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Tuesday, 5 November, 2024
होमदेशजेल नहीं जुर्माना- कैसे पर्यावरण कानूनों को और 'सख़्त' बनाने जा रही है मोदी सरकार

जेल नहीं जुर्माना- कैसे पर्यावरण कानूनों को और ‘सख़्त’ बनाने जा रही है मोदी सरकार

केंद्र सरकार ने पिछले हफ्ते तीन पर्यावरण कानूनों के तहत उनके उल्लंघन को अपराध से मुक्त करने की कोशिश करते हुए परामर्श पत्र जारी किए हैं. इस बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि 'आपराधिक दायित्व' वाले प्रावधान अभी तक इन उल्लंघनों को रोकने में प्रभावी नहीं रहे है.

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नई दिल्ली: जल्द ही पर्यावरण संरक्षण कानूनों के तहत कुछ अपराधों के लिए ‘आपराधिक दायित्व’ (क्रिमिनल लाइयबिलिटी) को वित्तीय दंड से बदला जा सकता है, केंद्र सरकार ने पिछले सप्ताह जारी परामर्श पत्रों में यह प्रस्ताव दिया है.

ये प्रस्ताव पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986, जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 और वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 में कुछ प्रावधानों के उल्लंघन को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का प्रयास करते हैं.

विशेषज्ञों का भी कहना है कि आपराधिक दायित्व वाला प्रावधान इन तीन कानूनों के उल्लंघन को रोकने में अभी तक भी प्रभावी नहीं रहा है, लेकिन उनका यह भी कहना हैं कि प्रस्तावित परिवर्तनों को अंतिम रूप दिए जाने के लिए और इस बारे में अधिक स्पष्टता की आवश्यकता है.

प्रस्तावित परिवर्तनों में पर्यावरण को हुए किसी भी नुकसान को कम करने के लिए इन कानूनों का उल्लंघन करने वालों से एकत्र किए गए दंड से एक कोष बनाया जाना शामिल है. जुर्माने की यह राशि 5 करोड़ रुपये तक जा सकती है.

केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने शुक्रवार को जारी एक नोट में कहा, ‘विभिन्न हितधारकों से प्राप्त इनपुट (जानकारी) के आधार पर’ और ‘साधारण उल्लंघनों के लिए कारावास की सज़ा के डर को दूर करने के लिए’ इस तरह के बदलावों का प्रस्ताव किया जा रहा है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, साल 2020 में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम के तहत 992 तथा वायु और जल अधिनियम के तहत 588 मामले दर्ज किए गए थे.

दिप्रिंट के साथ बात करते हुए, वकील और दिल्ली स्थित लीगल इनिशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट नामक एक हिमायती समूह के संस्थापक रित्विक द्त्ता ने कहा, ‘इन कानूनों के तहत आपराधिक मुकदमा चलाना बेहद दुश्वारी का काम है, क्योंकि इसमें एक न्यायिक मजिस्ट्रेट से शिकायत करना होता है, जो इसकी सुनवाई के लिए एक तंत्र स्थापित करेगा, जिसके बाद कोई फैसला सुनाया जा सकेगा. व्यावहारिक रूप से, जो लोग प्रदूषण के कारण पीड़ित हो रहे होते हैं, वे चाहते हैं कि इसके स्रोत को हटा दिया जाए, संसाधनों को बहाल किया जाए और उन्हें जो कुछ भी नुकसान हुआ है, उसके लिए मुआवजा दिया जाए. यह जरूरी नहीं कि इस सब के लिए प्रदूषण फैलाने वाले को गिरफ्तार करने का प्रयास किया जाए.’

वे कहते हैं, ‘इन अधिनियमों में सुधार की आवश्यकता है और आपराधिक दायित्व का हटाया जाना और सिविल रेमेडीज को शुरू करना सही दिशा में एक कदम है.’

मंत्रालय 21 जुलाई तक इन परामर्श पत्रों पर जनता की ओर से मिली प्रतिक्रिया को स्वीकार करेगा.


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क्या हैं प्रस्तावित बदलाव?

पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 (एन्वाइरन्मेंट प्रोटेक्शन एक्ट- ईपीए ) दीर्घकालिक पर्यावरणीय सुरक्षा आवश्यकताओं के अध्ययन, योजना और कार्यान्वयन के लिए प्राथमिक ढांचे (फ्रेम्वर्क) का निर्माण करता है. यह पर्यावरणीय खतरों के प्रति प्रतिक्रिया करने के लिए एक प्रणाली भी प्रदान करता है.

मौजूदा फ्रेम्वर्क के तहत, ईपीए पांच साल तक की सजा अथवा 1 लाख रुपये तक के जुर्माने या फिर दोनों का प्रावधान करता है. प्रस्तावित बदलावों के अनुसार, इस अधिनियम का पालन नहीं करने वाला कोई भी व्यक्ति न्यूनतम 5 लाख रुपये का जुर्माना अदा करने के लिए उत्तरदायी होगा, और यह राशि 5 करोड़ रुपये तक भी हो सकती है.

सरकार एक एड्जूडिकेटिंग ऑफीसर (न्यायनिर्णायक अधिकारी) की नियुक्ति का प्रस्ताव कर रही है जो इन दंडों को लागू करेगा, और इसके ज़रिए हुई आय को इसी उद्देश्य के लिए स्थापित एक ‘पर्यावरण संरक्षण कोष’ में भेज दिया जाएगा.

परामर्श पत्र में कहा गया है कि हालांकि ईपीए का किसी भी तरह से अनुपालन न किया जाना वित्तीय दंड का कारण बनेगा, ‘गंभीर उल्लंघन जो गंभीर चोट या जीवन की हानि का कारण बनता है,’ के मामलों में अपराधियों पर भारतीय दंड संहिता के तहत आपराधिक आरोप भी लगाए जाएंगे.

इसी तरह, सरकार वायु और जल अधिनियमों के उल्लंघन के लिए लगाए गए आर्थिक दंड से क्रमशः वायु और जल प्रदूषण निवारण कोष बनाने का प्रस्ताव कर रही है.

वर्तमान में, इन कानूनों के उल्लंघन के लिए छह साल तक की जेल की सज़ा हो सकती है. वायु अधिनियम में प्रस्तावित परिवर्तनों में केंद्र सरकार को कुछ श्रेणियों के उद्योगों को – जो ‘ग्रीन या गैर-प्रदूषणकारी’ हैं- अपनी इकाइयों को स्थापित करने के लिए राज्य बोर्ड की पूर्व सहमति लेने से विशेष छूट देने का अधिकार देना शामिल है. हालांकि, परामर्श पत्र में यह भी कहा गया है कि अगर इस तरह की छूट की मांग नहीं की जाती है, तो उल्लंघनकर्ता को इसी अधिनियम की धारा 21 के तहत आपराधिक रूप से उत्तरदायी होना होगा.

चूंकि पानी का विषय संविधान की समवर्ती सूची – वे क्षेत्र जिन पर राज्यों और केंद्र सरकार दोनों का अधिकार है – में है, इसलिए परामर्श पत्र में कहा गया है कि प्रस्तावित संशोधन तभी लागू किए जा सकेंगें जब कम से कम दो राज्यों द्वारा संसद को इस बारे में विचार करने के लिए’ अधिकार देने वाले प्रस्ताव पारित किए जाएं.

क्या जुर्माना काम करेगा?

दत्ता इस बात को लेकर आशावादी हैं कि आपराधिक दायित्व वाले प्रावधान के हटने से इन कानूनों के उल्लंघन को नियंत्रित करना आसान हो जाएगा, लेकिन सभी कानूनी विशेषज्ञ इस को लेकर आश्वस्त नहीं हैं.

पर्यावरण संबंधी मामलों की वकील और शोधकर्ता कृतिका दिनेश ने कहा,’ ‘मैं मानती हूं कि आपराधिक दायित्व वाले प्रावधान ने कोई खास काम नहीं किया है, लेकिन क्या जुर्माना लगाना ऐसा कर पाएगा ? प्रस्तावित परिवर्तन इस तरह की धारणा को और अधिक पुष्ट करने के जोखिम वाले हैं कि इन नुकसानों – चाहे वह पर्यावरण से जुड़ा हो या स्वास्थ्य संबंधी – की भरपाई पैसे से की जा सकती है.’

दिनेश ने यह भी कहा कि प्रस्तावित संशोधन पर्याप्त रूप से यह नहीं बताते हैं कि इस कोष का उपयोग कैसे किया जाएगा, या फिर जुर्माने के संशोधित आंकड़ों के पीछे क्या तार्किक आधार है. वे कहती हैं, ‘इस कोष के साथ, पर्यावरणीय क्षति के कारणों को समझने और इस बात को जानने का प्रयास किया जाना चाहिए और उसका समाधान कैसे किया जाना चाहिए.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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