नई दिल्ली: इसी महीने डिज़ाइनर वैशाली शादांगुले पेरिस फैशन वीक में अपने कलेक्शन का मुज़ाहिरा करने वाली, पहली भारतीय महिला डिज़ाइनर बन गईं. कोविड-19 महामारी की वजह से एक साल वर्चुअल तरीके से पेश होने के बाद, फिर से अपने फिज़िकल रूप में वापस हुआ फैशन वीक, 5 से 8 जुलाई के बीच फ्रांसीसी राजधानी के लाइसी विक्टर दुरुए में आयोजित किया गया. शादांगुले ने आख़िरी दिन अपने कलेक्शन का मुज़ाहिरा किया.
अपने पेरिस अनुभव के बारे में शादांगुले दिप्रिंट से कहती हैं, ‘वो ख़ुशी सपनों की तरह थी. पहली भारतीय महिला डिज़ाइनर होने के नाते, मुझे एक बहुत बड़ी कामयाबी और एक बहुत भारी ज़िम्मेदारी का अहसास हुआ, चूंकि मैं देश में विकसित दस्तकारी, हाथ की बुनाई और एक टिकाऊ तथा सामाजिक प्रभाव वाले ब्रांड की नुमाइंदगी करती हूं’.
हालांकि विदेश में ये उनका पहला शो नहीं था- विदिशा में जन्मी डिज़ाइनर (विदिशा मध्य प्रदेश का एक शहर है) न्यूयॉर्क फैशन वीक में अपने कलेक्शन का प्रदर्शन कर चुकी हैं, और उनके डिज़ाइंस लंदन और मिलान के बुटीक्स में देखे जा सकते हैं- लेकिन ज़ाहिर है कि पेरिस बहुत ख़ास था, चूंकि ये ‘दुनिया के किसी भी डिज़ाइनर का दूर का सपना होता है’.
जिस चीज़ ने शो को और अधिक मील का पत्थर बनाया, वो थी इसका महामारी के बीच में आयोजित होना. वो शो के लिए चुनी गई हैं, इसका पता डिज़ाइन को 13 मई को चला, जब भारत कोविड की दूसरी लहर के असर से जूझ रहा था, जो मार्च-अप्रैल में शुरू हुई थी.
डिज़ाइन ने बताया, ‘अच्छा हुआ कि इस मुश्किल समय में अपने बुनकरों को काम देते रहने की वजह से, मेरी सभी बुनाइयों का उत्पादन चल रहा था और कच्चे धागों का ऑर्डर पहले ही दिया जा चुका था’.
लेकिन पूरे संग्रह को वास्तव में एक जगह जमा करना एक अलग बात थी.
डिज़ाइनर कहती हैं, ‘लॉकडाउन के दौरान सप्लाई चेन और लॉजिस्टिक्स का बंदोबस्त करना किसी बुरे सपने की तरह था. कलेक्शन को एक जगह जमा करने में मुझे अपनी और अपने कारीगरों की ओर से बहुत से अतिरिक्त काम करने पड़े. पूरे सामान को स्कैन और सैनिटाइज़ करके, एक ही छत के नीचे दो महीने तक एक साथ रखा गया. पेरिस में कलेक्शन की डिलीवरी भी लॉजिस्टिक्स और तालमेल का एक चमत्कार ही रही है, जिसे मेरे बिज़नेस पार्टनर एलिसेंद्रो गुइलियानी ने अंजाम दिया’.
‘श्वास’ जिसका शाब्दिक अर्थ सांस होता है, पेरिस के लिए शादांगुले का संग्रह था. उसमें 30 लुक्स थे जो पत्तियों, पेड़ की टहनियों, और छाल के प्राकृतिक नमूनों से प्रेरित थे, और भारतीय बुनाई तथा कपड़े से तैयार किए गए थे.
कपड़ों का इंतज़ाम हो जाने के बाद शादांगुले को सुनिश्चित करना था कि कपड़ों के साथ का सामान समय से पेरिस पहुंच जाए. शादांगुले ने कहा, ‘जूते एक अलग दिलचस्प प्रोजेक्ट थे जिसका प्रबंध अलेसैंद्रो ने इटैलियन ब्राण्ड वायब्राम के साथ मिलकर किया. वो शो वाले दिन सुबह डिलीवर किए गए. पेरिस पहुंचने का मेरा 14 दिन का सफर भी इतनी घटनाओं से भरा हुआ रहा, कि उस पर एक पूरी किताब लिखी जा सकती है’.
पेरिस का शो वास्तव में चुनौतियों के लायक़ था. भारतीय डिज़ाइनर ने अपने नाम के ब्राण्ड वैशाली एस के तहत, डिओर, अज़ारो, और शनेल जैसे फैशन दिग्गजों के साथ, अपनी कृतियों का प्रदर्शन किया.
ताज़ा कृतियों की ‘श्वास’
अपने सपनों को साकार करने के लिए वैशाली ने 17 साल की उम्र में ही मध्यप्रदेश का अपना घर छोड़ दिया था, वो सूबा जो माहेश्वरी और चंदेरी जैसी हैण्डलूम बुनाई के लिए मशहूर है. जीवन में संघर्षों की कमी नहीं थी, लेकिन अपने जुनून के चलते उन्होंने मुम्बई के काला घोड़ा में अपना फ्लैगशिप स्टोर खोल लिया.
बुटीक, अपने आप में टिकाऊ सृजन के प्रति शादांगुले के समर्पण को दर्शाता है- इसे लकड़ी की कतरनों और पुराने दरवाज़ों से डिज़ाइन किया गया है.
डिज़ाइनर कहती हैं, ‘मुझे ख़ुशी है कि टिकाऊपन अब मुख्यधारा बन गया है. पिछले 20 सालों से मैं वही करती आ रही हूं, जिसके साथ मैं पलकर बड़ी हुई हूं. भारतीय गांवों में हम जानते हैं कि हर किसी की भलाई के लिए, नेचर और हमारा उसके साथ रिश्ता कितना अहम होता है’.
नेचर के साथ यही रिश्ता, ‘उसके साथ लेन-देन का निर्बाध प्रवाह’ ही श्वास का सार था. शादांगुले ने समझाया, ‘मैं हाथ की बुनाई को हमारे और नेचर के बीच का एक अनजान कनेक्शन मानती हूं, जिसमें नेचर लगातार मेरी प्रेरण रहती है. इसी तरह सांस भी जीवन के साथ हमारा एक अनजान रिश्ता होता है’.
वैशाली के फैशन सफर के केंद्र में रहे हैं भारत के हथकर्घा कपड़े तथा बुनकर, और पेरिस के उनके डिज़ाइन्स में भी इसी को दर्शाया गया था. श्वास देश भर से जुटाए गए भारतीय हैण्डलूम्स और बुनाई को एक संबोधगीत है- माहेश्वर की मेरिनो वुल, कर्नाटक की खुन टेक्सटाइल्स, पश्चिम बंगाल की कुछ देसी बुनाई. इसके साथ, बनावट के लिए उन्होंने अपनी ख़ास कॉर्डिंग तकनीक का इस्तेमाल किया.
‘हाथ की बुनाई को और अधिक मुख्यधारा बनना है’
अपने पूरे करियर के दौरान भारतीय कपड़ों और बुनाई के साथ काम करने के बाद, शादांगुले भारतीय बुनकरों की घटती संख्या से चिंतित हैं. 2019-2020 की ताज़ा हथकरघा जनगणना के अनुसार, बुनकरों की संख्या में 19 प्रतिशत की कमी आई है, जो 2009-10 में 43.31 लाख से घटकर, 2019-20 में 35.22 लाख रह गई.
शादांगुले कहती हैं, ‘दुर्भाग्यवश, मेरा मानना है कि बुनकरों की संख्या में कमी अधिकारिक आंकड़ों से अधिक गंभीर है’. वो आगे कहती हैं कि इस पेशे में ज़्यादा आर्थिक सुरक्षा नहीं है, और युवा पीढ़ी को ये काम लाभदायक नहीं लगता.
वो कहती हैं कि हालांकि विडंबना ये है कि ‘आज दुनिया भर में लोग ज़रूरत महसूस कर रहे हैं, कि हमें धीमे फैशन, कपड़ों तथा डिटेल्स पर तवज्जो, और ज़्यादा व्यक्तिगत पोशाकों तथा कपड़ों पर फिर से लौटने की ज़रूरत है’.
उन्हें लगता है कि पारंपरिक बुनाई तथा कपड़ों के इस्तेमाल से इसे हासिल किया जा सकता है. शादांगुले का कहना है, ‘जिस चीज़ की ज़रूरत है वो है ज़्यादा जानकारी. आम लोगों के लिए हाथ से बुने गए कपड़े के मूल्य को समझना मुश्किल है. लेकिन वो एक बार पहन लें, तो फिर इसी के हो जाते हैं. हमें ज़रूरत है कि हाथ की बुनाई ज़्यादा मुख्यधारा बने, और मीडिया उसे ज़्यादा प्रचारित करे’.
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