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Friday, 8 November, 2024
होमदेशसरकार खुद को बचाने के लिए करती है आदिवासियों का इस्तेमाल

सरकार खुद को बचाने के लिए करती है आदिवासियों का इस्तेमाल

सुप्रीम कोर्ट में हुए इस घटनाक्रम के बाद से आदिवासियों के मन में एक तरह का भय बैठ गया है. और पहले से चली आ रही उनकी दुस्वारियों में और इजाफा हो गया है.

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नई दिल्ली: ‘हमारे यहां मक्के की खेती होती है. खेती में उपयोग होने वाला बीज हमें 500-800 रुपये में मिलता है. पानी और फसल उगाने में आने वाली अन्य समस्याओं को जोड़ लें तो कुल हज़ार रुपये से ऊपर लग जाता है. लेकिन जब हम मंडियों में मक्के को बेचने जाते हैं तो हमें उसके 50 रुपये भी नहीं मिलते हैं.’

तो फिर खर्चा कैसे चलता है आपका ?

‘बीज बोने के बाद हम अपना गांव छोड़कर मजदूरी करने सूरत या अहमदाबाद चले जाते हैं, उसके बाद फसल की कटाई के वक्त वापस गांव लौट आते हैं. मजदूरी से जो कुछ मिल जाता है उसी से गुजर कर लेते हैं.’

गुजरात के झालोद से आईं कविता देवी आदिवासी समुदाय की हैं. कविता उस राज्य से आती हैं जो देश का सबसे विकसित राज्य होने का दंभ भरता है. लेकिन कविता की परेशानियों को सुन कर समझ में आता है कि गुजरात के आदिवासी अभी भी मुख्यधारा से कटे हुए हैं. विस्थापना झेल रहे हैं.

कविता के साथ आए हीरालाल बताते हैं, ‘हमारे पास खेती करने के लिए खुद की जमीन भी नहीं है. ये अलग बात है कि फॉरेस्ट राइट एक्ट 2006 आने के बाद से वन विभाग वाले हमें तंग नहीं करते हैं. लेकिन हमें यह बात चुभती है और डराती भी है कि हमें सरकार कभी भी बेदखल कर सकती है.’

समस्याएं केवल जमीन और खेती की नहीं है, बल्कि दिक्कतें मूलभूत सुविधाओं से भी जुड़ी हैं. राजस्थान के बांसवाड़ा से आईं मीना बताती हैं, ‘हमें पानी भरने के लिए अपने गांव से कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. बिजली केवल 6 घंटे के लिए आती है.’

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बढ़ी हलचल

बता दें, बीते 13 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने आदिवासियों से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए देश के 16 राज्योंं के करीब 11.8 लाख आदिवासियों के जमीन पर कब्जे के दावों को खारिज करते हुए राज्य सरकारों को आदेश दिया कि वे मौजूदा कानूनों के मुताबिक जमीनें खाली कराएं. हालांकि 28 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासियों को जमीन से बेदखल करने वाले अपने फैसले पर रोक लगा दी है.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट में हुए इस घटनाक्रम के बाद से आदिवासियों के मन में एक तरह का भय बैठ गया है. और पहले से चली आ रही उनकी दुस्वारियों में और इजाफा हो गया है. जिसके बाद देश भर के आदिवासी जगह-जगह प्रदर्शन कर रहे हैं. कई तरह के सेमिनार आयोजित किए जा रहे, जिसमें आदिवासियों की समस्याओं को खुल कर सामने रखा जा रहा. ऐसा ही एक सेमिनार, एक गैरसरकारी संस्था ‘वाग्धारा’ के तत्वावधान में पिछले दिनों दिल्ली के कॉन्सटिट्यूशनल क्लब में आयोजित किया गया.

जिसमें संस्था के सचिव जयेश जोशी ने कहा, ‘हमारा लक्ष्य जनजातियों के प्राकृतिक अधिकारों की पुन: प्राप्ति का संघर्ष करना है. उनके साथ हो रहे सामाजिक और आर्थिक अन्याय से उन्हें उभारना है. बाजारीकरण के जिन दुष्प्रभावों से आदिवासियों के बच्चों का बचपन, आजीविका, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित कर दिया गया है, उसे एक जीवंत अधिकार के रूप में वापस लौटाना है.’

कार्यक्रम में सलिल शेट्टी भी मौजूद थे. एमनेस्टी इंटरनेशनल के महासचिव रह चुके सलिल पिछले कई सालों से सामाजिक कार्यों में जुटे हैं.

सलिल शेट्टी कहते हैं, ‘हमारे देश की बुनियाद पिछली तीन-चार हज़ार सालों से जाति पर है. जहां उच्च जाति के लोग हैं, दलित हैं, माइनॉरिटी हैं. उसमें आदिवासी कहीं हैं ही नहीं. एक तरह से देखा जाए तो हमारा देश मौलिक रूप से असमान है.’

संंयुक्त राष्ट्र में बिताए अपने अनुभवों को साझा करते हुए वे कहते हैं, ‘वहां फ्रीडम फ्रॉम नीड (जरूरतों से आजादी) और फ्रीडम फ्रॉम फीयर (डर से आजादी) के उद्देश्य पर काम होता रहा है. लेकिन हमें एक और मुद्दे पर काम करना होगा और वह है फ्रीडम फ्रॉम ग्रीड (लालच से आजादी).

वे आगे बताते हैं,  ‘मैं पिछले 28 सालों तक विदेश में रहा और तब से लेकर अब तक देश में काफी कुछ बदलाव आ चुका है. लेकिन असामनता की खाई भी बढ़ती जा रही है. हमारे यहां अरबपतियों की संख्या विश्व में चौथी है. लेकिन हमारे देश के एक तिहाई बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. 28 साल पहले मानव विकास सूची में भारत 135वें नंबर पर था और अभी वो 131वें स्थान पर है.’

हमारे देश में फिर से एक क्रांति की जरूरत है लेकिन अब कोई भी कदम चुनाव बाद ही उठाना बेहतर होगा.’

आदिवासियों से जुड़ी समस्या के निदान के लिए कोई भी दल सामने नहीं आया है. बात चाहे भाजपा शासित राज्य हो या गैर भाजपाई राज्य की उनकी दुश्वारियां किसी भी शासन में कम नहीं हो रही है. ये अलग बात है कि 2006 में यूपीए सरकार द्वारा वन अधिनियम कानून लाया गया था. इस कानून के तहत पारंपरिक रूप से जंगल में निवास करने वाले प्रत्येक परिवारों को 4 एकड़ जमीन देने का प्रावधान किया गया था. केवल यही नहीं इसके अधिनियम की धारा 4(5) के तहत स्पष्ट रूप से समझाया गया है कि आदिवासियों को उनकी जमीन से बेवजह या जबरन बेदखल नहीं किया जाएगा. इस कानून के तहत अवैध रूप से जंगल से हटाए गए आदिवासियों को पुनर्स्थापन किया जाएगा.

लेकिन यह कानून अभी तक ठीक से लागू नहीं हो सका है और जिस तरह से वर्तमान सरकार विकास के खोखले दावे कर रही है, उससे का परिणाम है कि आदिवासी समुदाय अपनी जमीन, अपना जंगल और अपना नदी मांगने पर मजबूर है. उनके लिए विकास विनाश का काम करता है.

राजस्थान के बांसवाड़ा से आए और कल्पना संस्था से जुड़े, डॉ ओपी कुलहैरी कहते हैं,’ हमारी मांग यही है कि सरकार की परियोजनाओं का क्रियान्वन आदिवासी समुदाय की सामाजिक एवं भगौलिक रूप को देखकर किया जाए. इसके अलावा आदिवासियों के बच्चों से मुद्दों की चर्चा पंचायत, समीति, विधानसभा और लोकसभा में हो.’

चाहे राजस्थान हो या मध्यप्रदेश, गुजरात या छत्तीसगढ, देश के किसी भी राज्य के आदिवासी समुदाय को हमेशा से ठगा गया है. उनके जमीन को छीना गया और उन्हें हाशिए से उबारने की कोई भी कोशिश ढ़ग से नहीं हुई है. सरकारे यह मान कर चलती हैं कि विकास केवल सड़क बनाने और बिजली लाने ले आएगा लेकिन विकास इंसान के अस्तित्व और उनकी पहचान को बचाए बिना नहींं लाया जा सकता.

आदिवासी विकास मंच के अध्यक्ष मानसिंह कहते हैं, ‘आदिवासियों को लेकर सरकार के पास आंकड़े तो मिल जाएंगे लेकिन उनको लेकर हुए मानव विकास सूचकांक जिसमें उनकी स्थिति सुधरती दिखी, ऐसे कोई परिणाम नज़र नहीं आएंगे. सरकारे केवल अपने के बचाने के लिए आदिवासियों को आगे करती है.’

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