नई दिल्ली: एक ताजा रिसर्च के मुताबिक जीवाश्म ईंधन के परिवर्तन के इस दौर में देश के कुछ प्रमुख वित्तीय संस्थान न सिर्फ काफी खराब प्रदर्शन कर रहे हैं बल्कि इसके लिए पूरी तरह से तैयार भी नहीं हैं. अगर उधार देने का मौजूदा पैटर्न जारी रहता है, तो भारत कार्बन इंटेंसिव डवलपमेंट में अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता है.
यह रिसर्च वैश्विक थिंक टैंक ODI, पॉलिसी एडवाइजरी नॉट-फॉर-प्रॉफिट क्लाइमेट बॉन्ड्स और पॉलिसी एडवाइजरी ऑन सस्टेनेबल डेवलपमेंट ऑक्टस ESG ने सामूहिक रूप से किया था. इस रिसर्च को 30 दिसंबर को ऑनलाइन प्लेटफार्म पर जारी किया गया था.
हमारा लक्ष्य कार्बन डवलपमेंट के रास्ते की तरफ आगे बढ़ने का है लेकिन हम अगर कार्बन इंटेसिव क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियां और क्षेत्रों को लोन देते रहे या उनमें निवेश करते रहे तो हम अपने इस लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएंगे. अध्ययन में पाया गया कि नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन क्षमता के विस्तार में रुचि के बावजूद भारत का वित्तीय क्षेत्र इस तरफ ही चले जा रहा है.
अक्टूबर 2022 तक भारत की गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से स्थापित क्षमता 172.72 गीगावाट (GW) है. 2015 के बाद से ये आकड़ा तीन गुना से अधिक हो गया है.
हालांकि, बिजली उत्पादन में कोयले का दबदबा अभी भी कायम है. इसकी हिस्सेदारी करीब 75 फीसदी है.
बिजली उत्पादन देश में कार्बन उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत है. अध्ययन में पाया गया है कि कार्बन इंटेंसिव सेक्टर में भारतीय बैंकों के सभी बकाया लोन में बिजली उत्पादन का हिस्सा 5.2 प्रतिशत है. हालांकि इस देनदारी में सिर्फ 17.5 प्रतिशत हिस्सेदारी उन कंपनियों की है जो विशेष रूप से रिन्यूएबल ऊर्जा से बिजली उत्पन्न करती हैं या नवीकरणीय ऊर्जा के लिए उपकरणों और सेवाओं की आपूर्ति करती हैं.
रिसर्च के मुताबिक, ‘उच्च औसत उत्सर्जन तीव्रता और कर्ज के स्तर की वजह से भारत में बिजली उत्पादन कंपनियां संभावित रूप से ग्रीन ऊर्जा में बदलाव के लिए बाधा है. मुट्ठी भर ऊर्जा-गहन क्षेत्रों जैसे सीमेंट, लोहा और इस्पात, नॉन फेरस मेटल और नागरिक उड्डयन की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है. इन कंपनियों का भी उत्सर्जन का स्तर काफी ज्यादा है और ये कंपनियां कर्ज में फंसी है. ऐसे में इन कंपनियों से भी ऊर्जा के क्षेत्र में बदलाव लाने की उम्मीद नहीं की जा सकती है. ये कंपनियां लो कार्बन ट्रांजिशन के मामले में एक बड़ी चुनौतियां हैं.’
विश्लेषण के अनुसार, खनन क्षेत्र में उधार दिए जाने वाले 60 फीसदी हिस्सा तेल और गैस निष्कर्षण के लिए है, जबकि विनिर्माण क्षेत्र में कर्ज का 20 फीसदी हिस्सा पेट्रोलियम रिफाइनिंग और उससे जुड़े उद्योगों के लिए है.
भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और कार्बन का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है. अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने कहा है कि 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन हासिल करने की प्रतिज्ञा ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने में वैश्विक प्रयासों में महत्वपूर्ण योगदान देगी. इससे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई तकनीक जीवाश्म ईंधन की तरफ चली जाएंगी.
लेकिन भारत का वित्त क्षेत्र इस चुनौती से निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं है. अध्ययन में पाया गया कि सर्वे में शामिल 10 बड़े बैंकों में से सिर्फ चार पर्यावरण, सामाजिक और प्रशासन (ईएसजी) जोखिमों के बारे में जानकारी रखते हैं. जबकि जलवायु परिवर्तन के भौतिक जोखिमों का आकलन कोई भी बैंक नहीं करता है.
निष्कर्ष एक पिछले शोध की पुष्टि करता है, जिसके मुताबिक भारतीय बैंक देश के जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ट्रैक पर बने रहने के लिए जरूरी कार्रवाई के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल रहा है.
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बैंकों में क्लाइमेट एक्सपर्टाइज्ड की कमी
बैंकों की तरफ से लोन देने में किस सेक्टर को प्राथमिकता दी जाती है, इसकी जानकारी जुटाने के अलावा शोधकर्ताओं ने भारत की वित्तीय प्रणालियों में जलवायु परिवर्तन को लेकर जानकारी के अभाव का भी अध्ययन किया. इसमें एक्सिस बैंक, बंधन बैंक, एचडीएफसी बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, इंडसइंड बैंक, नाबार्ड, पंजाब नेशनल बैंक, सेवा बैंक, भारतीय स्टेट बैंक और एसबीआई म्युचुअल फंड को शामिल किया गया था.
अध्ययन में कहा गया है, ‘सात वित्तीय संस्थानों में जलवायु विशेषज्ञता वाला कोई बोर्ड सदस्य नहीं है, जबकि तीन ने इस बारे में कुछ भी कहने से इनकार कर दिया. इनमें से सिर्फ दो संस्थान ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का आकलन करते हैं जबकि एक क्लाइमेट-रिलेटेड ट्रांसमिशन जोखिमों का आकलन करता है.’
रिसर्च कहता है, ‘इसलिए वित्त पेशेवरों के पास जलवायु संबंधी जोखिमों के लिए लेन-देन या पोर्टफोलियो स्तर के जोखिम के बारे में सूचित आकलन करने के लिए डेटा नहीं है.’
रिसर्च के दौरान 154 वित्त पेशेवरों से बात की गई थी. इसमें से 78 फीसदी ने कहा कि वे ईएसजी और जलवायु परिवर्तन जोखिमों से संबंधित अवधारणाओं से अवगत थे, लेकिन सिर्फ 18 प्रतिशत ने परियोजनाओं की तुलना और विश्लेषण करने के लिए ईएसजी जोखिम पद्धतियों को लागू किया है, या इसका उपयोग करना जानते हैं.
अध्ययन में पाया गया कि वित्त पेशेवर ‘शासन के जोखिमों के बारे में सबसे अधिक जागरूक थे और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और संक्रमण जोखिमों के परस्पर संबंधित विषयों पर उनकी पकड़ काफी कम थी.’
ओडीआई ने कहा, ‘कई केंद्रीय बैंकों के लिए शुरूआती प्वाइंट लो-कार्बन ट्रांजिशन जोखिमों का डिस्कलोजर करना है और हमारा अपना विश्लेषण भारत में बढ़ी हुई पारदर्शिता की आवश्यकता को रेखांकित करता है.
रिसर्च में आगे कहा गया है, ‘केंद्रीय बैंकों का कामकाज और कार्रवाइयां हमारे भविष्य की कार्बन-कन्स्ट्रेड अपेक्षाओं को वैध और पुष्ट करती हैं. अन्य संदर्भों में अनुभव बताते हैं कि जोखिम के बारे में फाइनेंसरों की बदलती धारणा जीवाश्म ईंधन संपत्तियों के विकास को बाधित करने में मदद कर सकती है, जो बदले में कार्बन कन्स्ट्रेड की विश्वसनीयता को मजबूत करती है.
पिछले साल, थिंक टैंक क्लाइमेट रिस्क होराइजन्स ने पाया कि देश के जिन 34 बैंकों पर अध्ययन किया गया था, वो सभी जलवायु संबंधित चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार नहीं थे. इस मामले में निजी क्षेत्र के बैंकों ने मामूली बेहतर प्रदर्शन किया था.
(अनुवाद: संघप्रिया मौर्या | संपादनः ऋषभ राज)
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