नई दिल्ली: विस्तारित पहुंच ड्रिलिंग (ईआरडी) के लिए ‘सैद्धांतिक मंज़ूरी’ देने के महीनों बाद- जो वन क्षेत्रों में तेल और गैस निकालने का एक तरीक़ा होता है- केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) की वन सलाहकार समिति (एफएसी) ने सिफारिश की है कि अंतिम निर्णय लेने से पहले और स्टडीज किए जाने की जरूरत है.
एफएसी की ताज़ा बैठक की मिनट्स के अनुसार, जो 1 अगस्त को हुई, भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) ने, जो एमओईएफसीसी के अंतर्गत एक स्वायत्त सरकारी संस्था है, समिति को वन्यजीव गलियारों में खुदाई के प्रति आगाह किया, और सलाह दी कि ईआरडी के प्रभावों के और अधिक आंकलन की जरूरत है.
ईआरडी के जरिए तेल और गैस निकालने में क्षितिज के समानांतर एक कुआं खोदा जाता है, जिसका ढाल इतना होता है कि वो अपनी गहराई के मुक़ाबले लंबाई में कम से कम दो गुना होता है, जिससे तेल निकालने की जगह से थोड़ी दूरी पर खुदाई की जा सकती है.
डब्ल्यूआईआई ने जो 10 सिफारिशें की हैं, उनमें एक ‘सक्रिय ध्वनि के बिना समाधान लगाना शामिल है जिससे कि स्थानीय आवास और वन्य जीवन पर असर से बचा जा सके’, और एक ऐसी व्यापक योजना बनाने की बात की गई है जिससे खुदाई की जगह पर प्रकाश प्रदूषण को कम किया जा सके’.
डब्ल्यूआईआई ने ये भी कहा कि संरक्षित क्षेत्रों तथा वन्यजीव गलियारों के एक किलोमीटर के भीतर खुदाई की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. उसने आगे कहा कि ये रेंज केवल ‘एहतियाती सिद्धांत’ पर आधारित है, और ‘सही दूरी की सिफारिश एक विस्तृत स्टडी के आधार पर ही की जानी चाहिए’.
डब्ल्यूआईआई ने आगे कहा कि खुदाई का काम चरम वन्यजीव गतिविधियों के समय पर नहीं किया जाना चाहिए, जैसे कि सुबह सवेरे और शाम के समय. उसने ये भी कहा कि सभी ऑपरेशंस खुदाई स्थल तक ही सीमित होने चाहिए, और ‘तमाम सहायक इन्फ्रास्ट्रक्चर महत्वपूर्ण वन्यजीव आवासों से काफी दूरी पर होना चाहिए’.
31 मार्च को हुई एक बैठक में एफएसी ने ईआरडी के लिए सैद्धांतिक मंज़ूरी दे दी थी, जो हाइड्रोकार्बंस महानिदेशालय की एक रिपोर्ट पर आधारित थी- जो पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के अंतर्गत आता है- कि प्रस्तावित खुदाई संरक्षित क्षेत्रों से कम से कम एक किलोमीटर की दूरी पर होनी चाहिए.
अब ताज़ा सिफारिशों के बाद एफएसी ने वन्यजीव संस्थान को निर्देश दिया है कि वो हाइड्रोकार्बंस महानिदेशालय के साथ सहयोग करे, और ‘मौजूदा स्थलों से प्राथमिक डेटा एकत्र करे, जहां ईआरडी तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है’, और फिर तीन महीने के भीतर एक रिपोर्ट तैयार करके दाख़िल करे.
लेकिन, कुछ पर्यावरणविदों ने चिंता ज़ाहिर की है कि ईआरडी के प्रभावों को समझने में, ये तरीक़ा नाकाफी साबित हो सकता है.
‘आंकलन का ये तरीका जोखिम से भरा है, क्योंकि इसे कोई तकनीकी इकाई अंजाम नहीं दे रही है. भारतीय वन्यजीव संस्थान या हाइड्रोकार्बंस महानिदेशालय के पास न तो खुदाई में विशेषज्ञता है, और न ही उन्हें ये पता है कि भूजल संसाधनों जैसी चीज़ों पर इसके क्या प्रभाव हो सकते हैं’. ये कहना था भूविज्ञानी श्रीधर राममूर्ति का, जो एनवायरोनिक्स ट्रस्ट के प्रबंध ट्रस्टी भी हैं. ‘बहुत ज़रूरी है कि ईआरडी के मूल्यांकन के लिए किसी तकनीकी इकाई को लाया जाए’.
यह भी पढ़ें: दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में चार गुना तेजी से गर्म हो रहा है आर्कटिक: फिनिश स्टडी
वन क्षेत्रों में ERD के बारे में चिंताएं
एफएसी एक साल से इस पर विचार कर रही है कि क्या वन क्षेत्रों में ईआरडी की अनुमति दी जाए.
मार्च में जब समिति ने सैद्धांतिक मंज़ूरी दी थी, तो उसने कहा था कि टेक्नोलॉजी वन्यजीव पर कोई ‘सीधा असर नहीं डालती’, लेकिन इसके कुछ ‘परोक्ष’ परिणाम हो सकते हैं, जैसे जंगल की आग और मिट्टी प्रदूषण आदि. उसने कहा कि भारतीय वन्यजीव संस्थान की मंज़ूरी मिलने के बाद एक ‘अंतिम निर्णय’ लिया जा सकता है.
गौरतलब है कि पिछले साल अक्टूबर में केंद्रीय मंत्रालय ने प्रस्ताव दिया था कि ईआरडी को वन (संरक्षण) अधिनियम, या एफसीए के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा जाए– वो क़ानून जो वनों में होने वाली गतिविधियों को नियंत्रित करता है- और उसने ईआरडी को ‘पर्यावरण के अनुकूल’ टेक्नॉलॉजी करार दिया. इस बारे में कोई अंतिम फैसला लिया जाना अभी बाक़ी है.
मार्च की बैठक में हाइड्रोकार्बंस महानिदेशालय ने ये दलील भी दी थी कि ये एक्ट ईआरडी पर लागू नहीं होना चाहिए, चूंकि उसे ‘वन क्षेत्रों के बाहर से’ संचालित किया जाएगा, और इसलिए उनका ‘प्रभाव न्यूनतम’ होगा.
विशेषज्ञों को चिंता है कि पर्यावरणीय प्रभावों के अलावा, इस तरह की खुदाई पर अंतिम मंज़ूरी के नतीजे में एफसीए की ओर से निर्धारित मंज़ूरी प्रक्रिया में छूट दी जा सकती है. फिलहाल, ईआरडी के लिए परमिट केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा दिए जाते हैं.
(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)