यह स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी सरकार का पिछले सप्ताह लैपटॉप और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामानों के आयात पर प्रतिबंध लगाने का कदम चीन को टारगेट करके उठाया गया है. कुछ भी हो लेकिन लगभग 60 प्रतिशत आयात चीन से ही होता है. बेशक, आधिकारिक संदेश राष्ट्रीय सुरक्षा और इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए वेरीफाइड और विश्वसनीय सप्लाई चेन बनाने के बारे में है. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समझौतों से बाहर निकलने की चाहत रखने वाले देशों का मुख्य आधार ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ ही होता है.
इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी राज्य मंत्री राजीव चन्द्रशेखर द्वारा आयात प्रतिबंध को उचित ठहराते हुए एक ही वाक्य में तीन बार “विश्वसनीय (trusted)” और दो बार “वेरीफाइड (Verified)” शब्द का उपयोग करने से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि एक खास संदेश देने की कोशिश की जा रही है. सरकार इलेक्ट्रॉनिक सामानों का आयात करने वालों को चीन के अलावा अन्य देशों से अपनी आपूर्ति प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहती है.
चीन को लगातार संदेश देते रहना रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है. कूटनीति, अंतर्राष्ट्रीय संबंध और सुरक्षा प्राथमिकताएं इसकी मांग करती हैं. हालांकि, यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि, आर्थिक रूप से, चीन को ‘लाल आंख’ दिखाना उतना ही प्रभावशाली है जितना कि ऐसा संदेश देना.
इससे वास्तव में किसे नुकसान होगा?
चीन को आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचाने के लिए भारत द्वारा हाल ही में किए गए लगभग हर प्रयास को उतनी ही सफलता मिली है जितनी सफलता किसी मटर के दाने को फेंककर हाथी को घायल करने की कोशिश से मिलती है. और यह तब तक जारी रहेगा जब तक हम उस मॉडल को खत्म करने से पहले ‘प्लान बी’ तैयार नहीं कर लेते जिस पर हम निर्भर हैं.
कंपनियों को अपने लैपटॉप की आपूर्ति सुरक्षित करने के लिए अक्टूबर के अंत तक का वक्त देना यह दिखाता है कि सरकार ने ऐक्शन पहले ले लिया लेकिन इसके बारे में सोचा बाद में क्योंकि जब सरकार ने नोटिफिकेशन निकाला था तब उसमें कहा गया था कि यह फैसला “तत्काल प्रभाव” से लागू होगा. एक और बड़ा उदाहरण यह था जब हमें इस साल मई में चीन से सोलर कंपोनेंट्स की खरीद पर प्रतिबंध हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा.
कई मामलों में जहां भारत ने चीनी कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई की है, नुकसान चीन की तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था को अधिक हुआ है, जिससे हमें पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा है. इसे बदलने की ज़रूरत है.
आइए लैपटॉप आयात प्रतिबंध के फैसले से शुरुआत करें. याद रखने वाली पहली बात यह है कि यह आयात प्रतिबंध नहीं है. आयात करने की इच्छुक कंपनियों को बस लाइसेंस के लिए आवेदन करना होगा. सैद्धांतिक रूप से, कंपनियां अभी भी चीन से आयात कर सकती हैं, यदि उन्हें यह लाइसेंस प्राप्त हो जाए तो. यह आयात के लिए स्वतंत्र होने का भ्रम है, लेकिन फिर भी यह प्रतिबंध से अलग है.
समझने वाली दूसरी बात यह है कि भारत के दो-तिहाई लैपटॉप आयात किए जाते हैं, और अधिकांश चीन से आते हैं. एक-तिहाई जो घरेलू स्तर पर ‘निर्मित’ होते हैं, वे वास्तव में केवल असेंबल किए जाते हैं – इसके अधिकांश पार्ट्स विदेश से आते हैं, और बड़े पैमाने पर एक ही देश से आते हैं (अनुमान लगाइए कि वह देश कौन सा होगा).
दूसरी ओर, चीन के लैपटॉप निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 3 प्रतिशत से भी कम है. बीजिंग को इसकी बिल्कुल भी परवाह नहीं है कि नई दिल्ली इस क्षेत्र में व्यापार को प्रतिबंधित करने के लिए क्या करती है. एक बात तो यह है कि जितने अधिक लैपटॉप घरेलू स्तर पर असेंबल किए जाएंगे, भारत पार्ट्स के लिए चीन पर उतना ही अधिक निर्भर होगा. हमारी घरेलू चिप निर्माण क्षमताएं जहां होनी चाहिए, उसकी तुलना में हास्यास्पद रूप से कम हैं.
दूसरा, विदेशों से लैपटॉप के हमारे दो अन्य सबसे बड़े स्रोत दक्षिण कोरिया और ताइवान हैं, दोनों के पास भारत की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए विनिर्माण क्षमता नहीं है, अगर हमारी मांग अचानक उन पर ट्रांसफर हो जाती है, तो आपको क्या लगता है कि अपनी आपूर्ति बनाए रखने के लिए उनका स्रोत क्या या कौन सा देश होगा?
इस सब में, यह संभावना है कि भारतीय उपभोक्ता को कम उपलब्धता और उच्च कीमतों के कारण नुकसान होगा.
घरेलू उद्योग को प्रोत्साहित करने की कोशिश निस्संदेह महत्वपूर्ण है, लेकिन बाजार प्रतिस्पर्धा को कृत्रिम रूप से प्रतिबंधित करने के बजाय सब्सिडी और अन्य प्रोत्साहनों के माध्यम से ऐसा करना बेहतर है. दूसरे शब्दों में, आयात बाधाओं (Import Barriers) को लागू करने के बजाय, प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) योजना पर फिर से विचार करें जो इस क्षेत्र में विफल रही है.
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बार-बार अपनाया जा रहा एक फेल तरीका
यह निर्णय पहली बार नहीं है जब भारत ने चीन को संदेश देने की कोशिश की है.
2020 में, मोदी सरकार ने अपनी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नीति में सही संशोधन करते हुए कहा कि भारत के साथ भूमि सीमा (Land Border) साझा करने वाले देशों की कंपनियां सरकार की मंजूरी के बाद ही यहां निवेश कर सकती हैं. इसका टारगेट भी चीन था, जो भारतीय कंपनियों पर कब्ज़ा करने के लिए कोविड-19 संकट का फायदा उठाने की कोशिश करते पकड़ा गया था.
बेशक ऐसा करना भारत के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था, लेकिन इसका आर्थिक प्रभाव नगण्य था. सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार, अप्रैल 2000 से दिसंबर 2021 की अवधि में भारत में आने वाले सभी एफडीआई में चीन का योगदान 0.43 प्रतिशत था जो कि काफी कम था.
भारत ने भी 2020 में अपनी सार्वजनिक खरीद नीति में संशोधन करके यह अनिवार्य कर दिया कि इनमें केवल लाइसेंस प्राप्त कंपनियां ही शामिल होंगी. इसका एक रणनीतिक उद्देश्य भी था. लेकिन एक आर्थिक आपूर्तिकर्ता के रूप में चीन का महत्व इस तथ्य से पता चला कि, मई 2023 में, सरकार ने सोलर कंपोनेंट का आयात करने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को इस नियम से छूट दे दी.
यानी, चीनी आयात पर प्रतिबंध लगते ही भारत में सौर परियोजनाओं की लागत बढ़ने लगी और इसलिए सरकार को उस प्रतिबंध को हटाना पड़ा.
फिर, कई चीनी ऐप पर प्रतिबंध लगा दिया गया – जिसमें बेहद सफल टिकटॉक भी शामिल है – जिसे भारत ने लागू किया. यह भी राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण फैसला था, इन ऐप्स में इंस्टॉल किए गए मैलवेयर के बारे में चिंताओं के कारण दुनिया भर के कई देशों ने इसको फॉलो किया.
हालांकि, सोशल मीडिया पर सरकार समर्थक मुखर लोगों ने तुरंत इसे चीन और उसकी कंपनियों के लिए एक बड़ा झटका बताया. जो कि सही नहीं है.
टिकटॉक की पैरेंट कंपनी बाइटडांस ने 2022 में 25 बिलियन डॉलर का मुनाफा कमाया, जो कि इसके पिछले साल के लाभ की तुलना में लगभग 80 प्रतिशत अधिक था. हां, टिकटॉक डिवीज़न अभी भी घाटे में है, लेकिन, जैसा कि फाइनेंशियल टाइम्स ने बताया है, इस प्लेटफॉर्म पर विज्ञापन देने वाले और ज़्यादा पैसे खर्च कर रहे हैं. टिकटॉक के घाटे में भारत द्वारा ऐप को प्रतिबंधित किए जाने का जो भी योगदान रहा हो, वह अभी भी मूल कंपनी की लाभप्रदता को प्रभावित करने के लिए बहुत छोटा है.
चीन के लिए एक और ‘बड़ा झटका’ जो सोशल मीडिया पर प्रचारित किया गया वह यह था कि प्रवर्तन निदेशालय ने 2022 में चीनी हैंडसेट निर्माता Xiaomi के लगभग 5,551 करोड़ रुपये के फंड को फ्रीज कर दिया था. यहां भी, ईडी के पास शायद अच्छा कारण था. लेकिन इस कार्रवाई की तुलना Xiaomi और अन्य चीनी हैंडसेट निर्माताओं द्वारा की गई 9,075 करोड़ रुपये की कर चोरी से करें, जिसमें से सरकार अब तक केवल 18 प्रतिशत ही वसूल कर पाई है.
दूसरी ओर, चीन का तुलनात्मक रूप से आर्थिक आकार और प्रभाव ऐसा है कि उसने भारत के लंबे समय के सहयोगी-रूस को तेल के आंशिक भुगतान की युआन में मांग करने के लिए मजबूर कर दिया है, जिससे भारत खुश नहीं हो सकता.
उभरती हुई ब्रिक्स मुद्रा की कोई भी बात जो संभावित रूप से अमेरिकी डॉलर की जगह ले सकती है, यह कहे बिना अधूरी है कि यह, संक्षेप में, चीन की मुद्रा होगी.
भारत के लिए रणनीतिक और सुरक्षा संबंधी विचार सबसे ऊपर हैं. लेकिन चीन की अर्थव्यवस्था और भारत की अर्थव्यवस्था के आकार के अंतर को भूलना मूर्खतापूर्ण होगा, और इसलिए चीन पर भारतीय कार्रवाई के आर्थिक प्रभाव की उम्मीद करना कुछ हद तक बाद की बात है, जब तक कि इस पर अधिक विचार न किया जाए. अब तक, यह गहरी रणनीति नहीं देखी गई है.
(व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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