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Sunday, 22 December, 2024
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2014-2022 तक IFS में महिलाओं का चयन 6.6 प्रतिशत बढ़ा, पर टॉप के पद पहुंच से बाहर

पिछले दशक में भारतीय विदेश सेवा संवर्ग में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में वृद्धि के बावजूद, महिलाएं केवल 8 राजनयिक मिशनों का नेतृत्व कर रही हैं तथा विदेश मंत्रालय में सचिव स्तर के 7 पदों में से केवल 1 पर ही महिला कार्यरत हैं.

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नई दिल्ली: कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के आंकड़ों से पता चलता है कि भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) में भर्ती होने वाली महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है. 2014-2022 की नौ साल की अवधि में इस संख्या में 6.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

पूर्व महिला राजदूतों के साथ-साथ तमाम युवा आईएफएस अधिकारी दुनिया भर में तमाम मिशनों में कार्यरत हैं, जो कि एक “सकारात्मक संकेत” है, हालांकि शीर्ष पदों पर महिलाओं की नियुक्ति करके और भी बहुत कुछ किया जा सकता है.

कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के आंकड़ों के दिप्रिंट द्वारा किए गए विश्लेषण के अनुसार, 2014 के आईएफएस कैडर में 31.2 प्रतिशत (32 में से 10) महिलाएं थीं. 2022 में यह संख्या बढ़कर 37.8 प्रतिशत (37 में से 14) हो गई.गौरतलब है कि 2018, 2019 और 2020 में विदेश सेवा में महिला भर्तियों की संख्या 40 प्रतिशत के आंकड़े को पार कर गई थी.

Infographic: Prajna Ghosh | ThePrint
इन्फोग्राफिक: प्रज्ञा घोष | दिप्रिंट

2022 बैच की एक युवा महिला आईएफएस अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, “मैं इसे एक सकारात्मक संकेत के रूप में देखती हूं, खासकर इसलिए क्योंकि आईएफएस में महिला भर्तियों का प्रतिशत आमतौर पर आईपीएस जैसी सेवाओं की तुलना में अधिक होता है.”

उस वर्ष, नई भर्तियों में 37.8 प्रतिशत महिलाएं थीं. तुलनात्मक रूप से, 2022 में आईपीएस में महिला भर्तियों का हिस्सा 30 प्रतिशत (206 में से 62) और आईएएस में 43.3 प्रतिशत (180 में से 78) था.

आज़ाद भारत के शुरुआती दौर में विदेश सेवा में महिला अधिकारियों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. उन्हें अक्सर “कठिन” पोस्टिंग या संघर्ष वाले क्षेत्रों में नहीं चुना जाता था और उन्हें अपने पुरुष सहकर्मियों के विपरीत शादी करने से पहले भारत सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी.

सी.बी. मुथम्मा उन अग्रणी महिला राजनयिकों में से थीं जिन्होंने 1979 में सुप्रीम कोर्ट में इन नियमों को सफलतापूर्वक चुनौती दी थी.

जब पूर्व राजदूत रुचि घनश्याम 1982 में आईएफएस में शामिल हुईं, तो वह 15 लोगों के बैच में चार महिलाओं में से एक थीं. हालांकि, उनका तर्क है कि जब तक उनकी भर्ती हुई, तब तक महिलाओं पर प्रतिबंध कम हो गए थे.

वह तर्क देती हैं, “15 के बैच में चार लड़कियां होना कोई बहुत बड़ा प्रतिशत नहीं है, लेकिन 80 के दशक से आईएफएस ने एक लंबा सफर तय किया है. तब भी, कठिनाई वाली पोस्टिंग में महिलाओं पर प्रतिबंध काफी कम हो गए थे. मैंने खुद 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान इस्लामाबाद में सेवाएं दी थीं,”

रुचि घनश्याम ने 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तान में भारतीय उच्चायोग में काउंसलर (राजनीतिक, प्रेस और सूचना) के रूप में काम किया था.

2014 के बाद से हर साल IFS में केवल चार और महिलाओं को जोड़ा गया है. राजनीति विज्ञानी कांति बाजपेयी, जिन्होंने पहले IFS के छोटे आकार और इसकी “अत्यधिक चयनात्मक” भर्ती नीति की आलोचना की है, का कहना है कि भर्तियों की संख्या को तीन गुना करने से बेहतर लैंगिक समानता हासिल करने में मदद मिल सकती है.

बाजपेयी ने दिप्रिंट से कहा, “1.4 बिलियन की आबादी वाले देश में भारत की विदेश सेवा में केवल 800 कर्मचारी हैं, जबकि चीन में 5,000 से ज़्यादा अधिकारी हैं. अगर 30 के बजाय कम से कम 100 उम्मीदवारों को IFS के लिए चुना जाता है, तो इससे ज़्यादा महिलाएं आम तौर पर सिविल सेवाओं के लिए आवेदन करने के लिए प्रोत्साहित हो सकती हैं और विदेश सेवा को 50/50 लैंगिक समानता के करीब लाने में मदद मिलेगी.”

उन्होंने कहा कि ऐसे सुधार ज़रूरी हैं क्योंकि भारत ‘ग्लोबल साउथ’ का नेता और दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना चाहता है.

पहले भी भर्ती के लिए अधिक संख्या में आवेदन करने से महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई है. उदाहरण के लिए, 2015 में नौ साल की अवधि में सबसे अधिक संख्या में महिला भर्ती (17) हुई और उस वर्ष भर्ती की कुल संख्या सामान्य 30-35 के बजाय 45 थी.

बाजपेयी ने कहा कि यह भी पता लगाना उचित होगा कि कितनी महिलाएं IFS के लिए आवेदन करती हैं और यदि कम हैं, तो आवेदन के चरण में उनकी संख्या कैसे बढ़ाई जा सकती है.

2019 में ‘भारत की विदेश नीति क्षमता’ शीर्षक से प्रकाशित शोध पत्र में बाजपेयी और शोधकर्ता बायरन चोंग ने तर्क दिया कि आईएफएस के लिए चयनात्मकता बहुत अधिक है. उन्होंने बताया कि लगभग पांच लाख पुरुष और महिलाएं वार्षिक यूपीएससी परीक्षा देते हैं, जिनमें से एक हज़ार को शीर्ष सेवाओं में पद की पेशकश की जाती है, और केवल 30 या उससे कम को विदेश सेवा की पेशकश की जाती है.


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शीर्ष पदों पर महिलाएं

दुनिया भर में कितनी भारतीय महिलाएं राजनयिक मिशनों का नेतृत्व करती हैं, इस पर करीब से नज़र डालने पर तस्वीर कुछ खास अच्छी नहीं लगती.

फ़िलहाल, महिलाएं आठ भारतीय राजनयिक मिशनों का नेतृत्व कर रही हैं और वे दुनिया की हाई-प्रोफ़ाइल राजधानियों में नहीं हैं. इनमें आर्मेनिया, कंबोडिया, साइप्रस, इटली, मॉरीशस, माल्टा, न्यूज़ीलैंड, नीदरलैंड, पोलैंड और सर्बिया शामिल हैं. संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में भारत की पहली महिला राजदूत रुचिरा कंबोज ने 1 जून को सेवानिवृत्त होने के बाद न्यूयॉर्क में अपना पद खाली कर दिया.

यह स्थिति 2008 से बहुत अलग है, जब महिलाएं दुनिया भर में 25 से अधिक भारतीय मिशनों और वाणिज्य दूतावासों का नेतृत्व कर रही थीं, जिनमें प्रमुख राजधानियां भी शामिल थीं. उस समय, सुजाता सिंह ऑस्ट्रेलिया में, मीरा शंकर बर्लिन में और निरुपमा राव चीन में सेवारत थीं. सिंह और राव दोनों ही विदेश सचिव बनीं.

उस समय आउटलुक के लिए एक रिपोर्ट में वरिष्ठ पत्रकार सीमा सिरोही ने लिखा था, “अब कोई भी क्षेत्र निषिद्ध नहीं लगता.”

आज, विदेश मंत्रालय में सचिव स्तर की सात पोस्टिंग में से केवल एक पर ही महिला काबिज है – नीना मल्होत्रा, जो सचिव (ओएसडी और राजनीतिक) के रूप में कार्य करती हैं.

जब विदेश सचिव के पद की बात आती है, तो भारत के इतिहास में तीन महिलाएं इस पद पर आसीन हुई हैं – चोकिला अय्यर (2001-02), निरुपमा राव (2009-11) और सुजाता सिंह (2013-15).

विदेश सचिव का चयन परंपरागत रूप से वरिष्ठता के आधार पर किया जाता रहा है, लेकिन 2007 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस पद के लिए जिन लोगों का चयन किया उसने कुछ लोगों को नाराज़ कर दिया.

अप्रैल 2007 में शिवशंकर मेनन को विदेश सचिव बनाए जाने का विदेश सेवा के कुछ अधिकारियों ने कड़ा विरोध किया था. बांग्लादेश में भारतीय उच्चायुक्त के रूप में ढाका में कार्यरत वीना सीकरी विरोध जताते हुए दिल्ली लौट आईं.

उनके पति राजीव सीकरी ने इस्तीफा दे दिया और फ्रांस में भारत के तत्कालीन राजदूत टी.सी.ए. रंगाचारी ने भी पद छोड़ दिया. मेनन ने इस पद पर नियुक्त होकर अपने 16 वरिष्ठों को पीछे छोड़ दिया था. वीना सीकरी ने बाद में लैंगिक पक्षपात का आरोप लगाया और दावा किया कि उन्हें इस पद के लिए अनुचित तरीके नियुक्त नहीं किया गया.

सीकरी 1971 बैच की आईएफएस अधिकारी थीं और मेनन उनसे एक साल जूनियर थे. उन्होंने चयन प्रक्रिया के विवरण के लिए सूचना के अधिकार के तहत याचिका दायर की थी, जिसे उस समय सरकार ने अस्वीकार कर दिया था.

विदेश मंत्रालय ने सार्वजनिक रूप से दावों का खंडन किया और हिंदुस्तान टाइम्स टाइम्स ने प्रकाशित किया गया कि विदेश मंत्रालय ने कहा: “जहां तक ​​विदेश मंत्रालय का सवाल है, पिछले पांच सालों में किसी भी महिला आईएफएस अधिकारी को लिंग के आधार पर उसके हक से वंचित नहीं किया गया है.”

दिप्रिंट ने इस मामले में वीना सीकरी से बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने इस पर कोई भी टिप्पणी करने से मना कर दिया.

(सिया गुप्ता के इनपुट के साथ)

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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