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Thursday, 25 April, 2024
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कार्यपालिका औपनिवेशिक शासकों की तरह काम कर रही, सरकार की आलोचना देशद्रोह नहीं : पूर्व जस्टिस माथुर

इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर, जो 13 अप्रैल को सेवानिवृत्त हुए थे, ने कोविड-19 महामारी को लेकर न्यायिक दखल का बचाव किया है.

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नई दिल्ली: न्यायापालिका, ‘ऐसे समय में जब इस देश के लोग गहरे अवसाद की स्थिति में हैं और हर पल मौत के खतरे और डर के साये में जी रहे हैं, और जहां यह भावना बढ़ रही है कि कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को हर तरह की सुरक्षा मिल रही है लेकिन बड़ा वर्ग असहाय है, एकदम निष्क्रिय अवस्था में’ नहीं बनी रह सकती है.

गत 13 अप्रैल को सेवानिवृत्त हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में यह कहते हुए कोविड-19 महामारी के बीच न्यायिक हस्तक्षेप का बचाव किया कि ‘संवैधानिक अदालतें अपने अधिकारों और अधिकार क्षेत्रों को बहुत अच्छी तरह से जानती हैं.’

न्यायाधीश ने कहा, ‘अदालतें नीति या प्रशासनिक मामलों में तभी दखल देती हैं जब इस बात से संतुष्ट होती हैं कि किसी नीति या प्रशासन के कारण नागरिकों या किसी व्यक्ति के महत्वपूर्ण अधिकारों को गंभीर चोट पहुंच रही है.’

2004 में अपना न्यायिक करियर शुरू करके मूल संवैधानिक मूल्यों और ‘नागरिक अधिकारों के रक्षक’ के तौर पर अपनी एक अलग छवि बनाने वाले जस्टिस माथुर ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान कई प्रमुख मामलों का निपटारा किया.

उन्होंने उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार के कई फैसलों पर सवाल उठाया और दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ के दिए गए एक भाषण के लिए डॉ. कफील खान पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत लगे आरोपों को खारिज कर दिया. एक अन्य उल्लेखनीय फैसले में उन्होंने सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाने के आरोपियों के खिलाफ ‘नाम से साथ आलोचना’ करने वाले पोस्टर लगाए जाने को लेकर लोगों के खिलाफ राज्य सरकार की खिंचाई की.

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जस्टिस माथुर ने इंटरव्यू के दौरान इस बात पर खेद जताया कि कार्यपालिका ‘अब भी औपनिवेशिक शासकों की तरह काम कर रही है’ और राजद्रोह कानून पर अदालती फैसलों और आदेशों की अनदेखी कर रही है. उन्होंने कहा, ‘यह सर्वमान्य तथ्य है कि सरकार की आलोचना कानूनन राजद्रोह नहीं है.’

जस्टिस माथुर न्यायपालिका के भी आलोचक रहे हैं, और उन्होंने कहा कि जब गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) और एनएसए के तहत गिरफ्तार लोगों को जमानत देने पर विचार करने की बात आती है तो यह संवैधानिक मूल्यों और भारतीय नागरिकों के अधिकारों के बारे में पूरी तरह सतर्क नहीं होती है.

उन्होंने लोकतंत्र की अवधारणा को लेकर भारतीयों में समझ की कमी बताते हुए इस पर खेद जताया, और कहा कि अब भी न्यायपालिका के कुछ सदस्य संविधान के अंतर्निहित दर्शन से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं.

उन्होंने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली को ‘सबसे खराब सिस्टम’ बताया. उन्होंने कहा कि इसे खत्म किया जाना चाहिए. वह न्यायाधीशों के सेवानिवृत्ति के बाद अर्ध-न्यायिक निकायों की जिम्मेदारी संभालने के भी खिलाफ है.

‘एक पुराना राग’

भारत जैसे ही कोविड की जानलेवा दूसरी लहर की चपेट में आया, कई हाई कोर्ट ने आगे आकर स्थिति के प्रबंधन के संबंध में राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों के साथ-साथ केंद्रीय प्रशासन को निर्देश जारी किए. हालांकि, कुछ ने आदेशों की इस तरह एकदम बाढ़ आ जाने पर उठाए भी उठाए. आलोचनाओं के बारे में पूछे जाने पर जस्टिस माथुर इसे खारिज करते हैं.

जस्टिस माथुर ने कहा, ‘यह तो एक पुराना राग है जो एक वर्ग बार-बार या तो कार्यपालिका की गलतियां छिपाने या हमारे देश में विकासित होते कानून की गतिशीलता को समझने में नाकाम रहने पर गाया जाता है.’

उन्होंने कहा, ‘यही ऐसी परिस्थितियां हैं जहां अदालतों को सरकार की सहायता के लिए आगे आना चाहिए, और सभी प्रभावित लोगों की मदद के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए.’

उन्होंने कहा कि प्रशासन का ‘खराब प्रबंधन’ निश्चित तौर पर मौतों के लिए जिम्मेदार है’ और ‘नागरिकों के जीवन को गंभीर चोट पहुंचा रहा है.’

इसी माह सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी पर कि ‘असंभवता का सिद्धांत’—कांट्रैक्ट लॉ संबंधी एक अवधारणा जो वो स्थितियां संदर्भित करती है जहां किसी एक पक्ष के लिए अनुबंध के तहत अपने दायित्व निभाना असंभव होता है—हाई कोर्टों में भी लागू होता है, जस्टिस माथुर ने कहा कि यह तो एक मान्य सिद्धांत है. उन्होंने कहा कि अदालतें अमूमन ऐसे आदेश पारित ही नहीं करतीं जो लागू न हो सकते हों.

सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के 17 मई के एक आदेश पर रोक लगाते हुए यह टिप्पणी की थी जिसमें उसने राज्य में बुनियादी स्वास्थ्य ढांचे के विकास के लिए कई कदम उठाने का सुझाव दिया था और कहा था कि यूपी के गांवों और छोटे शहरों में संपूर्ण स्वास्थ्य प्रणाली ‘राम भरोसा’ है.

उन्होंने हाई कोर्ट के इस फैसले का बचाव करते हुए कहा, ‘मैंने इस आदेश को पढ़ा है. बेहतर होता अगर सुप्रीम कोर्ट उस निर्देश पर चर्चा करता जो कि उसकी राय में लागू करने की स्थिति में नहीं था.’

कॉलेजियम सिस्टम ‘खराब’

जस्टिस माथुर ने सरकार के खिलाफ उठने वाली आवाजों से निपटने के लिए राजद्रोह कानून के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल को लेकर भी नाराजगी जताई. उन्होंने कहा, ‘यह वास्तव में दुखद है कि हमारी कार्यपालिका सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कानून स्वीकार नहीं कर रही है.’

उन्होंने कहा कि यह एक स्थापित धारणा है कि सरकार के विचारों से अलग राय रखना देशद्रोह नहीं है.

उन्होंने कहा, ‘यह बहुत पहले 1962 में ही निर्धारित किया गया था और फिर कई अन्य मामलों के साथ इसमें सकारात्मक बदलाव भी हुए. लेकिन कार्यपालिका इसे स्वीकार नहीं करना चाहती. उसके मुताबिक असहमति की कोई भी आवाज देशद्रोह है.’


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उन्होंने भारतीय दंड संहिता की देशद्रोह से निपटने संबंधी धारा 124ए को 1973 के पहले की तरह एक गैर-संज्ञेय अपराध (जमानती, और जिसमें किसी आरोपी को अदालती वारंट के बिना गिरफ्तार नहीं किया जा सकता और पुलिस कोर्ट की अनुमति के बिना जांच शुरू नहीं कर सकती) बनाने का आह्वान किया.

उन्होंने कहा, ‘एक अहम पहलू यह है कि हमने अपने संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों को स्वीकार नहीं किया है. लोकतंत्र के बारे में हमारी समझ केवल शासन के लिए जरूरी आंकड़े गिनने तक ही सीमित है और (हम) यह स्वीकार नहीं करते कि यह जीवन जीने का एक तरीका भी है. आप केवल सत्ता संभालने जैसी तमाम गतिविधियों के लिए कोई शासक और कोई तानाशाह या सामंतवादी चुनने भर के लिए लोकतांत्रिक नहीं हो सकते.’

जस्टिस माथुर ने इस बात पर जोर दिया कि एहतियातन हिरासत—उदाहरण के तौर पर एनएसए के तहत—दुर्लभतम मामलों में ही होनी चाहिए, न कि ऐसे मामलों में जिसे सामान्य कानून के तहत निपटाया जा सकता हो.

उन्होंने न्यायपालिका से भी आग्रह किया कि ऐसे मामलों में संवैधानिक मूल्यों और भारतीय नागरिकों के अधिकारों को लेकर अधिक सतर्क रहें, जहां असहमति को दबाने की कोशिश की जाती है.

उन्होंने कहा, ‘हम उस दर्शन से पूरी तरह वाकिफ ही नहीं है जिस पर हमारा संविधान आधारित है. न्यायपालिका के सदस्यों को इसका पूरा ज्ञान न होना निश्चित तौर पर हमारी न्याय व्यवस्था को चोट पहुंचा रहा है.’

जस्टिस माथुर ने यह भी कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम प्रणाली लीगल प्रैक्टिशनर के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा रही है और अधिवक्ताओं और न्यायिक अधिकारियों के बीच चाटुकारिता की प्रवृत्ति को बढ़ा रही है. उन्होंने कहा, ‘हमारे पास एक बेहतर व्यवस्था होनी चाहिए.’

उन्होंने कहा कि अर्ध-न्यायिक निकायों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति इन न्यायाधिकरणों के उद्देश्य को विफल करती हैं क्योंकि ये विशेषज्ञों वाले मंच हैं. जस्टिस माथुर ने कहा, ‘ये निकाय दीवानी अदालतों के समान हो गए हैं. न्यायाधीशों को ऐसी नियुक्तियों की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि उन्हें वैसे भी सेवानिवृत्ति के बाद उत्कृष्ट लाभ मिलते हैं.’

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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