभूमि से हैं उन्हें आसानी से अवसर मिल सकते हैं. मैंने 17-18 साल तक एनसीपी में काम किया लेकिन बीजेपी ने मुझ पर भरोसा दिखाया. राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली युवा महिलाएं, जैसे अदिति तटकरे, पंकजा मुंडे और सुप्रिया सुले… ये महिलाएं मंत्री, सांसद बनीं, लेकिन हम जैसी महिलाओं को अभी भी संघर्ष करना पड़ता है. इसलिए यह आरक्षण युवा पीढ़ी को मदद करेगा.”

वह कहती हैं कि पितृसत्ता अभी भी काफी हद तक लोगों में व्याप्त है और कुछ मामलों में महिला नेताओं को अक्सर अपने महत्वाकांक्षी पतियों के लिए रबर स्टांप के रूप में देखा जाता है. कभी-कभी इन आरक्षित सीटों पर उम्मीदवार की पसंद को भी निर्धारित किया जाता है.

दिप्रिंट ने जिन विशेषज्ञों से बात की, उनका भी मानना ​​है कि महज आरक्षण से जमीनी स्तर पर स्थिति नहीं बदली है. नागपुर स्थित गैर सरकारी संगठन, स्वच्छ एसोसिएशन की अध्यक्ष अनुसूया काले छबरानी ने कहा, “ज्यादातर समय, महिलाओं को अपनी राय स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने की अनुमति नहीं है. यह पार्टी या उनके पुरुष रिश्तेदार हैं जो उनका मार्गदर्शन करते हैं. इस पर जांच होनी चाहिए कि इनमें से कितनी निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों ने स्वयं नीतिगत निर्णय लिए हैं.”

यहां तक ​​कि नागरिक प्रशासन के मुद्दों पर काम करने वाले मुंबई स्थित गैर सरकारी संगठन प्रजा फाउंडेशन के सीईओ मिलिंद म्हस्के ने भी कहा कि महिलाओं को आरक्षण देना सशक्तिकरण के बड़े मुद्दे का एक अल्पकालिक दृष्टिकोण है. उन्होंने कहा, “सशक्तीकरण और आरक्षण साथ-साथ नहीं चलते. सशक्तिकरण तब होगा जब जमीनी स्तर पर हिस्सेदारी और भागीदारी होगी.”


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महाराष्ट्र की राजनीति में महिलाएं

1992 में संविधान के 73वें-74वें संशोधन के बाद स्थानीय निकायों और पंचायतों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत कोटा का प्रस्ताव महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने 1994 में राज्य भर के स्थानीय निकायों में इसे पेश किया. महाराष्ट्र संभवतः यह ऐसा करने वाला पहला राज्य बन गया.

2011 में तत्कालीन पृथ्वीराज चव्हाण सरकार ने उस कोटा को बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया. आज की तारीख में, 20 राज्यों में अपने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण है. महाराष्ट्र स्वयं 2012 के चुनावों के बाद से अपने स्थानीय निकायों में आधी सीटों पर महिलाओं को भेज रहा है.

सालों से महिलाएं अपने जेंडर से जुड़े मुद्दे उठाती रही हैं. 2013 में पूर्व बीजेपी नगरसेविका रितु तावड़े ने दुकानों के सामने लगाए गए आधे कपड़े पहने महिलाओं की तस्वीरों को हटाने के लिए बीएमसी में एक प्रस्ताव लाया था. हालांकि इससे कुछ नहीं हुआ. 2019 में इस मुद्दे को दोबारा एक बार फिर से शिवसेना पार्षद शीतल म्हात्रे ने उठाया. 2017 में, म्हात्रे ने महिलाओं के लिए मासिक धर्म की छुट्टी की मांग करते हुए बीएमसी में प्रस्ताव का नोटिस उठाया था.

बीजेपी नेता और नवी मुंबई की पूर्व पार्षद नेत्रा शिर्के ने दिप्रिंट से कहा, “कुछ विषय महिलाओं के बारे में होते हैं जिन्हें केवल महिलाएं ही समझती हैं.”

2016 में, नवी मुंबई नगर निगम में स्थायी समिति के अध्यक्ष के साथ-साथ महिला और बाल समिति के अध्यक्ष के रूप में शिर्के ने घरेलू मदद, उनके बच्चों की शिक्षा या उनकी बेटियों की शादी के लिए निवेश के मुद्दे उठाए थे.

उन्होंने कहा था, “एक मां के रूप में, मुझे पता है कि मेरे बच्चे को क्या चाहिए. और एक महिला के रूप में, मुझे पता होगा कि दूसरी महिला क्या चाहती है…महिलाएं जानती हैं कि बजट का प्रबंधन कैसे किया जाता है, जो तब काम आया जब मैं स्थायी समिति की अध्यक्ष थी.”

शिर्के ने स्वच्छता के मुद्दों पर भी काम किया और कहा कि एक महिला के रूप में यह समझना आसान था कि अगर कचरा इकट्ठा करने वाला ट्रक समय पर नहीं आता है तो क्या होता है. उन्होंने ‘शी-टॉयलेट कॉन्सेप्ट’ पर भी काम किया, जो विशेष रूप से महिलाओं के लिए एक प्रकार का शौचालय था.

उन्होंने कहा, “अगर बाबासाहेब अंबेडकर ने हमें समान रूप से मतदान का अधिकार दिया तो फिर कौन होते हैं जो हमें चुनाव लड़ने का समान अधिकार नहीं देते.”

नवी मुंबई में एनसीपी पार्षद के रूप में काम करने वाली शीतल म्हात्रे ने कहा कि उन्होंने महिला स्वयं सहायता समूहों और सार्वजनिक शौचालयों में सैनिटरी नैपकिन वेंडिंग मशीनें लगाने के लिए काम किया.

शिवसेना (यूबीटी) नेता और मुंबई की पूर्व मेयर किशोरी पेडनेकर ने दिप्रिंट से कहा, “जब आपको काम करने का अवसर मिले, तो इसका अधिकतम लाभ उठाएं. तुम्हें मेरी कलाई पर घड़ी नहीं मिलेगी. मैं अपने लोगों के लिए किसी भी समय उपलब्ध हूं. लेकिन प्रशासन द्वारा नगरसेवकों को सपोर्ट न करना एक चुनौती बनी हुई है.”

मुंबई के माटुंगा से पहली बार बीजेपी पार्षद नेहल शाह ने दिप्रिंट को बताया कि लैंगिक भेदभाव अभी भी मौजूद है. उन्होंने कहा, “हम सभी जानते हैं कि पितृसत्ता अभी भी मौजूद है और यह आम धारणा है कि महिलाएं पुरुषों से थोड़ी कमतर हैं. इस सोच को बदलने की जरूरत है लेकिन जब तक लोग हमारी क्षमताओं को नहीं जानते, हमें खुद को साबित करना होगा.”

म्हात्रे ने दोहराया कि बिना किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली महिलाओं के लिए और पुरुषों के लिए उनकी बात सुनना मुश्किल है. उन्होंने कहा, “मैंने कई बार इसका सामना किया है. वे या तो अपने परिवार से किसी को चाहते हैं, अन्यथा किसी महिला के आदेश का पालन करना उनके लिए मुश्किल हो जाता है.”

स्वच्छ एसोसिएशन की अनुसूया छाबरानी ने सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि यह ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है. उन्होंने कहा, “यह एक शहरी समस्या है. यह उस समय केवल प्रतीकात्मकता है. चाहे नागपुर हो, मुंबई हो, पुणे हो, उनमें से ज्यादातर (महिला पार्षद) प्रॉक्सी हैं. बहुत कम महिलाएं अपनी राय व्यक्त करने और वही करने में सक्षम हैं जो वे चाहती हैं. जब तक महिलाओं को नीति और निर्णय लेने में खुली छूट नहीं दी जाती, मुझे नहीं लगता कि यह शब्द के सही अर्थों में सशक्तिकरण है.”


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पार्टियों की भूमिका

दिप्रिंट ने जिन महिला नेताओं से बात की, उनमें से अधिकांश ने कहा कि उन्होंने या तो अपने आप से सीखा है, या अपने वरिष्ठों से थोड़ा बहुत सहयोग लेकर या फिर बिना किसी सहयोग के.

विशाखा राऊत, जो अपनी मजबूत महिला कैडर के लिए जानी जाने वाली शिवसेना से आती हैं, कोई अपवाद नहीं थीं. उन्होंने कहा कि एक सरकारी संस्थान, अखिल भारतीय स्थानीय स्वशासन संस्थान ने उन्हें प्रशिक्षित किया है, लेकिन “चाहे आप कितना भी सिद्धांत सीख लें, आपको व्यावहारिक ज्ञान की जरूरत होती है. दुर्भाग्य से किसी भी पुरुष पार्षद ने हमें नहीं सिखाया. वे हमारे आस-पास थोड़े असुरक्षित थे.”

उनकी सहयोगी पेडनेकर इससे सहमत दिखी. उन्होंने कहा, “मुझे केवल यह कहना है कि वरिष्ठ नेताओं को पार्टी से टिकट देने के लिए जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं की तलाश करनी चाहिए. उन महिलाओं को टिकट दिया जाता है जिनके पति चुनाव लड़ना चाहते हैं, लेकिन कोटा के कारण नहीं लड़ सकते. उन प्रतिनिधियों को सच में ज्ञान नहीं है. एक पार्टी कार्यकर्ता जमीनी स्तर से जुड़ा हुआ होगा तो बेहतर प्रशासन करने में सक्षम होगा.”

आम तौर पर हर पार्टी में एक महिला विंग या एक समर्पित समूह होता है. महाराष्ट्र में शिवसेना महिला अघाड़ी ने कई तेजतर्रार नेताओं को जन्म दिया है और हल्दी कुमकुम और महिलाओं के लिए प्रतियोगिताओं जैसे विभिन्न कार्यक्रमों के आयोजन में सक्रिय है. इनमें से ज्यादातर महिलाएं मुद्दों को लेकर धरना-प्रदर्शन भी करती रहती हैं.

माना जाता है कि शिवसेना (यूबीटी) में उद्धव ठाकरे की पत्नी रश्मी ठाकरे पार्टी की महिलाओं का हाथ थाम रही हैं.

शिर्के ने कहा, “इन सबके कारण, महिलाओं का आत्मविश्वास स्तर बढ़ जाता है. सक्रिय राजनीति में होने के कारण, वे किसी पार्टी, निगम के कामकाज को समझती हैं, भले ही उन्हें इससे पहले इसको लेकर कोई अनुभन न हो.”

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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