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Thursday, 28 March, 2024
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लोकपाल बनने के तीन साल बाद भी ठीक से शुरू नहीं हुआ काम, शिकायतें ठंडे बस्ते में, नीयत पर उठे सवाल

लोकपाल से इस्तीफा देने वाले पूर्व जज से लेकर अन्ना हजारे आंदोलन से जुड़े रहे तमाम सदस्यों तक कई लोगों का कहना है कि भ्रष्टाचार पर नजर रखने लिए 2019 में बनी संस्था ‘दंतविहीन’ है और शायद ऐसा जानबूझकर ही किया गया है.

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नई दिल्ली: करीब एक दशक पहले देश को नैतिकता के रास्ते पर लाने की भावना एकदम चरम पर पहुंच गई थी. सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के नेतृत्व में देशभर में हजारों लोग पूरे जोश के साथ विरोध-प्रदर्शन और नारेबाजी करते हुए सड़कों पर उतर आए था. सभी का एक सुर में कहना था कि सत्ता में विभिन्न स्तरों पर कायम भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के लिए एक सशक्त संस्था यानी कि लोकपाल का गठन किया जाए.

2011 में शुरू हुए अन्ना आंदोलन ने कई महीनों तक भारत में सब कुछ एकदम ठप-सा कर दिया और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार को लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 पारित करने पर बाध्य होना पड़ा. इसके बाद छह साल और लग गए जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने देश में पहली बार भ्रष्टाचार विरोधी निगरानी संस्था के लिए कोई नियुक्ति की.

हालांकि, पूरे धूमधाम से स्थापित किए जाने के तीन साल बाद भी लोकपाल न केवल उम्मीदों पर खरा उतरने में नाकाम रहा है बल्कि इसे लेकर बढ़ा-चढ़ाकर किए गए दावे भी बेमानी ही साबित हुए हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस महान विचार पर इसी तरह अमल किया जाना था.

मौजूदा और पूर्व प्रधानमंत्रियों, केंद्रीय मंत्रियों, पूर्व सांसदों और केंद्रीय कर्मचारियों समेत राष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनिक पद पर बैठे पदाधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के उद्देश्य के साथ गठित लोकपाल में एक अध्यक्ष के अधीन चार न्यायिक और चार गैर-न्यायिक सदस्य रखे जाने का प्रावधान है. लेकिन, अस्तित्व में आने के करीब तीन साल बाद भी ऐसा कुछ याद नहीं आता कि लोकपाल की तरफ से भ्रष्टाचार के किसी बड़े मामले में जांच की गई हो.

लोकपाल वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि अब तक अधिकांश शिकायतें छोटी-मोटी या लोकपाल के अधिकार क्षेत्र से बाहर की ही रही हैं. पिछले कुछ सालों में शिकायतों की संख्या में भी भारी गिरावट आई है, यहां तक कि छोटी-मोटी शिकायतें भी नहीं आ रही हैं. 2021 के पहले सात महीनों (जिस अवधि तक का डेटा ही उपलब्ध है) में सिर्फ 30 शिकायतें दर्ज की गई हैं और कई प्रमुख पद खाली पड़े हैं.

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2011 में पुणे में भ्रष्टाचार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन | फोटो: Commons

लोकपाल के कामकाज को लेकर सबसे बड़ा सवाल तो खुद उसके अंदर से ही उठा है. मार्च 2019 में नियुक्त चार न्यायिक सदस्यों में से एक इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस दिलीप बी. भोसले ने शपथ लेने के ठीक नौ महीने बाद व्यक्तिगत कारणों के साथ-साथ कोई खास न काम होने की बात कहते हुए 6 जनवरी 2020 को इस्तीफा दे दिया था.

जस्टिस भोसले ने दिप्रिंट को बताया, ‘मुझे लगा कि मैं अपना समय बर्बाद कर रहा था. मैं एकदम खाली बैठा रहता था. मेरे पास एक महीने में लगभग 15-20 केस आते थे. इलाहाबाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के तौर पर मुझे दिन में 14-15 घंटे काम करने की आदत थी, महीने में 50 से 100 तक मामले आते थे. मुझे पता चला है कि मेरे हटने के बाद भी बहुत कुछ नहीं बदला है. अगर, लोकपाल इसी तरह से काम करता रहा तो अपने उद्देश्य से पूरी तरह भटक जाएगा. इसका कोई मतलब नहीं रहेगा.

ऐसी राय रखने वाले वह अकेले व्यक्ति नहीं हैं. दिप्रिंट ने कई सेवानिवृत्त सिविल सेवकों, न्यायाधीशों और नागरिक समाज कार्यकर्ताओं के अलावा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जुड़े रहे कई लोगों से भी बातचीत की तो यह तथ्य सामने आया कि उनका भी लोकपाल से मोहभंग हो चुका है.

आम आदमी पार्टी (आप) के पूर्व नेता आशुतोष जो अन्ना आंदोलन में सबसे सक्रिय थे उनका कहना है कि उनकी राय में सरकार कभी लोकपाल को सफल होने ही नहीं देना चाहती थी.

मौजूदा रिक्तियों और लोकपाल के पास दायर विभिन्न शिकायतों की स्थिति जानने के लिए दिप्रिंट ने लोकपाल अध्यक्ष पिनाकी चंद्र घोष, गैर-न्यायिक सदस्य दिनेश कुमार जैन और लोकपाल सचिवालय को एक विस्तृत प्रश्नावली ई-मेल के जरिए भेजी लेकिन यह रिपोर्ट प्रकाशित किए जाने के समय तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई थी.


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खाली पद, एक धीमी शुरुआत

लोकपाल में चार न्यायिक पदों में से दो 2020 से ही खाली पड़े हैं जिनमें से एक पर जस्टिस भोसले काबिज थे और दूसरा पद छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य जज जस्टिस अजय कुमार त्रिपाठी के पास था जिनका मई 2020 में कोविड-19 के कारण निधन हो गया.

एक सरकारी सूत्र ने दिप्रिंट को बताया कि लोकपाल सचिवालय में कई प्रमुख पदों पर नियुक्तियां की जानी अभी बाकी हैं जिसमें कर्मचारियों की स्वीकृत संख्या 124 है. जांच निदेशक (भ्रष्टाचार की शिकायतों की प्रारंभिक जांच का जिम्मा संभालने के लिए) और निदेशक अभियोजन के अहम पद अभी खाली हैं.

मौजूदा समय में लोकपाल की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज और आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस घोष कर रहे हैं. दो सेवारत न्यायिक सदस्यों में ओडिशा हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस प्रदीप कुमार मोहंती और मणिपुर हाई कोर्ट की पूर्व चीफ जस्टिस अभिलाषा कुमारी शामिल हैं.

चार गैर न्यायिक सदस्यों में रिटायर पुलिस अधिकारी अर्चना रामसुंदरम जो सीमा सुरक्षा से जुड़े संगठन सशस्त्र सीमा बल की पूर्व महानिदेशक हैं, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य सचिव दिनेश कुमार जैन, केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर और सीमा शुल्क बोर्ड के पूर्व सदस्य महेंद्र सिंह और गुजरात मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन के पूर्व प्रबंध निदेशक डॉ इंद्रजीत प्रसाद गौतम शामिल हैं.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और पहले लोकपाल जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष | फोटोः स्वपन महापात्रा/PTI

लोकपाल सक्रिय ढंग से काम नहीं कर रहा है. यह इससे भी जाहिर है कि वह अपने लिए 2019-20 के बजट में आवंटित राशि का पूरी तरह उपयोग नहीं कर पाया है. लोकपाल को 2019-20 के लिए 101.29 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे लेकिन बाद में संशोधित कर 18.01 करोड़ कर दिया गया. 2020-21 में मूल आवंटन 74.7 करोड़ रुपए था जिसे संशोधित कर 29.67 करोड़ रुपए कर दिया गया. 2021-22 में लोकपाल को 39.67 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं.

आवंटित बजट का एक हिस्सा दिल्ली के वसंत कुंज इंस्टीट्यूशनल एरिया में लोकपाल के लिए एक स्थायी दफ्तर बनाने में इस्तेमाल किया गया था जहां इसे फरवरी 2020 में शिफ्ट किया गया. इससे पहले लोकपाल अशोका होटल में अपने अस्थायी कार्यालय से काम कर रहा था.

हालांकि, पूर्व न्यायिक सदस्य जस्टिस भोसले का कहना है कि यह संस्था कभी जमीनी स्तर पर ठीक से आकार ही नहीं ले पाई.

जनवरी 2020 में इस्तीफा देने से पहले जस्टिस भोसले ने लोकपाल अध्यक्ष को आधिकारिक कार्य में परेशानी के साथ-साथ जांच और अभियोजन इकाइयों समेत विभिन्न प्रमुख पदों पर रिक्तियों को लेकर तीन शिकायती पत्र लिखे थे.

भोसले ने दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने अध्यक्ष से बार-बार आग्रह किया कि नियम तय करने में तेजी लाई जाए क्योंकि इसके अभाव की वजह से लोकपाल को या तो छोटी-मोटी शिकायतें मिल रही थीं या ऐसे मामले आ रहे थे जो उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आते.

जस्टिस भोसले ने कहा, ‘लोकपाल सभी के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण संस्था है. मैं बार-बार कहता रहा इसकी भूमिका पर बात करने, जागरूकता बढ़ाने आदि के लिए अखिल भारतीय स्तर के सम्मेलन और सेमिनार आयोजित किए जाने चाहिए लेकिन मेरे सुझावों पर कभी ठीक से ध्यान ही नहीं दिया गया.’

उन्होंने बताया, ‘पहले दो-तीन महीनों के दौरान मैंने भारतीय विधि संस्थान के दो शोध छात्रों की मदद से नियमों-कानूनों का मसौदा तैयार किया और अन्य सदस्यों से उस पर सुझाव लेने के बाद उन्हें अध्यक्ष के सामने रखा. कई बार कहने के बावजूद मेरे कार्यकाल के दौरान उन पर कोई चर्चा नहीं की गई.’

भ्रष्टाचार विरोधी संस्था की स्थापना के एक साल बाद, 3 मार्च 2020 को, केंद्र ने आखिर लोकपाल के पास शिकायत दर्ज कराने संबंधी नियमों को अधिसूचित किया.

नियमों के तहत लोकपाल उन मामलों को अपने हाथ में ले सकता है जो भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत आते हैं और कथित तौर पर शिकायत दर्ज होने से पहले सात साल में हुए हों. लोकपाल अधिनियम भ्रष्टाचार विरोधी निकाय को ऐसे मामले लेने से रोकता है जो संसद के किसी सदन या किसी अन्य प्राधिकरण की समिति के समक्ष विचाराधीन या लंबित हों.


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‘घटती शिकायतें भ्रष्टाचार में गिरावट का संकेत नहीं’

लोकपाल की स्थापना के बाद से उसके पास दर्ज शिकायतों की संख्या में अप्रत्याशित रूप से गिरावट आई है. 2019-20 में जहां 1,427 शिकायतें दर्ज की गईं, जुलाई 2021 तक इनकी संख्या केवल 30 रह गई थी, जैसा पहले उल्लेख किया गया.

लोकपाल वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, 2019-20 में मिली 1,427 शिकायतों में से चार केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों के खिलाफ और 245 केंद्रीय सरकारी अधिकारियों के खिलाफ थीं. हालांकि, अधिकांश शिकायतों—इनमें से 1,219—को खारिज कर दिया गया क्योंकि वे लोकपाल के अधिकार क्षेत्र से बाहर थीं, जबकि 89 मामलों में शिकायतकर्ताओं को अपनी बात निर्धारित फॉर्म पर भरकर देने की सलाह दी गई. 111 मामलों को या तो प्रारंभिक जांच के बाद बंद कर दिया गया, या खारिज कर दिया गया क्योंकि वे अन्य प्राधिकारों के समक्ष विचाराधीन थे या फिर उन पर अन्य संबंधित अधिकारियों को उचित कार्रवाई के लिए निर्देशित किया जा चुका था.

दो मामलों में जांच रिपोर्ट आयकर महानिदेशक और केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर और सीमा शुल्क बोर्ड के पास लंबित है, और केवल एक मामला, जिसमें संबंधित प्राधिकारी से स्थिति/जांच रिपोर्ट मिली थी, ही इस समय लोकपाल के विचाराधीन है.

2020-21 में 110 शिकायतें मिली थीं. इनमें से 94 मामलों को प्रारंभिक जांच के बाद या प्रारंभिक जांच रिपोर्ट पर विचार करने के बाद बंद कर दिया गया. 30 मामलों में प्रारंभिक जांच के आदेश दिए गए हैं. इनमें से 14 शिकायतें केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के पास लंबित हैं.

2021 में जुलाई तक दर्ज 30 शिकायतों में से 11 में प्रारंभिक जांच के बाद मामला बंद कर दिया गया और बाकी जांच के विभिन्न चरणों में हैं.

पूर्व केंद्रीय गृह सचिव माधव गोडबोले के मुताबिक, शिकायतों की घटती संख्या को इस रूप में नहीं देखा जाना चाहिए कि देश में भ्रष्टाचार घट हो रहा है, बल्कि इसे इस बात का संकेत माना जाना चाहिए कि लोगों में संस्था के प्रति ‘विश्वास’ की कमी है.

गोडबोले ने दिप्रिंट से कहा, ‘जिस तरह से नियुक्तियां की गई थीं, उससे लोगों का संस्था में भरोसा नहीं रह गया है…चयन समिति में सरकारी प्रतिनिधियों की भरमार है.’ उन्होंने साथ ही जोड़ा कि अधिकांश राज्यों में लोकायुक्त के संबंधित संस्थान पूरी तरह से निष्क्रिय पड़े हैं.

पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जी.के. पिल्लई ने दिप्रिंट को बताया कि लोकपाल के साथ एक समस्या ये भी है कि शीर्ष स्तर पर अत्यधिक भारी संगठन है. उन्होंने कहा, ‘एक संस्था के तौर पर लोकपाल दंतविहीन हो गया है. व्यवस्था में कोई पारदर्शिता नहीं है. यही कारण है कि कोई भी शिकायत दर्ज कराने के लिए आगे नहीं आ रहा है.’


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लोकपाल को ‘सफल बनाने की कोशिश ही नहीं की’

आम आदमी पार्टी (आप) के पूर्व नेता और वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष अन्ना आंदोलन के प्रमुख चेहरों में से एक थे और उन्होंने 2012 में इस पर एक किताब भी लिखी जिसका शीर्षक था अन्ना: 13 डेज दैट अवेकन्ड इंडिया. उनका भी आज लोकपाल से मोहभंग हो चुका है.

आशुतोष ने दिप्रिंट को बताया, ‘सरकार ने जिस तरह से लोकपाल की परिकल्पना की है वो उसे सफल बनाने वाली नहीं है.’ उनके मुताबिक, मौजूदा समय में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सहित आंदोलन के अन्य तमाम योद्धा ‘सिस्टम में ढल गए हैं.’

आशुतोष ने कहा, ‘राजनीतिक वर्ग कभी नहीं चाहता कि कोई भी संस्था भ्रष्टाचार के खिलाफ आगे बढ़े.’

उनके मुताबिक अब तो सिविल सोसाइटी के नेता भी आंखें मूंदना ही बेहतर समझते हैं. उन्होंने कहा, ‘उन्हें डर है कि अगर उन्होंने आवाज उठाई तो उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. अन्ना हजारे आज कहां हैं? लोकपाल के अधिकार विहीन निकाय बनने पर वह अनशन पर क्यों नहीं बैठे? ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें डर है कि मौजूदा सरकार उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर देगी.’

जस्टिस भोसले ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करने वाले नेताओं के भी चुप्पी साध लेने पर निराशा जताई. जस्टिस भोसले ने सवाल उठाया, ‘वे सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार की शिकायतों को लेकर आगे क्यों नहीं आए, जिनके बारे में उनका दावा था कि वे देश को खोखला कर रहे हैं? क्या उन्होंने लोकपाल के पास एक भी शिकायत भेजी है?’

हालांकि, सूचना का अधिकार (आरटीआई) कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज का कहना कि लोकपाल कानून मजबूत था लेकिन पर ठीक से अमल नहीं किया गया. भारद्वाज ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम मसौदा तैयार करने की प्रक्रिया का हिस्सा थे. यह एक काफी सशक्त कानून है लेकिन इस पर जिस तरह अमल किया जा रहा है. उसकी वजह से यह शक्ति विहीन हो गया है. संस्था में शायद ही कोई पारदर्शिता है.’

‘केवल विपक्षी दल चाहते हैं मजबूत लोकपाल’

संसद में जब लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 2013 पारित हुआ था तब अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह जैसे प्रमुख बीजेपी नेताओं ने इसका जमकर समर्थन किया था और इसे ‘उल्लेखनीय उपलब्धि’ करार दिया था. राजनाथ सिंह ने तो यहां तक कहा था कि यह ‘भारत के संसदीय लोकतंत्र में एक ऐतिहासिक दिन है.’

बहरहाल, आलोचकों का कहना है कि एनडीए सरकार ने आखिरकार लोकपाल का गठन भले ही कर दिया हो लेकिन उसने इसे सशक्त बनाने के लिए कोई खास प्रयास नहीं किए हैं.

अगस्त 2006 से 2011 तक कर्नाटक के लोकायुक्त रहे जस्टिस संतोष हेगड़े ने दिप्रिंट को बताया कि लोकपाल संस्था केवल ‘नाम के लिए’ ही अस्तित्व में है और उसे भ्रष्टाचार और कुप्रशासन से लड़ने के लिए पूरी शक्तियां ही नहीं मिली हैं.

उन्होंने कहा, ‘लोकपाल को अपेक्षित वैधानिक शक्ति या आवश्यक बुनियादी ढांचा (ठीक से काम करने के लिए) तक नहीं दिया गया.’

हेगड़े ने कहा कि जब कोई राजनीतिक दल विपक्ष में होता है तो एक मजबूत लोकपाल के लिए लड़ता है लेकिन जब वही दल सत्ता में आ जाता है तो विपक्ष में रहने के दौरान अपनी तरफ से की जाती रही ‘मांग को पूरा नहीं करता.’

उनके अनुसार, ये रवैया कर्नाटक लोकायुक्त के मामले में भी स्पष्ट नजर आया है जिसे स्थापित तो 1984 में किया गया था लेकिन वास्तव में यह सक्रिय हो पाया 2001 में जस्टिस एन. वेंकटचला के नेतृत्व में जस्टिस हेगड़े ने कहा कि कर्नाटक के लोकायुक्त ने करीब एक दशक तक भ्रष्टाचार के खिलाफ शानदार ढंग से काम किया. जस्टिस हेगड़े ने कहा, ‘कर्नाटक के लोकायुक्त ने खनन घोटाले में तीन अलग-अलग राजनीतिक दलों के तीन मुख्यमंत्रियों के खिलाफ शिकायतें दर्ज की थी जो खनन घोटाले के समय सत्ता में थे. इसने भ्रष्टाचार में लिप्त मंत्रियों, विधायकों और आईएएस अधिकारियों के खिलाफ भी कार्रवाई की.’

हालांकि, 2016 में कर्नाटक की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत लोकायुक्त को मिला जांच का अधिकार छीन लिया और उसे सरकारी नियंत्रण वाले एक संगठन, भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को सौंप दिया.

हेगड़े ने कहा, ‘यह बात खुद ही यह साबित करती है कि सत्ता में बैठा कोई भी राजनीतिक दल या प्राधिकरण एक मजबूत लोकपाल नहीं चाहता.’ साथ ही जोड़ा कि इसे केवल दिखावे के लिए बनाया गया है.

उन्होंने कहा, ‘वो तो मतदाताओं के डर से उनमें इन्हें (निकायों को) बंद करने का साहस नहीं है. यह इस तथ्य से भी जाहिर है कि 2018 में जब विपक्षी दल (बीजेपी) सत्ता में आया तो उसने भी कर्नाटक लोकायुक्त को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मिली जांच संबंधी मूल शक्तियां बहाल नहीं कीं.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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