नई दिल्ली: मुश्किल से एक दशक हुआ है, जब भारत की सड़कों पर डीज़ल गाड़ियों की संख्या पेट्रोल गाड़ियों के बराबर हुआ करती थी. बल्कि, सोसाइटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर्स (सियाम) के आंकड़ों के अनुसार, वित्त वर्ष 2012-13 में डीज़ल यात्री वाहनों की बाज़ार हिस्सेदारी 58 प्रतिशत थी, जो अब तक का सबसे बड़ा अनुपात है. पेट्रोल के मुक़ाबले डीज़ल के सस्ते दामों की वजह से, उपभोक्ताओं ने इस बात की अनदेखी कर दी, की डीज़ल गाड़ियां पेट्रोल की अपेक्षा ज़्यादा प्रदूषण फैलाती हैं. उस ज़ामाने में डीज़ल के दाम पेट्रोल के मुक़ाबले औसतन 20-25 रुपए प्रति लीटर कम होते थे.
लेकिन अब, सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण के हिसाब से, दामों में उस अंतर के गिरकर 7-9 प्रति लीटर पर आ जाने से, सियाम के आंकड़ों से पता चलता है कि डीज़ल यात्री वाहनों की बाज़ार हिस्सेदारी, मार्च 2021 में ख़त्म होने वाले वित्त वर्ष में, घटकर सिर्फ 17 प्रतिशत रह गई है. इसका एक अनपेक्षित लेकिन वांछनीय परिणाम ये हुआ है कि उपभोक्ता अब पेट्रोल, कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस (सीएनजी) और इलेक्ट्रिक तथा हाइब्रिड जैसे साफ-सुथरे विकल्प चुन रहे हैं.
डीज़ल यात्री वाहनों की बाज़ार हिस्सेदारी में गिरावट तब आई, जब 2014 में सत्ता में आने के कुछ समय बाद ही, नरेंद्र मोदी सरकार ने तेल क़ीमतों को नियंत्रण मुक्त कर दिया और सब्सिडी ख़त्म कर दी.
ये क़दम पिछले दो दशकों से चली आ रही नीतियों के विपरीत था क्योंकि सरकार चाहती थी कि उपभोक्ताओं को, साफ-सुथरे विकल्पों की ओर शिफ्ट किया जाए और उसका अपना वित्तीय बोझ भी कम हो जाए. उन नीतिगत क़दमों का असर अब दिखने लगा है.
विशेषज्ञों के अनुसार, अगले कुछ वर्षों में चूंकि भारत उत्सर्जन मानकों की बेहतर व्यवस्था की ओर बढ़ने जा रहा है, इसलिए ये रुझान बना रहेगा.
डीज़ल के खिलाफ नीतिगत लड़ाई
भारत ने डीज़ल वाहनों के खिलाफ एक लंबी लड़ाई लड़ी है, जो क़रीब तीन दशक पहले शुरू हुई थी.
1990 के दशक में, बरसों के औद्योगीकरण के बाद, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का शुमार दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में होने लगा था. 1996 में पर्यावरण की वकालत करने वाली पत्रिका डाउन टु अर्थ ने कहा कि स्थिति इतनी गंभीर थी कि डॉक्टर सिर्फ ‘काले फेफड़ों’ को देखकर बता देता था कि ये इंसान दिल्ली का निवासी है.
उस दशक के मध्य में पर्यावरण कार्यकर्त्ता एमसी मेहता की जनहित याचिका के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण कम करने के लिए कुछ कठोर क़दम उठाए और सबसे पहले डीज़ल पर चल रहे सार्वजनिक परिवहन पर गाज गिरी.
28 जुलाई 1998 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) की सभी बसें, जो डीज़ल पर चल रहीं थीं, सीएनजी पर परिवर्तित कर दी गईं. दिसंबर 2002 तक डीज़ल बसें शहर से ग़ायब हो गईं थीं. ऑटो रिक्शा को भी अपग्रेड करके, सीएनजी पर कर दिया गया था.
2016 में, शीर्ष अदालत ने ऐलान किया कि दिल्ली में केवल सीएनजी टैक्सियां चलेंगी, और सिर्फ उन डीज़ल टैक्सियों को छूट दी गई, जो ऑल इंडिया परमिट पर चल रहीं थीं.
नियमों में ढील का असर
2014 तक, डीज़ल पर कई कारणों से सब्सीडी दी जाती थी- किसान इसका इस्तेमाल ट्यूबवेल चलाने में करते थे, उद्योगों में इससे मशीनें चलतीं थीं, माल ढुलाई होती थी और परिवहन के लिए भारी कमर्शियल वाहन इसी पर चलते थे.
सब्सिडी का फायदा निजी वाहन मालिक भी उठाते थे जो, पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस मंत्रालय के अनुसार, 2012-13 तक कुल डीज़ल उपभोक्ताओं के क़रीब 13.1 प्रतिशत हो गए थे.
लेकिन, सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने सब्सिडी समाप्त कर दी, और ईंधन की क़ीमतों को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया. डीज़ल क़ीमतों के लिए ये एक बड़ा झटका साबित हुआ, जो तेज़ी से ऊपर उठते हुए, अब पेट्रोल के बहुत क़रीब पहुंच गई हैं.
शनिवार को मुम्बई में डीज़ल की क़ीमतें, 100 रुपए के आंकड़े को पार करते हुए, 100.66 रुपए पर पहुंच गईं, जबकि पेट्रोल के दाम 110.12 रुपए थे.
2015 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल (एनजीटी) ने, भारत की सड़कों पर डीज़ल गाड़ियों का जीवन भी कम कर दिया, और 10 साल से पुरानी डीज़ल कारों के, राष्ट्रीय राजधानी में चलने पर रोक लगा दी.
इसी साल लॉन्च हुई ताज़ा राष्ट्रीय स्क्रैपिंग पॉलिसी का उद्देश्य भी, भारत की सड़कों से पुराने और अनफिट वाहनों को हटाना है.
2020 से सभी नई गाड़ियों को, भारत स्टेज 6 उत्सर्जन मानकों का पालन करना था, जिससे डीज़ल और पेट्रोल गाड़ियों की उत्पादन लागत में अंतर बढ़ गया, और कार निर्माताओं की आर्थिक व्यवस्था गड़बड़ा गई.
भारत की सबसे बड़ी कार निर्माता मारुति सुज़ुकी ने, 2020-21 में डीज़ल गाड़ियां बनाना बंद कर दिया. भारत में अधिकतर कंपनियों ने बाज़ार में छोटी डीज़ल गाड़ियां उतारना बंद कर दिया है.
बदलता परिदृश्य
ऊंची लागत, कम उपलब्धता, और छोटे शेल्फ जीवन की वजह से उपभोक्ता ज़्यादा साफ ईंधन के विकल्पों की ओर जा रहे हैं.
बहुत सी बड़ी एसयूवी गाड़ियों में डीज़ल अभी भी एक पसंदीदा विकल्प बना हुआ है, लेकिन छोटी गाड़ियों के मामले में रुझान तेज़ी से बदल रहा है.
सियाम के मुताबिक़, पिछले दो वर्षों के ग़ैर-डीज़ल यात्री वाहनों की बिक्री के आंकड़े तोड़ने पर पता चलता है कि ज़्यादातर उपभोक्ता अब पेट्रोल गाड़ियों की ओर जा रहे हैं. पिछले साल के आंकड़ों में इस हिस्से का ब्योरा अलग से नहीं दिया गया है.
2019-20 और 2020-21 के बीच, बाज़ार में डीज़ल गाड़ियों की हिस्सेदारी 29.5 प्रतिशत से घटकर 17 प्रतिशत पर आ गई, जबकि पेट्रोल गाड़ियों की हिस्सेदारी 66 प्रतिशत से बढ़कर 76 प्रतिशत हो गई. सीएनजी कारें, जो मुख्य रूप से बड़े मेट्रो शहरों में चलती हैं, 4 प्रतिशत से उछलकर 6 प्रतिशत पर आ गईं. इलेक्ट्रिक और हाईब्रिड वाहनों की हिस्सेदारी में भी मामूली वृद्धि देखी गई.
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
डाउन टु अर्थ पत्रिका चलाने वाले थिंक टैंक, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की वायु प्रदूषण नियंत्रण इकाई के सीनियर प्रोग्राम मैनेजर, विवेक चट्टोपाध्याय के अनुसार इस बदलाव का स्वागत है, लेकिन वाहनों के प्रदूषण को कम करने के लिए, और क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है.
उन्होंने कहा, ‘ज़्यादा बदलाव तब सामने आएगा, जब हम (मध्यम अवधि में) आगे बढ़कर भारत स्टेज 7 नियमों पर जाएंगे, जिसमें फ्यूल निष्पक्षता लाने की कोशिश की जाएगी.’ वो अभी चर्चा में चल रहे भविष्य के नियमों की ओर इशारा कर रहे थे, जिनमें पेट्रोल और डीज़ल दोनों के वाहनों से निकलने वाले उत्सर्जन को समान कर दिया जाएगा.
उससे भी डीज़ल यात्री वाहन ख़रीदने की उपभोक्ताओं की इच्छा प्रभावित होगी.
लेकिन, उन्होंने कहा कि इन नियमों से केवल निजी वाहनों द्वारा हो रहे उत्सर्जन को कम किया जा सकता है. उन्होंने आगे कहा कि अगर सरकार इस बारे में गंभीर है, तो उसे ग़ैर-मेट्रो शहरों की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में भारी निवेश करना होगा.
सड़क परिवहन और हाईवेज़ मंत्रालय की ओर से साझा किए गए, 2018-19 के वार्षिक सड़क परिवहन आंकड़ों के अनुसार, भारत में हर 1,000 लोगों के लिए केवल एक बस है, जबकि संबंधित आंकड़े इंडोनेशिया के लिए 10 और दक्षिण कोरिया के लिए17 थे.
चट्टोपाध्याय ने आगे कहा, ‘वर्तमान में, सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों का समर्पित नेटवर्क, ज़्यादातर मेट्रो शहरों तक सीमित है, जो हमारी आबादी के एक बड़े हिस्से की ज़रूरतें पूरी नहीं करता. अगर सरकार प्रदूषण घटाने को लेकर गंभीर है, तो उसे बसों में निवेश करने की ज़रूरत है, जो सड़क से 50-60 कारों को हटा सकती हैं, भले ही वो डीज़ल पर चलती हों.
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