scorecardresearch
Wednesday, 24 July, 2024
होमदेशअर्थजगतसरकार नहीं करेगी व्यापार : आंकड़े बताते हैं 1991 के बाद से 72% विनिवेश मोदी सरकार में हुआ

सरकार नहीं करेगी व्यापार : आंकड़े बताते हैं 1991 के बाद से 72% विनिवेश मोदी सरकार में हुआ

साल 2014 के बाद से सरकार ने विनिवेश से 4.48 लाख करोड़ रुपये जुटाए हैं. मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए भी यह राशि साल 1991 के बाद से हुई सकल विनिवेश आय का 57% बनती है.

Text Size:

नई दिल्ली: इस साल फरवरी में केंद्रीय बजट पेश किए जाने के कुछ ही दिनों बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की कि ‘गवर्नमेंट हैज नो बिज़नेस टू डु बिज़नेस (सरकार का व्यापार करने का कोई मतलब नहीं है).’

राष्ट्रीय समाचार एजेंसी को एएनआई दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘उसका (सरकार का) काम गरीबों के भोजन के बारे में सोचना, उनके लिए घर और शौचालय बनाना, उन्हें पीने का साफ पानी दिलाना, उनके लिए स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना, सड़कें बनवाना, छोटे किसानों के बारे में सोचना आदि है. यह मेरी प्राथमिकता है.’

हालांकि सरकार का फोकस किस चीज पर होना चाहिए, इस बारे में उनके बयान के दूसरे भाग पर काम अभी भी प्रगति पर है, मगर पिछले तीन दशकों के विनिवेश के आंकड़ों से पता चलता है कि सरकार को व्यवसाय से बाहर करने की उनकी प्रतिबद्धता कोरी गप्प नहीं है.

जैसा कि दिप्रिंट के एक विश्लेषण में पाया गया है, मोदी सरकार द्वारा विनिवेश पर जोर दिए जाने का नतीजा यह है कि साल 1991 में पहली बार विनिवेश प्रक्रिया के शुरू होने के बाद से इससे जो भी कमाई हुई है, उसके 72 प्रतिशत (4.48 लाख करोड़ रुपये) में इसका योगदान है.

दिप्रिंट ने विनिवेश का यह विश्लेषण प्रति वर्ष पूर्ण आय के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और निवेश व सार्वजनिक संपत्ति प्रबंधन विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ़ इन्वेस्टमेंट एंड पब्लिक एसेट मैनेजमेंट डीआईपीएएम या दीपम) के आंकड़ों का उपयोग किया है.

चूंकि पूर्ण राशि वाली संख्याओं का विश्लेषण पिछले तीन दशकों में दर्ज की गई मुद्रास्फीति को ध्यान में नहीं रखता है, इसलिए इस विश्लेषण में हमने साल 1991 और 2022 के बीच 6 प्रतिशत औसत वार्षिक मुद्रास्फीति दर का अनुमान किया है

एक बार इस तथ्य को शामिल करने के बाद भी आंकड़ों से पता चलता है कि सकल विनिवेश आय का अभी भी महत्वपूर्ण माना जा सकने वाला 57 प्रतिशत हिस्सा साल 2014 के बाद ही अर्जित किया गया था.


यह भी पढे़ं: रुपये में गिरावट निर्यात के लिए ठीक है? डेटा पर नजर डालें तो पूरी तरह ऐसा लगता तो नहीं है


‘मिनिमम गवर्नमेंट’

सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी के विनिवेश का उल्लेख पहली बार साल 1991-92 के अंतरिम बजट में तत्कालीन वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा द्वारा किया गया था, जिसके बाद उनके उत्तराधिकारी मनमोहन सिंह ने प्रस्तुत उस वर्ष के पूर्ण बजट में भी इसे शामिल किया गया था.

बाद के वर्षों में, गठबंधन की राजनीति के दबाव ने विनिवेश के मोर्चे पर सरकारी कार्रवाई की गति में काफी खलल डाला और 1991 और 1999 के बीच के आठ वर्षों में इस माध्यम से केवल 17,557 करोड़ रुपये (आज के संदर्भ में लगभग 91,800 करोड़ रुपये) अर्जित किए जा सके.

इसके विपरीत, वाजपेयी सरकार ने अपने कार्यकाल के दौरान विनिवेश में फिर से तेजी लाने का प्रयास किया, और केवल पांच वर्षों (1999-2004) के दौरान 27,599 करोड़ रुपये (आज के हिसाब से लगभग 93,300 करोड़ रुपये) की कमाई की.

कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार का पहला कार्यकाल (साल 2004 से 2009) वाम दलों, जिन्होंने हमेशा से विनिवेश सम्बंधी योजनाओं का विरोध किया है, के समर्थन पर टिका था. नतीजतन, इस अवधि के दौरान विनिवेश से हुई आय मात्र 11,591 करोड़ रुपये थी, जो आज की कीमत के अनुसार लगभग 32,000 करोड़ रुपये बनती है.

यूपीए-2 (साल 2009-14) में कांग्रेस पार्टी सत्तारूढ़ गठबंधन में काफी मजबूत स्थिति में थी, जिससे उसे विनिवेश के सिलसिले में अधिक निर्णायक कदम उठाने की अनुमति मिली. इस अवधि में, सरकार ने केवल पांच वर्षों में 1.2 लाख करोड़ रुपये (आज की कीमतों में 2.4 लाख करोड़ रुपये) से अधिक की जोरदार कमाई की.

कुल मिलाकर, यूपीए ने अपने 10 वर्षों के सत्ताकाल में 1.32 लाख करोड़ रुपये का विनिवेश किया – जो आज के संदर्भ में 2.74 लाख करोड़ रुपये के बराबर है.

लेकिन सरकार के विनिवेश अभियान ने 2014 में जाकर ही वास्तविक गति पकड़ी. कम से कम तब के लिए जब तक कोविड महामारी ने इस प्रगति को काफी हद तक पटरी से उतार नहीं दिया था.

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल (साल 2014-19) में, विनिवेश से हुई कुल कमाई 3.2 लाख करोड़ रुपये थी, जो आज के हिसाब से 4.7 लाख करोड़ रुपये के बराबर होगी. इस साल के सितंबर तक मोदी सरकार 2.0 के दौरान बिताये गए साढ़े तीन वर्षों (दो महामारी वर्षों सहित) में अब तक कुल 1.26 लाख करोड़ रुपये (या समायोजित रूप से 1.48 लाख करोड़ रुपये) की विनिवेश आय देखी गई है.

Graphic by Ramandeep Kaur | ThePrint
रमनदीप कौर का ग्राफिक | दिप्रिंट

हालांकि, मोदी सरकार शुरू से ही विनिवेश के प्रति इच्छुक रही है, मगर महामारी की अवधि ने इसे अपनी रणनीति को संहिताबद्ध (कोडिफाई) करने के लिए प्रोत्साहित किया.

लॉकडाउन से चोट खाई अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के उद्देश्य से मई 2020 में लाये गए ‘आत्मनिर्भर भारत पैकेज’ के एक हिस्से के रूप में केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने व्यापार में सरकार की भूमिका को कम करते हुए निजी क्षेत्र की अधिक भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए एक सार्वजनिक क्षेत्र की उद्यम नीति की घोषणा की.

इस के बाद के बजट में, वित्तमंत्री ने इस घोषणा का और विस्तार करते हुए एक नीतिगत रूपरेखा प्रदान की. नई रणनीति के अनुसार, सरकार रणनीतिक क्षेत्रों में – जैसी कि (i) परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष और रक्षा, (ii) परिवहन और दूरसंचार, (iii) बिजली, पेट्रोलियम, कोयला और अन्य खनिजों और (iv) बैंकिंग, बीमा और वित्तीय सेवाएं- में अपनी न्यूनतम’ उपस्थिति बनाए रखेगी. गैर-रणनीतिक क्षेत्रों के सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का या तो निजीकरण कर दिया जाएगा या उन्हें बंद कर दिया जाएगा.

शायद यही कारण है कि सरकार की विनवेश रणनीति को मोदी के ‘गवर्नमेंट हैज नो बिज़नेस टू डु बिज़नेस’ वाले बयान के जरिये बेहतर ढंग से समझा जा सकता है.

नीति और राजस्व

आंकड़ों से पता चलता है कि हालांकि विनिवेश से होने वाली आय मोदी सरकार के तहत आय का काफी अहम स्रोत है, फिर भी यह सरकार के अन्य राजस्व स्रोतों जैसे कि आयकर, कॉर्पोरेट कर और माल और सेवा कर (जीएसटी) का एक छोटा सा अंश है.

फिर विनिवेश को इतना अधिक महत्व क्यों दिया जाता है? उस प्रश्न का उत्तर दो भागों में दिया है सकता है.

पीडब्ल्यूसी इंडिया में सरकारी क्षेत्र के लीडर रानन बनर्जी के अनुसार, सबसे पहले तो विनिवेश से मिलने वाले राजस्व के अपेक्षाकृत कम होने के बावजूद, यह अभी भी एक विशेष उद्देश्य को पूरा करता है.

बनर्जी ने इसे इस तरह से समझाया, ‘विनिवेश आय समग्र बजट की तुलना में बहुत कम राशि है, लेकिन फिर भी, यह नगण्य नहीं है.’

उन्होंने दिप्रिंट को बताया: ‘यदि अतीत में कुल राजकोषीय घाटा 10-12 लाख करोड़ रुपये के दायरे में था, और यदि आप लगभग 1 लाख करोड़ रुपये के विनिवेश का बजट रखते हैं, तो यह अभी भी कुल घाटे की संख्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. इसलिए, यदि हम 4 प्रतिशत के राजकोषीय घाटे के लिए बजट बना रहे हैं, तो प्रभावी रूप से 30-40 आधार अंकों (0.3 से 0.4 प्रतिशत तक) का बजट विनिवेश के जरिये पूरा किया जाना है.’

दूसरे, जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ऋषि शाह ने कहा, विनिवेश कुछ क्षेत्रों में निजी क्षेत्र के लिए बाजार खोलने के लिए एक महत्वपूर्ण नीतिगत उपकरण के रूप में काम करता है, और साथ ही यह भी सुनिश्चित करता है कि सरकार को अपनी संपत्ति के लिए सही कीमत मिले. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘इसे (विनिवेश को) एक स्थायी राजस्व स्रोत के बजाय एक रणनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए.’

उन्होंने कहा, ‘राजकोषीय क्षेत्र के अधिकारी राजस्व स्रोतों में स्थिरता और पूर्वानुमेयता (पहले से अनुमान लगा पाने की सहूलियत) लाने की कोशिश कर रहे हैं और इसी के अनुसार, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर राजस्व में बढ़ोत्तरी सुनिश्चित करने और उन क्षेत्रों में (सरकार के) प्रयासों को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया गया है.’

विनिवेश लक्ष्य

चालू वित्त वर्ष के लिए सरकार ने अपने विनिवेश लक्ष्य के रूप में 65,000 करोड़ रुपये का बजट निर्धारित किया है. यह पिछले वर्षों के इसके लक्ष्यों– 2020-21 में 2.1 लाख करोड़ रुपये और 2021-22 में 1.75 लाख करोड़ रुपये – की तुलना में अधिक सतर्कता भरा है.

अब तक, इसे केवल 24,544 करोड़ रुपये – या इस वर्ष के लक्ष्य का 38 प्रतिशत ही – हासिल हुआ है. मगर, आगे आने वाले सौदे – जैसे कि आईडीबीआई बैंक और कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया का विनिवेश – इसे अपने लक्ष्य के करीब पहुंचा सकते हैं.

बनर्जी ने कहा, ‘अगर सरकार चाहे तो उसे इस साल के अपने विनिवेश लक्ष्य को पूरा करने में सक्षम होना चाहिए, क्योंकि छोटे सार्वजनिक उपक्रम विनिवेश के लिए तैयार हैं और बाजार भी पकड़ बनाये हुए है. सरकार विनिवेश के लिए जो सही मूल्य प्राप्त करना चाहती है वह भी मौजूद है.‘

उन्होंने कहा कि इससे अधिक अहम सवाल यह है कि क्या सरकार को इस साल अब तक मिले अपेक्षाकृत जोरदार कर राजस्व और इसके द्वारा अपने खर्च पर किये गए नियंत्रण को देखते हुए इस साल विनिवेश से होने वाली आय की जरूरत है भी या नहीं?

बनर्जी ने आगे समझाते हुए कहा, ‘यदि कर राजस्व में आया उछाल इसी तरह जारी रहता है और राजस्व व्यय भी नियंत्रण में रहता है, तो इस संभावना को ध्यान में रखते हुए कि एमएसपी (न्यूनतम बिक्री मूल्य) पर सरकार का खर्च इस साल काफी कम होगा क्योंकि मौजूदा बाजार दरें अभी एमएसपी (इसकी बढ़ी हुई दरों के बावजूद) से कहीं अधिक हैं, ऐसी स्थिति भी आ सकती है जहां सरकार को अपने राजकोषीय घाटे के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अतिरिक्त राजस्व की आवश्यकता न हो. ऐसे हालत में वह इस आय को अगले वित्तीय वर्ष के लिए सुरक्षित रखने की योजना बना सकती है.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढे़ं: भारत अर्थव्यवस्था को लेकर ब्रिटेन और पूर्वी एशियाई देशों की सरकारों से ले सकता है सबक


 

share & View comments