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Monday, 17 March, 2025
होमदेशसीतामढ़ी से सदर बाज़ार तक — 11 साल के बेटे को बंधुआ मज़दूरी से बचाने के लिए मां का संघर्ष

सीतामढ़ी से सदर बाज़ार तक — 11 साल के बेटे को बंधुआ मज़दूरी से बचाने के लिए मां का संघर्ष

तीन मार्च को, दिल्ली पुलिस के जवानों ने सदर बाज़ार में बंधुआ मज़दूरी कर रहे दो नाबालिग लड़कों को बचाने के लिए अभियान चलाया. उन्हें 10 और लड़के मिले जिन्हें बचाने की ज़रूरत थी.

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नई दिल्ली: काम आसान था — सदर बाज़ार की संकरी, भीड़भाड़ वाली गलियों से बंधुआ मज़दूरों के तौर पर काम करने को मजबूर दो नाबालिगों को छुड़ाना, लेकिन जैसे ही दिल्ली पुलिस के अधिकारी सीढ़ियों से उतरकर बिना खिड़की वाले अंधेरे तहखानों की तरफ पहुंचे, उन्हें भयावह पैटर्न का पता चला. कम से कम 10 लड़के, सभी नाबालिग बमुश्किल 15×6 फीट वाले छह गंदे बदबूदार कमरों में बिखरे हुए, बैग, फाइल फोल्डर और हैंगर इकट्ठा कर रहे थे.

दिल्ली पुलिस ने उस दिन 12 लड़कों को बचाया, जिनमें से दो के परिवार मदद के लिए अधिकारियों के पास गए थे. लड़कों की उम्र 11 से 15 साल के बीच थी और वह सभी बिहार के रहने वाले थे.

सीतामढ़ी के एक 11-वर्षीय बच्चे की मां जिन्होंने अधिकारियों से सबसे पहले संपर्क किया, उन्होंने कहा, “वह मेरे बच्चे को बहला-फुसलाकर ले गए. जब मैंने उसे देखा, तो मैं उसे कसकर गले लगाने से खुद को रोक नहीं पाई. मुझे खुशी है कि वह ठीक था.” दिप्रिंट से बातचीत करते वक्त उनके हाथ कांप रहे थे.

वे अपने बेटे को ढूंढने और उसे अपने साथ वापस ले जाने की उम्मीद में एक अन्य लड़के की चाची के साथ दिल्ली तक आई थी.

तीन मार्च को रेस्क्यू के बाद उसी दिन सदर बाज़ार की सात दुकानों के मालिकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई, जहां से लड़कों को बचाया गया था.

सदर बाज़ार की दुकानों की एक लाइन, जहां से बच्चों को बचाया गया | फोटो: मृणालिनी ध्यानी/दिप्रिंट
सदर बाज़ार की दुकानों की एक लाइन, जहां से बच्चों को बचाया गया | फोटो: मृणालिनी ध्यानी/दिप्रिंट

दुकान के मालिकों पर किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 की धारा 79 के तहत मामला दर्ज किया गया, जो बाल कर्मचारी का शोषण करने वालों को दंडित करता है, और बाल और किशोर श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986 की धारा 3 और 14 के तहत मामला दर्ज किया गया है, जो 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के रोज़गार पर रोक लगाता है और उल्लंघन के लिए दंड को परिभाषित करता है.

हालांकि, दिल्ली के मध्य जिले के कोतवाली उपखंड के उप-विभागीय मजिस्ट्रेट (एसडीएम) द्वारा जारी किए गए आदेश के बावजूद बंधुआ मज़दूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 की प्रासंगिक धाराओं को एफआईआर में शामिल नहीं किया गया. दिप्रिंट के पास आदेश की एक प्रति मौजूद है.

जिन लड़कों के परिवारों ने पुलिस से संपर्क किया, उनमें से केवल दो को एसडीएम द्वारा रिहाई प्रमाण पत्र जारी किए गए थे. ये प्रमाण पत्र बंधुआ मज़दूरी से उनकी रिहाई की पुष्टि करने वाले आधिकारिक दस्तावेज़ का काम करते हैं और उनकी कंपनियों के साथ सभी समझौतों को रद्द करते हैं.

जांच अधिकारी (आईओ) दीपक ने दिप्रिंट को बताया कि “एफआईआर में उल्लिखित धाराएं अभी के लिए काफी हैं, लेकिन अगर ज़रूरी हुआ तो चार्जशीट में और प्रासंगिक धाराएं जोड़ी जाएंगी.” उन्होंने कहा कि पुलिस लड़कों के बयान दर्ज कर रही है और उनकी सही उम्र निर्धारित करने के लिए आने वाले दिनों में बोन ऑसिफिकेशन टेस्ट (उम्र का पता लगाने के लिए किया जाने वाला टेस्ट) किया जाएगा.

पुलिस ने अभी तक मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं की है.


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‘हमारी जाति के बच्चे पढ़ते नहीं हैं’

बिहार के सीतामढ़ी के 11 साल के लड़के की मां जिन्होंने सबसे पहले एक कार्यकर्ता की मदद से अधिकारियों से संपर्क किया, उन्होंने बताया, “जब हम काम पर थे, तब बच्चे बाहर खेल रहे थे, तभी बिहार में एक छोटी सी बैग बनाने वाली यूनिट चलाने वाले ठेकेदार सदरे आलम उनसे मिला.”

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “उसने (आलम) बच्चों को 12,000 रुपये देने का वादा करके बहलाया और अपने साथ आने को कहा. बच्चे मान गए.” उन्होंने आगे बताया कि आलम ने उन्हें भरोसा दिलाया कि बकाया पैसे उनके परिवारों को भेज दिए जाएंगे, जिसके बाद लड़के उसके साथ चले गए, लेकिन ठेकेदार ने झूठ बोला था. मां के अनुसार, कोई घर आया और उन्हें 500 रुपये दिए. “उस व्यक्ति ने कहा कि बच्चे ठेकेदार के साथ काम कर रहे हैं और इस तरह से पैसे मिलते रहेंगे.”

दूसरे लड़के की मां और मौसी, जो उनके साथ दिल्ली गई थीं, सीतामढ़ी में घरेलू सहायिका का काम करती हैं. वह टिन की छत वाले कच्चे मकान में किराए की ज़मीन पर रहती है. उनके पति, जो गुजरात में निर्माण मज़दूर हैं, हर महीने लगभग 2,000 रुपये घर भेजते हैं.

ये परिवार मुसहर हैं — भारत में सबसे हाशिए पर पड़े जाति समूहों में से एक, जो मुख्य रूप से किराएदार किसान या दिहाड़ी मज़दूर का काम करते हैं. 11-वर्षीय लड़के की मां ने कहा, “हमारी जाति के बच्चे पढ़ाई नहीं करते. हम एक मिट्टी के घर में किराए की ज़मीन पर रहते हैं और मालिक हमें कभी भी बाहर निकाल सकता है.”

15-वर्षीय दूसरा लड़का अपनी मां की मृत्यु के बाद अपनी मौसी के साथ रहता था और उसकी आठ साल की बहन और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे पिता हैं.

स्थानीय कार्यकर्ता कृष्ण मोहन, जिन्होंने 11-वर्षीय बच्चे की मां को सीतामढ़ी के जिला मजिस्ट्रेट को पत्र लिखने में मदद की, ने स्थिति को व्यवस्थागत उपेक्षा का नतीजा बताया.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “यह माहौल की बात है- बच्चे स्कूल में दाखिला लेते हैं, दूसरों को स्कूल छोड़ते देखते हैं और फिर वही पैटर्न अपनाते हैं.” मोहन ने कहा कि लड़कों के परिवार भी “शुरू में इससे सहमत थे” क्योंकि इससे आय का एक और स्रोत मिल जाता था, “जब तक उन्हें पता नहीं चला कि उनके बच्चे दिल्ली में किन परिस्थितियों में रह रहे हैं.”

एक महीने तक चली जांच

एक जनवरी को सीतामढ़ी की महिला को उनके 11 साल के बेटे के फोन से पता चला. उन्होंने याद किया, “वे रो रहा था. उसने बताया कि वो काफी दिक्कत में हैं — ठेकेदार उन्हें पीटता है, सुबह 4 बजे से रात 10 बजे तक काम करने के लिए मजबूर करता है और उन्हें मुश्किल से सोने देता है. उन्हें पैसे नहीं देता, भोजन के लिए हफ्ते में एक बार केवल 1,000 रुपये दिए जाते थे; भोजन लेने के अलावा बाहर निकलना भी मना था और उसके बाद भी, उन पर लगातार नज़र रखी जाती थी.”

उनके बेटे ने इससे भी ज़्यादा परेशान करने वाली बात बताई. “उन्होंने कहा कि ठेकेदार ने उन्हें शराब पीने के लिए मजबूर किया.”

एक गंदे कमरे के अंदर जहां बच्चों को काम करने के लिए मजबूर किया जाता था | फोटो: मृणालिनी ध्यानी/दिप्रिंट
एक गंदे कमरे के अंदर जहां बच्चों को काम करने के लिए मजबूर किया जाता था | फोटो: मृणालिनी ध्यानी/दिप्रिंट

जब उन्होंने अपने बेटे की आपबीती सुनी, तो वे घबरा गई और उन्होंने कृष्ण मोहन से संपर्क किया, जिन्होंने मामले को संभाला और लड़के से बात की. मोहन ने कहा, “उन्हें मालूम था कि वह दिल्ली में है, लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि वह कहां है. उन्होंने लड़के से उसके आस-पास के माहौल के बारे में पूछा.”

उन्होंने आगे कहा, “यह आसान नहीं था — आस-पास कोई दुकान नहीं थी और बच्चे एक कमरे तक ही सीमित थे. एक बार में केवल एक को ही भोजन खरीदने के लिए बाहर निकलने दिया जाता था और वह तुरंत वापस आ जाता था.”

अगले कुछ दिनों में मोहन और उनकी टीम ने लड़के का पता लगाने के लिए काम किया. जब लड़के ने अपनी लाइव लोकेशन शेयर की, तो उन्हें राहत मिली. मोहन ने कहा, “एक बार जब हमें पता चल गया, तो हमने कर्मचारियों को उस इलाके की छानबीन करने के लिए भेजा. यह किस तरह की जगह थी, बच्चों की रहने की स्थिति और उनके बयान.”

चूंकि, लड़कों को केवल कुछ समय के लिए बाहर निकलने दिया जाता था, इसलिए मोहन की टीम ने संपर्क करने के लिए उस मौके का लाभ उठाया. “हम हर बार उनसे कुछ मिनट के लिए बात करने में कामयाब रहे. वक्त के साथ, हमने उनके डिटेल्स लिए और उनकी स्थिति को एक साथ जोड़ा.”

पूरी जांच में लगभग एक महीने का समय लगा.

मोहन ने कहा, “जब हम पूरी तरह से आश्वस्त हो गए, तभी हमने जिला मजिस्ट्रेट से संपर्क किया.” उन्होंने कहा कि उनकी टीम परिस्थितियों का सटीक विवरण तैयार करना चाहती थी.


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अधिकार क्षेत्र की उलझन और रिहाई प्रमाण पत्र

जबकि मोहन और उनकी टीम द्वारा एकत्र किए गए सबूतों के आधार पर आखिरकार रेस्क्यू ऑपरेशन चलाया गया, अधिकार क्षेत्र को लेकर भ्रम के कारण देरी हुई, जिसे टाला जा सकता था.

मोहन के अनुसार, सीतामढ़ी के जिला मजिस्ट्रेट ने 11-वर्षीय बच्चे की मां का पत्र 28 जनवरी को दिल्ली के सेंट्रल जिले के करोल बाग उपखंड के एसडीएम को भेजा, लेकिन तत्काल कोई कार्रवाई नहीं हुई. मोहन ने कहा, “हमने करोल बाग के एसडीएम से कहा कि यह (सदर बाज़ार) उनका क्षेत्र नहीं है और उनसे अनुरोध किया कि वे पत्र को कोतवाली एसडीएम को भेजें.” उन्होंने कहा कि 6 फरवरी को ही कोतवाली एसडीएम को मामले की जानकारी मिली.

इस बीच, बिहार भवन में संयुक्त श्रम आयुक्त ने दिल्ली के सेंट्रल जिले के डीएम को एक अलग पत्र भेजा, जिन्होंने इसे करोल बाग एसडीएम को भेज दिया. मोहन ने कहा, “जब हमने 22 फरवरी को मामले की जांच की, तो हमें एक बार फिर बताया गया कि मामला कोतवाली के अंतर्गत आता है, लेकिन जब हमने कोतवाली एसडीएम के कार्यालय से संपर्क किया, तो उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसा कोई पत्र नहीं मिला है.”

26 फरवरी को ही मोहन सीधे कोतवाली एसडीएम से बात करने में कामयाब हो पाए, जिन्होंने तुरंत जवाब दिया और उन्हें आश्वासन दिया कि महीने की 28 तारीख को सभी संबंधित विभागों के साथ एक बैठक आयोजित की जाएगी. इस बैठक ने 3 मार्च को रेस्क्यू ऑपरेशन का मार्ग प्रशस्त किया, जिसमें श्रम विभाग के अधिकारी, सदर बाज़ार थाने के कर्मचारी और बचपन बचाओ आंदोलन और बाल विकास धारा जैसे गैर सरकारी संगठनों के स्वयंसेवक शामिल थे.

लड़कों को बचाए जाने के बाद, पुलिस ने उनके बयान दर्ज किए और उन्हें आश्रय गृह भेज दिया.

अगले दिन, बाल कल्याण समिति (सीडब्ल्यूसी) के सदस्यों ने उनकी काउंसलिंग की और सदर बाज़ार थाने में एक एफआईआर दर्ज की गई.

लेकिन 12 में से केवल दो को ही रिहाई प्रमाण पत्र जारी किए गए. इन प्रमाण पत्रों के बिना, बच्चे असुरक्षित रहते हैं — एम्पलॉयर्स कानूनी जागरूकता की कमी का फायदा उठाते हुए पुनर्भुगतान की मांग कर सकते हैं. लड़कों में से एक के परिवार की मदद करने वाले एक वकील ने कहा, “यह बंधुआ मजदूरी का एक स्पष्ट मामला है. वह कानूनी रूप से रिहाई प्रमाण पत्र के हकदार हैं.”

मूल रूप से बिहार के पूर्वी चंपारण, शिवहर, मधुबनी और अररिया जिलों के रहने वाले इन लड़कों में से अधिकांश को उनके गृह जिलों के दुकान मालिकों द्वारा दिल्ली में तस्करी करके लाया गया था.

उन्हें जबरदस्ती से बचाने के अलावा, एक रिहाई प्रमाण पत्र पुनर्वास लाभों तक पहुंच सुनिश्चित करता है. बाल बंधुआ मजदूर बंधुआ मज़दूरों के पुनर्वास के लिए केंद्रीय क्षेत्र योजना के तहत वित्तीय सहायता के पात्र हैं — शुरुआती 30,000 रुपये और कुल 2 लाख रुपये.

अधिवक्ता ने कहा, “ये फंड शिक्षा का समर्थन कर सकते हैं और पुनः बंधन को रोक सकते हैं.”

उन्होंने आगे कहा कि सरकार के पास फंड और तंत्र तो है, लेकिन वह इन बच्चों को प्राथमिकता देने में विफल है.

समाजशास्त्री और रिलीज्ड बॉन्डेड लेबर एसोसिएशन (आरबीएलए) के संस्थापक डॉ. के. कृष्णन ने जबरन मजदूरी और पलायन को संबोधित करने में प्रणालीगत विफलता की ओर इशारा किया. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “बिहार, उत्तर प्रदेश और ओडिशा के दूरदराज के इलाकों में, कई लोगों के पास राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एनआरईजीए) और शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम सहित सरकारी कल्याणकारी योजनाओं तक पहुंच नहीं है, दोनों का ही खराब तरीके से क्रियान्वयन किया जाता है.”

उन्होंने कहा कि श्रम विभाग पलायन पर नज़र रखने के लिए जिम्मेदार है — चाहे वयस्क हों या बच्चे, लेकिन राज्यों के बीच बहुत कम समन्वय है. उन्होंने आगे कहा, “जवाबदेही गायब है. बंधुआ मज़दूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम की धारा 14 के तहत जिला सतर्कता समिति और (एससी और एसटी) अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत इसी तरह के निकायों को हर तीन महीने में निरीक्षण करना चाहिए, लेकिन ऐसा शायद ही कभी होता है.”

सीतामढ़ी की रहने वाली मां रेस्क्यू अभियान के बाद बिहार लौट आई. उसी दिन दो आदमी उनके घर आए और उनका फोन नंबर मांगा, जिसे उन्होंने बताने से इनकार कर दिया. अगली सुबह दो महिलाएं और एक आदमी आए और उससे ठेकेदार के खिलाफ शिकायत वापस लेने और मामले को सुलझाने के लिए दिल्ली चलने का आग्रह किया. मां ने इनकार कर दिया और तुरंत नज़दीकी थाने जाकर सुरक्षा की मांग की.

अब वे अपने बेटे के लौटने तक के दिन गिन रही हैं.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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