अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक भारत उच्च आर्थिक विकास के बावजूद नौकरियों का सृजन करने में नाकाम रहा है.
नई दिल्ली: एक अध्ययन में पाया गया कि उच्च आर्थिक विकास के बावजूद भारत नौकरियों के सृजन करने में नाकाम रहा है.
अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के द्वारा मंगलवार को प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, जीडीपी में 10 फीसदी की वृद्धि के मुकाबले रोज़गार में 1 फीसदी से भी कम की वृद्धि हुई है, जो अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी की वृद्धि को दर्शाती है.
यह अध्ययन कहता है कि युवाओं और सुशिक्षित लोगों में बेरोज़गारी की दर 16 प्रतिशत तक पहुंच गई है – “कम से कम पिछले 20 वर्षों में भारत में सबसे अधिक देखा गया”.
‘स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया ‘ नामक अध्ययन के मुताबिक ये रुझान विशेष रूप से उत्तरी राज्यों में दिखाई दे रहे हैं. यह अध्ययन श्रम बाज़ार, शोधकर्ताओं, नीति निर्माताओं, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से इकट्ठा किए गए आंकड़ों पर आधारित है.
रोज़गार में असमानता
रिपोर्ट यह भी दर्शाती है कि संगठित विनिर्माण में श्रम उत्पादकता पिछले तीन दशकों में छह गुना बढ़ी है, मज़दूरी केवल 1.5 गुना बढ़ी है. यह दर्शाता है कि श्रमिकों की तुलना में नियोक्ताओं को विकास से कहीं ज़्यादा फायदा हुआ है.
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अध्ययन से यह भी पता चलता है कि जाति और लिंग के आधार पर उपलब्ध नौकरियों के मामलें में अंतर-विभागीय असमानता भी है.
महिलाएं सभी सेवा क्षेत्र के श्रमिकों का मात्र 16 प्रतिशत हैं, लेकिन घरेलू श्रमिकों का 60 प्रतिशत है. यह लिंग असमानता देश के विभिन्न हिस्सों में भी भिन्न-भिन्न होती है. अध्ययन के मुताबिक यूपी में हर 100 पुरुषों पर केवल 20 महिलाएं सवेतन रोज़गार में हैं, जबकि यह संख्या तमिलनाडू में 50 और पूर्नोतर भारत में 70 है.
हालांकि, अध्ययन से यह भी पता चलता है कि लिंग के आधार पर कमाई का अंतर अब समय के साथ घट रहा है. अनुसूचित जाति सभी श्रमिकों का 18.5 प्रतिशत है.
औद्योगिक दुविधा
रिपोर्ट से पता चलता है कि पिछले दशक में विनिर्माण क्षेत्र के प्रदर्शन में वृद्धि हुई है, खासतौर पर बुनाई, प्लास्टिक और जूते जैसे उद्योगों में और समय के साथ काम भी अधिक अनिश्चित हो गया है.
कंपनियों ने कॉन्ट्रेक्ट के आधार पर लोगों को भर्ती करना शुरू कर दिया. अध्ययन से पता चलता है, “स्थायी श्रमिकों के स्थान पर, कंपनियों ने विभिन्न प्रकार के अनुबंध और प्रशिक्षु श्रमिकों को लिया जो उसी कार्य को कम पैसो में कर लेते है.”
आईटी और आधुनिक रिटेल में रोज़गार 2011 में 11.5 प्रतिशत से 2015 में बढ़कर 15 प्रतिशत हो गया. हालांकि, रिपोर्ट से पता चलता है कि 50 प्रतिशत से अधिक सेवा क्षेत्र का रोज़गार अभी भी छोटे व्यापार, घरेलू सेवाओं और अन्य अनौपचारिक रोज़गार में जारी है.
पिछले डेढ़ दशक में मज़दूरी में थोड़ी वृद्धि हुई है, लेकिन सातवें वेतन आयोग की न्यूनतम वेतन की सिफारिश के मुक़ाबले काफी कम है.
“राष्ट्रीय स्तर पर 67 प्रतिशत परिवारों को 2015 में 10,000 रुपये तक की मासिक कमाई करते देखा गया है. तुलनात्मक रूप से, सातवें वेतन आयोग द्वारा अनुशंसित न्यूनतम वेतन 18,000 रुपये प्रति माह से कम है.”
अध्ययन से पता चलता है कि “ज़्यादातर क्षेत्रों में मज़दूरी प्रति वर्ष करीब 3 फीसदी बढ़ी है, लेकिन 82 प्रतिशत पुरुष और 92 प्रतिशत महिला श्रमिक 10,000 रुपये प्रति माह से भी कम कमाते हैं”
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आगे का रास्ता
रिपोर्ट के लेखकों का सुझाव है कि सरकार को अन्य नौकरी के अन्य क्षेत्रों में मनरेगा योजना के अनुरूप रोज़गार गारंटी प्रदान करने की ज़रूरत है.
उन्होंने औद्योगिक नीति की ज़रुरत पर बल दिया जो श्रमिकों को कौशल विकास और वेतन सब्सिडी के माध्यम से श्रमिकों को प्रोत्साहन देती रहे. हालांकि, विभिन्न राज्यों में रोज़गार की विविधता को ध्यान में रखते हुए राज्य स्तर के रोज़गार विश्लेषण के माध्यम से इन्हें करने की आवश्यकता है.
रिपोर्ट कृषि क्षेत्र के मुद्दों का समाधान करने की अत्यावश्यकता पर भी ज़ोर देती है जहां आय के स्त्रोत बहुत कम है.
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