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Thursday, 21 November, 2024
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पीएम मोदी बड़े आर्थिक मुद्दों की उपेक्षा अब नहीं कर सकते

कहा जा रहा है कि पिछले पांच वर्षों तक खुद को और भाजपा को राजनीतिक रूप से मजबूत बनाने के बाद मोदी अब अर्थव्यवस्था पर ज्यादा ध्यान देंगे.

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राजधानी की कथित प्रबुद्ध जमातों में चर्चा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दूसरा कार्यकाल उनके पहले कार्यकाल से अलग किस्म का होगा. कहा जा रहा है कि पिछले पांच वर्षों तक खुद को और भाजपा को राजनीतिक रूप से मजबूत बनाने के बाद मोदी अब अर्थव्यवस्था पर ज्यादा ध्यान देंगे और अब वे ऐसे कदम उठाएंगे जिन्हें वे पांच साल तक उठाने को तैयार नहीं थे. इसमें शक नहीं है कि अर्थव्यवस्था को फिर से गति देने की जरूरत है, क्योंकि आर्थिक वृद्धि की तिमाही दर पांच साल के न्यूनतम स्तर, 6 प्रतिशत पर पहुंच गई है. पूरे साल की वृद्धि दर उस स्तर से बेहतर नहीं है जिस स्तर पर वह तब थी जब मोदी ने सत्ता संभाली थी. पाठकों को उनका यह शुरुआती वादा याद होगा कि वृद्धि दर को दहाई अंक वाले आंकड़े में लाया जाएगा. आज यह वादा वास्तविकता से तो बहुत दूर है ही, भारत अब यह दावा करने की स्थिति में भी नहीं है कि उसकी अर्थव्यवस्था बाकी सभी बड़े देशों के मुकाबले सबसे तेजी से प्रगति कर रही है. चीन अब फिर से आगे हो गया है. जाहिर है, यह जलती आग (अगर कभी वह जल रही थी) पर पानी डालने जैसा ही है.


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जैसा कि दो सप्ताह पहले मैं इस स्तम्भ में लिख चुका हूं, यह बहुआयामी चुनौती है जिसमें कृषि, मैनुफैक्चरिंग तथा निर्यात के अलावा वित्तीय एवं मौद्रिक नीति में भी (जिसमें उलटफेर करने की बेहद कम गुंजाइश है) समस्याओं की भरमार है. बड़ी कहानी यह हो सकती है कि आर्थिक सुधाररों की पहली झोंक में आर्थिक वृद्धि दर में जो तेजी आई थी वह बाद के 15 वर्षों की अपेक्षाकृत सुस्ती के कारण धीरे-धीरे मंदी पड़ गई. अब ताज़ा गति देने की जरूरत है. क्या सरकार यह गति दे रही है?

परिवर्तन की शुरुआत तो मोदी से ही होगी, जिन्होंने बड़े आर्थिक मसलों में कम ही दिलचस्पी दिखाई है और इनके बदले चुनाव जिताने वाली परियोजनाओं तथा कार्यक्रमों पर ज़ोर दिया है, जो ताज़ा चुनाव नतीजों से साफ है. लेकिन इस तरह की उपेक्षा नहीं जारी रह सकती. प्रधानमंत्री को यह समझने की जरूरत है कि उनके पास क्या-क्या नीतिगत विकल्प उपलब्ध हैं, मसलन यह कि रुपये के विदेशी मूल्य पर सरकार को क्या रुख अपनाना चाहिए ताकि यह मूल्य गिरे और भारतीय निर्यात ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी हो. शुरुआत के लिए, इस धारणा को छोड़ना पड़ेगा कि रुपये को मजबूत ही होना है.

जब माहौल बैंकों तथा कंपनियों की वित्तीय कुव्यवस्था के कारण खराब हो चुका हो, जब बड़ी संख्या में व्यवसायी लोग नया निवेश करने से पहले कर्ज़ को बट्टे खाते में डालने की जुगत में जुटे हों, और उपभोक्ताओं का ध्यान अपने कर्ज़ की ईएमआई पर ही टिका हो तब आर्थिक वृद्धि शायद ही गति पकड़ सकती है. सरकारें उपलब्ध बचतों पर ही हाथ साफ करने में जुटी हैं और बाज़ारी ब्याज दरों को गिरने से रोक रही हैं, जिसके कारण चालू नकदी और भावी निवेश प्रभावित हो रहा है. बीते वित्त वर्ष में कर राजस्व में गिरावट आई है, जबकि इसे बढ़ाने की जरूरत है. लेकिन इस मंदी के दौर में यह कैसे किया जाए, यह एक बड़ा सवाल है.

संक्षेप में, नई वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन के लिए ही नहीं, नए विदेश व्यापार एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल के लिए भी स्पष्ट है कि उन्हें क्या-क्या करना है. उन्हें तुरंत क्या करना है इसका एजेंडा बनाना पड़ेगा और साथ में मध्यवर्ती नीतिगत लक्ष्य भी तय करने होंगे ताकि पूंजी का ज्यादा कुशल उपयोग हो, श्रम बाज़ार ज्यादा लचीला बने, भौतिक बुनियादी ढांचा ऐसा बने कि वह उद्योग तथा व्यापार के लिए प्रभावी सहायक बने. व्यवस्थित सोच-विचार की जरूरत है, न कि कामचलाऊ उपायों की, जिनका ज़ोर सुर्खियां बटोरने को उतावले मंत्रियों द्वारा फौरी जोड़तोड़ पर होता है.


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वित्त मंत्री जीएसटी की दरों की संख्या को तर्कसंगत बनाकर उन्हें नीचे ला सकती हैं. रिजर्व बैंक दरों में और कटौती के लिए ज़ोर लगा सकता है. विनिवेश को फिर जोरदार तरीके से शुरू किया जा सकता है, और इस मामले में एअर इंडिया से शुरुआत की जा सकती है. लेकिन इसकी गंभीर योजना बनानी होगी. सवाल पूछना होगा— खरीदार कहां हैं? इस सेक्टर तथा दूसरे सेक्टरों में विदेशी ख़रीदारों के लिए खिड़की क्या और बड़ी की जाए?

और फिर, कृषि, जल संरक्षण, शिक्षा के स्तर में सुधार से जुड़े क्षेत्रों के सामने मुंह बाये खड़े मसलों का क्या होगा? ये तीनों मसले नए मंत्रियों की जिम्मेदारियां हैं, और अहम सवाल यह होगा की वे किस तरह से काम करते हैं. जैसा कि किसी ने कहा है, राष्ट्र यह जानना चाहता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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