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Saturday, 21 December, 2024
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अमेरिका बॉन्ड की खरीद से फिर हाथ खींच रहा है, भारत इस पर कोई सख्त नीतिगत कदम न उठाए तो बेहतर

अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने 2013 में जब बॉन्ड की खरीद कम कर दी थी तब भारत उससे बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ था और रुपये पर दबाव बढ़ गया था.

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अपनी ताजा मुद्रा नीति की घोषणा करते हुए अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने संकेत दिया है कि परिसंपत्तियों की खरीद की गति को शीघ्र ही संयमित करना जरूरी होगा.

कोविड की महामारी के मद्देनजर फेडरल रिजर्व हर महीने 120 अरब डॉलर मूल्य की प्रतिभूतियां खरीदता रहा ताकि परिवारों और व्यवसाय जगत को ऋण उपलब्ध कराने लायक वित्तीय स्थिति बनी रहे.

इसकी फेडरल ओपेन मार्केट कमिटी (एफओएमसी) को दीर्घ अवधि में रोजगार और मुद्रास्फीति की अधिकतम 2 प्रतिशत की दर हासिल करने का आदेश मिला है. एफओएमसी ने इस सप्ताह अपनी बैठक में बताया कि अर्थव्यवस्था ने इन लक्ष्यों की दिशा में प्रगति की है और यह जारी रही तो बॉन्ड की खरीद में कमी करने की घोषणा जल्द ही की जाएगी.

2013 के ‘टेपर टैंट्रम’ वाली घटना के विपरीत फेडरल रिजर्व इस बार कुछ महीने पहले से ही बॉन्ड की खरीद में कमी करने पर विचार करने के संकेत दे रहा है. भारत को अपने व्यापक आधारों को मजबूत करने पर ध्यान देते रहना चाहिए और बॉन्ड की खरीद में कमी के संभावित असर को कम करने के लिए स्ख्ता नीतिगत कदम उठाने से परहेज करना चाहिए.

हालांकि फेडरल रिजर्व को अपने कदमों के संभावित असर पर ध्यान देने का आदेश नहीं दिया गया है मगर इस बार संवेदनशीलता दिखाते हुए उसने पूरा ख्याल रखा है कि विश्व वित्तीय बाज़ारों में अफरातफरी न मचे. इसलिए दुनिया को समझ में आ गया है कि फेडरल रिजर्व जब यह घोषणा करता है कि वह हाथ खींचने जा रहा है, तब वह तुरंत कोई सख्त कदम नहीं उठता.


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2013 में क्या हुआ था

मई 2013 में फेडरल रिजर्व के तत्कालीन अध्यक्ष बेन बेर्नांके ने अमेरिकी कांग्रेस के सामने अपनी पेशी में कहा था कि एफओएमसी जल्दी ही बॉन्ड खरीद में कमी करने जा रही है. इस बयान के कारण 10 साल के अमेरिकी बॉन्ड पर लाभ में वृद्धि होने लगी और उभरती अर्थव्यवस्थाओं से पूंजी के आगमन की लहर चल पड़ी. इस ‘टेपर टैंट्रम’ से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए दक्षिण अफ्रीका, ब्राज़ील, भारत, इन्डोनेशिया और तुर्की, जिन्हें मॉर्गन स्टेनले ने उनकी ऊंची अकाउंट डेफ़िसिट और विदेशी पूंजी पर निर्भरता के कारण ‘पस्त पांच’ नाम दे दिया था.

भारत से पूंजी के बाहर जाने ए रुपये पर दबाव बढ़ा. भारतीय रिजर्व बैंक का मानना था कि भारत से पूंजी का बाहर जाना उसकी अर्थव्यवस्था के मूल आधारों के लिए ठीक नहीं है, और यह मुख्यतः बाहरी कारणों के चलते है इसलिए अस्थायी है. जवाबी कदम के रूप में भारत सरकार और रिजर्व बैंक ने रुपये पर दबाव को कम करने के कदम उठाए. इनमें कई तरह की मुद्रा नीति शामिल थी—अल्पकालिक दरें बढ़ाई गईं, सोने के आयात पर पाबंदी लगाई गई, पूंजी के बाहर जाने पर नियंत्रण, विदेशी मुद्रा में उधार लेने और एनआरआइ से उधार लेने पर पाबंदियां ढीली की गईं.

रुपये के मूल्य ह्रास को रोकने के लिए ये फैसले 2013 के जून, जुलाई, और अगस्त महीनों में लागू किए गए.

लेकिन मई से अगस्त तक उसकी कीमत में 15 फीसदी की कमी आइ. उल्लेखनीय बात यह है कि रुपये में गिरवात बाकी उभरते बाज़ारों में मुद्रा में गिरावट की तुलना में कहीं ज्यादा थी, जबकि उन बाज़ारों ने इतनी पाबंदियां नहीं लगाई और पूंजी पर नियंत्रण या घरेलू बाज़ार में तरलता पर सख्ती नहीं की थी.


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ताजा स्थिति

भारत आज 2013 की स्थिति के मुक़ाबले बेहतर हाल में है. चालू खाता बेहतर स्वरूप में है और पिछले साल भारत ने सरप्लस दिखाया.

लेकिन कुछ परेशानियां कायम हैं—ऊंची मुद्रास्फीति और बड़ा वित्तीय घाटा. जब आर्थिक गतिविधियां रफ्तार पकड़ेंगी, तब इन समस्याओं को दूर करने की जरूरत होगी ताकि बॉन्ड खरीद में कमी के संभावित असर को दूर किया जाएगा. मुद्रास्फीति तो सप्लाइ में अड़चनों के हिसाब से घटती-बढ़ती रहती है लेकिन उससे प्रभावी तरीके से निबटने की जरूरत होगी.

हाल के वर्षों में सरकार और रिजर्व बैंक ने भारतीय बॉन्डों में विदेशी निवेश को आसान बनाने के लिए कई उपाय किए हैं. पिछले साल रिजर्व बैंक ने कुछ विशेष वर्ग की प्रतिभूतियों को विदेशी निवेशकों के लिए खुले तौर पर उपलब्ध कराया. सरकारी कर्ज में विदेशी निवेश की सीमा बकाया स्टॉक के 6 प्रतिशत के बराबर रखी गई है. यह सीमा कुछ अधिसूचित बॉन्डों के लिए लागू नहीं होती.

यह रुपये के बॉन्ड को ग्लोबल बॉन्ड पैमाने में शामिल किए जाने का रास्ता बनाने का पहला कदम है. देश के बॉन्डों को ग्लोबल पैमाने शामिल किए जाने की अपेक्षा के बीच विदेशी फंड भारतीय ऋण के जोखिम को बढ़ा रहे हैं.

आगे का रास्ता

भारत को पूंजी के अचानक बाहर जाने के जोखिम को कम करने के लिए ऐसी अनुकूल नीतियां बनाते रहना होगा. भारतीय परिसंपत्तियों में निवेश करने के इच्छुक विदेशियों को सुविधाएं देना इस नीति का हिस्सा होना चाहिए.

अगस्त 2013 में 275 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार था, जो आज 640 अरब डॉलर से ज्यादा का हो गया है. लेकिन इसका केवल सांकेतिक मूल्य है, यह वास्तविक उपयोग के लिए नहीं है.

अर्थशास्त्री राजेश्वरी सेनगुप्ता और मैंने शोधपत्र ‘एनालाइजिंग इंडियाज़ एक्सचेंज रेट रेजीम’ में रिजर्व बैंक विदेशी मुद्रा बाज़ार में विषम तरीके से दखल देता है, जिसके कारण रुपये की कीमत में वृद्धि रुकती है मगर वह इसकी कीमत में कमी के लिए दखल नहीं देता. झटके में की गई कार्रवाई कुल मिलकर बेअसर रही और उसने गिरावट में तेजी ला दिया. इससे बाज़ारों में अफरातफरी मच गई.

इसलिए, आगे का रास्ता यही है कि मूल आधारों पर ज़ोर दिया जाए और व्यापक अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाई जाए, और बॉन्ड खरीद में कमी की बात उभरते ही झटके कोई अल्पकालिक किस्म का जवाबी कदम न उठाया जाए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. राधिका पांडे एनआईपीएफपी में सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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