scorecardresearch
Wednesday, 24 April, 2024
होमदेशअर्थजगतअमीर और अमीर हो रहे, गरीब और गरीब- भारत की V बनाम K आर्थिक रिकवरी के सवाल का जवाब

अमीर और अमीर हो रहे, गरीब और गरीब- भारत की V बनाम K आर्थिक रिकवरी के सवाल का जवाब

आय के वितरण और आर्थिक वृद्धि की दिशा को लेकर चिंताएं और गहरी हो गई हैं, और यह चिंता पीछे छूट गए लोगों के प्रति मानवीय हमदर्दी के कारण ही नहीं है.

Text Size:

मौजूदा व्यापक आर्थिक आंकड़ों पर विचार करते हुए अधिकतर टीकाकारों ने ताजा तिमाही (अप्रैल-जून) के लिए जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में वृद्धि के आंकड़े को एक साल पहले कोविड के कारण लॉकडाउन के असर के संदर्भ में देखा है. यह ठीक भी है. इसलिए, पिछले वर्ष के संकट के दौर के मुक़ाबले 20 फीसदी की जोरदार वृद्धि तो हुई है लेकिन जीडीपी एक साल पहले के स्तर के मुक़ाबले 9 फीसदी कम है. लेकिन महीन तर्क का सहारा लेते हुए सरकारी प्रवक्ता ने दावा किया कि जो वृद्धि हासिल की गई है वह 2020-21 वाले ‘निम्न आधार’ के प्रभाव से परे की चीज है.

अधिक विश्वसनीयता के साथ उन्होंने यह भी कहा है कि उत्पादन में अड़चन न आती तो वृद्धि और ऊंची हो सकती थी. अड़चन खासकर इलेक्ट्रॉनिक चिप्स की कमी के रूप में आई, जिसने कारों और उपभोक्ता सामग्री तथा जलपोत कंटेनरों के उत्पादन और बिक्री को प्रभावित किया. कंटेनरों की कमी माल के निर्यात में प्रभावशाली वृद्धि में आड़े नहीं आई, जो अप्रैल-अगस्त के बीच 67 प्रतिशत हुई. एक साल पहले की तुलना में जीडीपी के विपरीत, निर्यातों में भी आश्वस्तिदायक 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इस वृद्धि में कुछ योगदान दुनिया भर में फिर से आर्थिक गतिविधियां शुरू होने का, और जींसों की कीमतों में वृद्धि का भी है. जो भी हो, एक दशक से लगभग ठप पड़े माल निर्यात के मद्देनजर यह जश्न मनाने लायक बात है. आमतौर पर यही माना जाता है कि तेज आर्थिक वृद्धि तभी संभव है जब निर्यात में भी तेज वृद्धि हो. और यह हासिल हुआ है, जो अच्छा संकेत है.


यह भी पढ़ें: मोदी सरकार की 6 ट्रिलियन रु. की मौद्रीकरण योजना खतरों के बीच ख्वाब देखने जैसा क्यों है


इस बीच, एक चीज की ओर कम ध्यान गया है जिसकी ओर संकेत केवल ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने किया है. वह यह कि इस साल अप्रैल-जून के बीच निजी उपभोग 2017-18 वाले स्तर से भी नीचे रहा. उसके बाद से जीडीपी के सभी तत्वों, मसलन सरकारी उपभोग और पूंजी निर्माण में वृद्धि हुई है मगर व्यापार घाटा कम हुआ है. याद रहे कि यह तुलना जीएसटी लागू किए जाने के ठीक पहले की अवधि से की जा रही है. आमतौर पर यह माना जाता है कि जीएसटी के कारण रोजगार देने वाले लघु और मझोले उपक्रमों को काफी परेशानी हुई है. यह भी एक तथ्य है कि 2019-20 के अंत में देशव्यापी लॉकडाउन के कारण बेरोजगारी बहुत बढ़ी और शहरों से गांवों की ओर पलायन हुआ.

इन दो बातों को जोड़कर देखें तो यह बात पक्की लगती है कि अगर कुल उपभोग चार साल से स्थिर है तो निम्न आय वाले तबकों में यह घटा ही होगा. यह वास्तव में बढ़ती असमानता का मामला है, जिस पर बहस 2016 में नोटबंदी की घोषणा के बाद पांच वर्षों की उथल-पुथल में और तेज हुई है. मार्के की बात यह है कि जब भी व्यापक अर्थव्यवस्था के आंकड़ों की बात होती है तब सरकार इस पर लीपापोती करने लगती है. वास्तव में सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने इस बात का खंडन भी किया है कि आर्थिक ‘रिकवरी’ अंग्रेजी के ‘के’ अक्षर के आकार की है जिसमें बेहतर हालात वालों की स्थिति और बेहतर हुई है जबकि गरीब और गरीब हुए हैं.

मार्च में आए ‘पीईडब्ल्यू’ के सर्वे के निष्कर्षों को याद कीजिए, जिनमें बताया गया है कि भारत में मध्यवर्ग के आकार में एक तिहाई की सिकुड़न आई है, 3.2 करोड़ लोग फिसलकर निम्न आय वाले वर्ग में चले गए हैं जबकि 3.5 करोड़ लोग गरीबी के दायरे में पहुंच गए हैं और गरीबों की संख्या बढ़ी है. उसके बाद से आर्थिक ‘रिकवरी’ में अगर रोजगार और उपभोग में भी रिकवरी नहीं हुई है तो निश्चित है कि आर्थिक ‘रिकवरी’ अंग्रेजी के ‘के’ अक्षर के आकार की है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

ऐसे संदर्भ में केवल जीडीपी पर ध्यान देना काफी नहीं है. हालांकि इस आंकड़े को अगर प्रति व्यक्ति के हिसाब से देखा जाए तो यह लोगों के कुशल-क्षेम का मुख्य संकेतक रहा है क्योंकि यह हमेशा रहन-सहन के स्तर और स्वास्थ्य तथा शिक्षा के संकेतक के रूप में सकारात्मक रूप से जुड़ा रहा है. इसलिए आय का वितरण और आर्थिक वृद्धि की प्रवृत्ति चिंता का कारण बनी है, इसका ताल्लुक केवल उन लोगों के प्रति मानवीय हमदर्दी से नहीं है जो पीछे छूट रहे हैं.

अगर बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हैं या उनकी आमदनी इतनी कम है कि वे उपभोग घटाने को मजबूर हैं, तो इससे आर्थिक प्रदर्शन भी प्रभावित होता है. दोनों का असर कुल मांग पर पड़ता है, ये पूंजीगत निवेश को बाधित करते हैं, इसलिए अर्थव्यवस्था की वृद्धि की क्षमता को कमजोर करते हैं. हेनरी फोर्ड ने 1914 में ही यह समझ लिया था कि अपने कर्मचारियों को बेहतर वेतन देना उपभोक्ता मांग को बढ़ावा देने की बेहतर जमीन तैयार करता है. आज सरकार को यही कोशिश करनी चाहिए, और बेरोजगारी के मौजूदा ऊंचे स्तर को कम करने के प्रयास करने चाहिए.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: अयोग्य राष्ट्रपति, अस्पष्ट नीति: बुश से लेकर बाइडन तक, अमेरिका के ‘वर्चस्व’ पर खतरा मंडराने लगा है


 

share & View comments