नई दिल्ली: मोदी सरकार यूपीए सरकार के समय से ही अटके कुछ मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) को अंतिम रूप देने के साथ-साथ कुछ नए करार करने के लिए नए सिरे से जोर दे रही है. इसका उद्देश्य 2030 तक 2 ट्रिलियन डॉलर का निर्यात लक्ष्य हासिल करना, और महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध के मद्देनजर वैश्विक स्तर पर सप्लाई चेन में आ रही बाधाओं को दूर करना है.
अपने पहले कार्यकाल (2014-2019) में मोदी सरकार एफटीए से हिचक रही थी, जबकि उसने निर्यात बढ़ाने के लिए यूपीए-काल के सभी व्यापार समझौतों की समीक्षा करके प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) बढ़ाने पर जोर दिया था. सरकार का मानना था कि मौजूदा समझौते केवल अधिक आयात को प्रोत्साहित करते थे.
आधिकारिक सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया, लेकिन, कुछ साझेदार देशों, खासकर ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और ब्रिटेन के साथ बढ़ती रणनीतिक नजदीकी के साथ भारत अब आर्थिक संबंध बढ़ाने पर भी ध्यान केंद्रित कर रहा है, जो भागीदार देशों की मांग भी रही है.
सूत्रों के मुताबिक, सरकार के लंबित समझौतों को नए सिरे से आगे बढ़ाने का एक और कारण है महामारी के मद्देनजर कई लघु व्यवस्थाओं का उभरना, जिसमें रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण तेजी आई है.
सूत्रों ने कहा कि भारत, जो क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) जैसे किसी भी व्यापक व्यापार समझौते का हिस्सा नहीं है, अब तेजी से लघु व्यवस्थाओं में शामिल हो रहा है, लेकिन इस तरह के ढांचे के तहत कोई सुनिश्चित बाजार पहुंच नहीं है, और वे ज्यादातर एक सुरक्षा ढांचा बनाए रखते हुए सप्लाई चेन का सुचारू संचालन सुनिश्चित करने पर केंद्रित हैं.
मोदी सरकार अब साझीदार देशों के साथ वार्ता में तेजी लाकर कुछ प्रमुख एफटीए आगे बढ़ाने में लगी है. सूत्रों ने कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने सभी संबंधित मंत्रालयों—वित्त, वाणिज्य और विदेश मामलों के मंत्रालय—को इन सौदों को जल्द से जल्द पूरा करने का काम सौंपा है.
पिछले साल अगस्त में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेशों में स्थित सभी भारतीय वाणिज्य दूतावासों को संबंधित देशों में भारतीय निर्यात बढ़ाने के उपाय तलाशने को कहा था.
एक अधिकारी ने कहा कि युद्ध ने ‘व्यापार संबंधी समस्याएं बढ़ा दी हैं’, क्योंकि इससे खाद्य असुरक्षा और ऊर्जा की उच्च लागत जैसे जोखिम बढ़े हैं. नतीजतन, भारत अब एफटीए की प्रक्रिया में तेजी ला रहा है ताकि मित्र देशों के साथ मजबूत व्यापारिक संबंध बन सकें.
अन्य बातों के अलावा यह कदम चीन पर नजर रखकर भी उठाया गया है. सीमा पर तनाव के बावजूद भारत में चीनी आयात 2021 में लगभग 100 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया था.
कुछ पुराने एफटीए, कुछ नए
मुक्त व्यापार समझौते दो व्यापारिक भागीदारों के बीच वस्तुओं और सेवाओं की आवाजाही की बाधाएं दूर करते हैं.
इस तरह के समझौतों के तहत वस्तुओं और सेवाओं को न्यूनतम या बिना सरकारी टैरिफ, कोटा या सब्सिडी के अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के पार खरीदा-बेचा जा सकता है.
सरकार ने जहां यूपीए-काल के कुछ अटके एफटीए पर बातचीत फिर शुरू कर दी है—जैसे ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय संघ (ईयू) के साथ—और इसने कुछ भारत-ब्रिटेन के बीच प्रस्तावित एफटीए जैसे नए समझौतों पर भी चर्चा शुरू की है.
वार्ता में तेजी के प्रयासों के तहत केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय ने अर्ली हार्वेस्ट डील पर हस्ताक्षर वाला दृष्टिकोण अपनाया है—जिसमें दोनों पक्ष सरल पहलुओं पर एक करार पर हस्ताक्षर करते हैं, जबकि उत्पादों की एक रेंज पर टैरिफ खत्म करने जैसे मुख्य बिंदुओ पर वार्ता को बाद की बातचीत के लिए सुरक्षित रखा जाता है.’
मोदी सरकार के तहत हस्ताक्षरित पहला एफटीए फरवरी 2022 में भारत-यूएई व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौता (सीईपीए) था. यह समझौता मई 2022 में लागू हुआ.
भारत और संयुक्त अरब अमीरात द्वारा निर्यात किए जा रहे उत्पादों की एक रेंज पर टैरिफ समाप्त करने वाले समझौते से अगले पांच सालों में द्विपक्षीय व्यापार मौजूदा 50-60 बिलियन डॉलर से बढ़ाकर 100 बिलियन डॉलर पर पहुंचने की उम्मीद है.
इसके बाद, भारत और ऑस्ट्रेलिया ने करार के पहले हिस्से पर हस्ताक्षर किए, जिसे अब ऑस्ट्रेलिया-भारत आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौते (एआई ईसीटीए) के रूप में जाना जाता है. यह एक मुक्त व्यापार समझौता है जिसे पहले व्यापक आर्थिक सहयोग समझौता (सीईसीए) कहा जाता था.
ईसीटीए के लिए वार्ता 2011 में शुरू हुई थी. अप्रैल में दोनों पक्षों ने अर्ली हार्वेस्ट डील के तौर पर समझौते के पहले चरण पर हस्ताक्षर किए. उस समय ऑस्ट्रेलिया में चुनाव होने जा रहे थे और उसे चीन की जगह एक वैकल्पिक बाजार की भी जरूरत थी, जो उसका सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार था.
यूरोपीय संघ के साथ वार्ता पिछले महीने ही फिर से शुरू हुई है, जो 2007 में शुरू हुई थी और उसके बाद से ठप पड़ी थी.
इसी तरह, ब्रिटेन के साथ भी अभी बातचीत जोरों पर है. दोनों पक्षों ने सौदे पर हस्ताक्षर करने के लिए दिवाली की समयसीमा भी निर्धारित कर रखी थी, लेकिन सूत्रों का कहना है कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के इस्तीफे के कारण अब यह समयसीमा पूरी कर पाना मुश्किल हो सकता है.
कुछ अन्य एफटीए जो पाइपलाइन में हैं, वे इजरायल, कनाडा, न्यूजीलैंड, इंडोनेशिया और थाईलैंड सहित विभिन्न देशों के साथ प्रस्तावित हैं.
व्यापार विशेषज्ञ और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत के राजदूत रह चुके जयंत दासगुप्ता ने कहा, ‘ये एफटीए होने और इनमें तेजी आने का मूल कारण यह है कि हम पूरक अर्थव्यवस्थाओं में अधिक बाजार पहुंच चाहते हैं.’
उन्होंने कहा, ‘आज आप बाजार में अधिक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए विश्व व्यापार संगठन पर भरोसा नहीं कर सकते. इसके अलावा, भारत ने महसूस किया है कि हमें न केवल विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लिए बल्कि रोजगार सृजन के लिए भी अधिक निर्यात की आवश्यकता है. कोई भी देश निर्यात के बिना पर्याप्त स्तर पर और तीव्र विकास हासिल करने की दिशा में आगे नहीं बढ़ सकता.’
उन्होंने कहा, ‘चीन धीरे-धीरे सप्लाई चेन को बाधित कर रहा है और वह देश के अंदर ही अधिक से अधिक लाभदायक व्यवसायों की संभावनाएं तलाश रहा है. भारत केवल अधिक एफटीए पर हस्ताक्षर करके ही इस तरह की प्रवृत्ति का मुकाबला कर सकता है.’
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चुनौतियां और बाधाएं
सूत्रों के मुताबिक, भारतीय बाजारों में आसान पहुंच के लिए ‘टैरिफ व्यवस्था को खत्म करना’ सरकार के लिए सबसे बड़ी बाधा हो सकती है, जो कि पिछली सरकारों के लिए परेशानी का सबब थी.
आधिकारिक सूत्रों ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, सरकार की चिंता यह है कि उद्योगों का दबाव भारत को ‘महत्वाकांक्षी टैरिफ कटौती प्रतिबद्धताएं’ न जताने के लिए ‘बाध्य’ कर सकता है, जबकि ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय संघ सहित लगभग सभी प्रमुख व्यापारिक भागीदारों ने इस तरह की मांग की है.
एफटीए की प्रकृति के कारण, घरेलू उद्योगों को बड़े पैमाने पर प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है, और बाजार हिस्सेदारी गंवाने का जोखिम भी रहता है.
एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारत का औसत शुल्क सबसे अधिक—15 प्रतिशत—है. जिनेवा स्थित विश्व व्यापार संगठन के मुताबिक, औद्योगिक और कृषि उत्पादों पर औसत आयात शुल्क 2016 में 13.5 प्रतिशत से बढ़कर 2020 में 15 प्रतिशत हो गया है.
एक अधिकारी ने कहा, ‘उद्योगों ने तब (यूपीए के दौर में) विरोध किया था और वे अब भी विरोध करेंगे. लेकिन अब यह अधिक स्पष्ट है कि ये एफटीए किसी रिश्ते के पूर्ण रणनीतिक मूल्यों को साकार करने में कैसे और क्यों महत्वपूर्ण हैं.’
माना जाता है कि उद्योगों के दबाव के कारण ही भारत आरसीईपी से बाहर हो गया है.
ऑस्ट्रेलिया ने अपने कृषि उत्पादों के साथ-साथ वाइन और स्प्रिट पर आयात शुल्क में बड़ी कमी की मांग की है.
इसी तरह, भारत-ब्रिटेन एफटीए वार्ता के तहत एक ब्रिटिश व्हिस्की पर टैरिफ में कमी की मांग प्रमुख है. इसी तरह की मांग 27-देशों के संगठन ईयू के साथ एक व्यापार समझौते के लिए बातचीत में भी आएगी, जो ऑटोमोबाइल और ऑटो पार्ट्स में टैरिफ उन्मूलन की मांग करेंगे.
भारत-यूरोपीय संघ के एफटीए के लिए 2007 में शुरू हुई वार्ता कुछ समय के अंतराल के बाद मोदी सरकार के तहत जून 2022 में फिर से शुरू हुई है.
सूत्रों ने कहा कि ब्रिटेन और यूरोपीय संघ दोनों ने भारत से कहा है कि वे अर्ली हार्वेस्ट डील के पक्ष में नहीं हैं, बल्कि यही चाहते हैं कि एक बार में पूर्ण समझौते पर ही हस्ताक्षर हो जाएं.
अधिकारियों ने कहा कि भारत साझेदार देशों के साथ टैरिफ में कमी के विभिन्न रूपों पर बातचीत कर रहा है.
इसने दोतरफा दृष्टिकोण अपनाया है, जहां देश कुछ मामलों में चरणबद्ध तरीके से टैरिफ घटाएगा और कुछ में समझौता होने के साथ तत्काल प्रभाव से इसमें कमी लाई जाएगी.
ऐसे कई उत्पाद हैं जिसमें सरकार ने आयात-लाइसेंसिंग की व्यवस्था की हैऔर कई उत्पादों के आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगा रखा है. उदाहरण के तौर पर सरकार ने एलईडी टेलीविजन और कुछ रक्षा उत्पादों के आयात पर प्रतिबंध लगा रखा है.
मानक टैरिफ के मुताबिक, भारत सरकार एकीकृत माल और सेवा कर (आईजीएसटी) और सामाजिक कल्याण अधिभार (एसडब्ल्यूएस) के साथ वस्तुओं पर एक मूल सीमा शुल्क (बीसीडी) लगाती है. यद्यपि आयातक आईजीएसटी पर इनपुट टैक्स रिफंड का दावा कर सकते हैं परंतु बीसीडी और एसडब्ल्यूएस पर कोई दावा नहीं किया जा सकता.
भारत के व्यापारिक साझेदार पूर्व में एसडब्ल्यूएस पर चिंता जताते रहे हैं, जिस पर अभी 10 प्रतिशत की लेवी लगाई जाती है.
एक सूत्र ने कहा, ‘आत्मनिर्भर अभियान की तरफ झुकाव ने व्यापारिक भागीदारों को चिंतित कर दिया और भारतीय अधिकारियों की वार्ता क्षमता को भी प्रतिबंधित कर दिया.’
सूत्रों ने कहा, ‘बाजार में पहुंच घटने को लेकर ऐसी चिंताएं भी हैं कि भारत को उन प्रमुख व्यापार समझौतों के अस्तित्व में होने का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है, जहां नई दिल्ली एक पक्ष नहीं है.
उन्होंने कहा कि यह भारतीय फर्मों के लिए उनकी निर्यात संभावनाओं को बाधित करने वाला हो सकता है.
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