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Saturday, 21 December, 2024
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सरकार ने आदिम जनजातियों को किया बेघर, दो साल से रखा है सामुदायिक भवन में, जानिए इनका दर्द

जिस आदिम जनजाति को बचाने के लिए केंद्र की ओर से इस साल देशभर के राज्यों को 250 करोड़ रुपए मिले हैं, उनमें से एक की ये दशा खुद भाजपा शासित झारखंड सरकार ने की है.

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झारखंड/ गढ़वा : एक छोटा सा हॉल, चार छोटे कमरे और बीते दो साल से उसमें रह रहे 150 लोग. ये ऐसे लोग हैं जिनकी जनसंख्या पूरे झारखंड में मात्र 6,276 है. यानी विलुप्तप्राय बिरजिया आदिम जनजाति. दिनभर मजदूरी करना, शाम को मांड़-भात या साग-भात खाकर सो जाना. जिस आदिम जनजाति को बचाने के लिए केंद्र की ओर से इस साल देशभर के राज्यों को 250 करोड़ रुपए मिले, उनमें से एक की ये दशा खुद झारखंड सरकार ने की है. बताते हैं कैसे.

बूढ़ा पहाड़. रांची से 307 किलोमीटर दूर गढ़वा जिले का वो इलाका जहां झारखंड पुलिस खुद मानती है कि वहां आज तक उसकी पहुंच नहीं हो पाई है. जाहिर है, सरकार या सरकारी योजनाएं भी आज तक नहीं पहुंची होंगी. इसी इलाके में बीते साल 27 जून को हुए लैंड माइंस विस्फोट में झारखंड जगुआर के छह जवान शहीद हो गए थे.

बीते तीन साल पहले झारखंड पुलिस माओवाद को खत्म करने के लिए तथाकथित रूप से अंतिम धक्का लगाने की योजना बना रही थी. कई मुठभेड़ हुए, खुफिया सूचना मिली की माओवादी नेता व एक करोड़ रुपए के इनामी सुधाकरण (फिलहाल तेलंगाना में सरेंडर कर चुका है) अपने दस्ते के साथ वहां ठहरा हुआ है. इलाके को खाली कराने के लिए जोरदार अभियान चलाया गया.


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इसके तहत पुलिस ने झाउल डेरा, बीजा टोला और थलिहा टोला (छत्तीसगढ़) गांवों से कुल 48 बिरजिया आदिम जनजाति परिवारों के लगभग 150 लोगों को बूढ़ा पहाड़ से विस्थापित किया. उन्हें 20 किलोमीटर दूर गढ़वा जिले के बड़गड़ प्रखंड के मदगड़ी गांव में सीआरपीएफ कैंप से सटे एक सामुदायिक भवन में रखा गया. इसमें 39 परिवार झारखंड के थे और नौ परिवार छत्तीसगढ़ के हैं. इस इलाके से दोनों राज्यों की सीमाएं लगती हैं.

पहले घर छोड़ने, फिर न मिलने का हो रहा दर्द

मुंडारी बोली बोलने वाली इस समुदाय का मुख्य पेशा खेती और मजदूरी है. वादा किया गया था कि हरेक परिवार के लिए नए आवास बनाए जाएंगे. मुर्गी फार्म का एक यूनिट, बकरी फार्म का एक यूनिट (पांच बकरी एक बकरा), कृषि योग्य एक एकड़ जमीन दी जाएगी.

पुलिस और माओवादियों की गोलियों के बीच पिसने से बेहतर अपने जीवन को बचाने के लिए ये आदिम जनजाति अपना घर, जानवर, खेती की जमीन छोड़ पहाड़ से नीचे उतर गए. दो साल बीत गया. आज भी उसी सामुदायिक भवन में रह रहे हैं. मांड़-भात तो कभी साग-भात खा रहे हैं. महीने में एकाध बार सब्जी भी बन जाती है.

विस्थापितों में एक बैजू बिरजिया (24) ने बताया कि परेशान होकर नौ परिवार तो फिर से अपने गांव वापस चले गए. उसमें से कुछ लड़के माओवादी दस्ते में शामिल हो चुके हैं. वापस जाने वालों में सरजू बिरजिया, बीखा बिरजिया, मोहन बिरजिया, पुरनी बिरजिया सहित कई अन्य शामिल हैं. इलाका ऐसा है कि वहां पैदल या तो घोड़ों के सहारे ही पहुंचा जा सकता है.

बैजू से जब पूछा गया कि वह क्यों नहीं गए. इस सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि माओवादियों ने उन्हें भी शामिल होने के लिए कहा था. इसी डर से वह घर छोड़कर भाग गए और बिहार के लालमपुर के एक ईंट भट्टे पर काम करने लगे थे. वह लौटकर गांव कुछ दिन के लिए आए ही थे, पुलिस ने कहा कि गांव खाली करो. तब से यहीं रहते हैं और मजदूरी करते हैं.

सामुदायिक भवन में पैदा हो चुके हैं आठ बच्चे

बरती देवी (23) का डेढ़ साल का बेटा है. पति अर्जुन बिरजिया पास के गांव में मजदूरी करने जाते हैं. दोनों साथ रहते हैं, लेकिन अभी शादी नहीं की है. शर्माती हुई कहती हैं दोनों का घर थलिहा टोला में ही था. प्रेम गांव में हुआ और बच्चा विस्थापित होने के बाद. फुलोश्री कुंवर (30) कहती हैं कि इसी सामुदायिक भवन में इस दौरान आठ बच्चे भी पैदा हुए.

इनकी सुरक्षा में झारखंड पुलिस के दो हवलदार और आठ सिपाही को तैनात किया गया है. नाम न छापने की शर्त पर एक हवलदार ने बताया कि इस सामुदायिक भवन में मोबाइल नेटवर्क नहीं रहता है. सामने पहाड़ी से माओवादी कभी भी हमला कर सकते हैं. वह ये भी बताते हैं कि अगर कभी ऐसी स्थिति बनी तो पचास फर्लांग की दूरी पर मौजूद सीआरपीएफ कैंप तक आवाज पहुंचा के मदद मांगी जा सकती है.

बिगनी कुंवर बताती हैं गांव में मौत का डर था. यहां सुरक्षित होकर भी बहुत परेशानी में हैं. वहीं परनी कुंवर कहती हैं जब सरकार को घर देना ही नहीं था तो उन्हें घर से निकाला ही क्यों.

पास में ही एक स्वास्थ्य उपकेंद्र है जो जयमाला कुजूर नाम की एक एएनएम के सहारे चल रहा है. सामुदायिक भवन में जहां चूल्हा और बरतन हो, सोने के लिए चटाई, खाट के अलावा कुछ गंदले बिस्तर हों, वहां बच्चों के स्वास्थ्य की कल्पना करना बेमानी होगी.

मंत्री को जानकारी नहीं, कहा लिखित रूप में दीजिए तभी कुछ होगा

यहां 39 झारखंडी परिवारों को लाया गया था. मदगड़ी गांव के राजकुमार इन विस्थापितों की हर दिन हाज़िरी लगाते हैं. रजिस्टर दिखाते हुए कहा कि इस वक्त यहां 29 परिवार के 109 लोग रहते हैं. इस लिहाज से देखें तो 10 परिवार यहां से चले गए हैं. गढ़वा के डीडीसी नमन प्रियेश लकड़ा के मुताबिक कल्याण विभाग की ओर से इनके लिए भवन निर्माण की प्रक्रिया चार महीना पहले शुरू किया गया है.

वहीं झारखंड की आदिवासी मामलों और समाज कल्याण मंत्री लुईस मरांडी को इस मामले की जानकारी नहीं थी. बिना पूरा सवाल और मामले की जानकारी लिए उन्होंने कहा कि मेरे टेबल पर मामले को लिखित रूप में भिजवा दीजिए, मैं कार्रवाई करवाउंगी.

मंत्री लुईस मरांडी से जब बूढ़ा पहाड़ से विस्थापितों के आवास और अन्य सुविधाओं के बारे में पूछा गया तो उनको भी नहीं मालूम था कि इन लोगों को क्यों विस्थापित किया गया था. मरांडी ने कहा, ‘आप ऐसा कीजिए कि लिखित रूप में दिलवा दीजिए. कार्रवाई करने का निर्देश दे दूंगी. पीवीटीजी(विशेष रुप से कमज़ोर जनजातीय समूह)  के लिए हमलोग बहुत काम कर रहे हैं.’ उन्होंने यह भी कहा कि हमारे सामने आज तक ये मामला नहीं लाया गया है. आप इसे किसी से लिखवा कर भेज दीजिए.


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पत्रकार ने लुईस मरांडी से कहा कि अगर आप सीधे तौर पर गढ़वा डीसी से बात करेंगी तो यह ज्यादा प्रभावी होगा उन्होंने कहा, ‘अरे बात करेंगे. लेकिन समस्या मेरे सामने लिखित रूप में रहना चाहिए न. बिना लिखित रूप के थोड़े कोई कार्रवाई होता है.’

पत्रकार ने कहा, ‘मैं जानकारी दे रहा हूं, फिर तो सीधे तौर पर आपको डीसी से बात करनी चाहिए. वे पढ़े लिखे नहीं हैं.’ इस बात पर उन्होंने कहा, ‘आपको क्या परेशानी है. उन लोगों से लिखित दिलाने में पढ़े लिखे नहीं हैं तो आप उनके विषय में लिख कर दे दीजिए न. आप लिखित दिलवा दीजिए, मैं अधिकारियों को बोल दूंगी.’

थोक वोट के मालिक नहीं, दर्द तो झेलना ही पड़ेगा न

इस वक्त झारखंड में विलुप्तप्राय आदिम जनजातियों के लिए बिरसा आवास योजना, आदिवासी पेंशन योजना (600 रुपए प्रतिमाह), छात्रवृत्ति योजना, डाकिया योजना के तहत घर तक राशन मुहैया (35 किलो प्रतिमाह) सहित कई अन्य योजनाएं चल रही है.

वहीं केंद्र की ओर से भी पैसे जारी किए जाते हैं. जिसके तहत झारखंड को साल 2016-17 में 31.20 करोड़ रुपए मिले तो 2017-18 में इसे घटाकर 20 करोड़ 43 लाख 75 हजार रुपए कर दिया गया. वहीं केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्रालय की ओर से संसद में दिए एक बयान के मुताबिक साल 2018-19 में देशभर में 250 करोड़ रुपए जारी किए गए थे. जिसमें राज्य सरकारों ने मात्र 12.3 करोड़ रुपए खर्च किए.

केंद्रीय आदिवासी कल्याण मामलों के वर्तमान मंत्री अर्जुन मुंडा और पूर्व मंत्री सुदर्शन भगत भी इसी राज्य के हैं. अर्जुन मुंडा कहते हैं, ‘देखिये वैसे तो ये मामला राज्य सरकार का है. अब जब ये मामला मेरे संज्ञान में आया है तो जल्द ही इसकी रिपोर्ट मंगवा कर कार्रवाई करवाता हूं.’

झारखंड में आदिम जनजातियों की कुल संख्या 2,92,359 है. यह कुल आदिवासी संख्या का मात्र 3.3 प्रतिशत है. जनसंख्या में कम होने की वजह से इन आदिम जनजातियों का झारखंड विधानसभा में इन्हीं के बीच का कोई नुमाइंदा नहीं है. वोट के लिहाज से प्रभावशाली न होने की वजह से योजनाओं का इन तक न के बराबर पहुंचना, इनके लिए सरकारों का गंभीर न होना, आसानी से समझा जा सकता है.

(आनंद दत्ता स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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