scorecardresearch
Thursday, 27 June, 2024
होमदेशकाम के बिना लंबी यात्रा को मजबूर दिल्ली के मजदूर- गांव में जीवित रहना आसान

काम के बिना लंबी यात्रा को मजबूर दिल्ली के मजदूर- गांव में जीवित रहना आसान

देशव्यापी लॉकडाउन के कारण अपनी दैनिक आय छीनने के बाद प्रवासी मजदूर शहरों या गांवों में छोटे-छोटे झोपड़ियों में बंद हैं.

Text Size:

मुरादनगर, गाजियाबाद: आठ साल से विक्की कुमार गाजियाबाद के मुरादनगर शहर में सैकड़ों घरों से कचरा इकट्ठा करते आ रहे हैं. लेकिन जब वह बुधवार सुबह कचरा इकट्ठा करने गए तो कॉलोनियों के सुरक्षा गार्डों ने बुलाया और पुलिस को सूचित करने की धमकी दी.

28 वर्षीय ने विक्की ने दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने कहा कि मेरे जैसे लोग देश में कोरोनावायरस फैल रहे हैं. कुमार मुरादनगर में एक झुग्गी-झोपड़ी (झुग्गी) के समूह इंद्रपुरी कॉलोनी में रहते हैं.

कुमार ने पूछा, ‘हमारे यहां टीवी नहीं हैं. हम अनपढ़ हैं, हमें कैसे पता चलेगा कि अचानक लॉकडाउन हो गया? उनका परिवार तबसे रोटी और नमक खा रहा है जबसे लॉक डाउन हुआ है, तबसे हमारी रोज की कमाई छीन गयी है.’

सोशल डिस्टैन्सिंग क्या है ?

नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा जारी किए गए सोशल डिस्टैन्सिंग के दिशा निर्देशों के बाद छोटे, तंग झोंपड़ियों (जिन्हें जुग्गी भी कहा जाता है) में रहने वाले 150 परिवारों के लिए शायद ही इसका पालन करना संभव हो. एक झुग्गी में रहने वालों की संख्या 10 से 15 के बीच है, जो कि आकार में लगभग 6X6 वर्ग फीट है.

70 वर्षीय बचना देवी ने कहा, ‘हम अपने परिवार को झुग्गी से बाहर नहीं फेंक सकते.’ बचना देवी अपने बेटे, बेटी और सात पोते-पोतियों के साथ झुग्गी में रहती हैं.

इंद्रपुरी कॉलोनी से सौ मीटर की दूरी पर मुरादनगर में दो मंजिला घर के सामने पड़ोसी झुग्गी क्लस्टर की कम से कम 30 महिलाएं गुरुवार को इकट्ठा हुई थी.

शबाना खातून (जो कि भीड़ का हिस्सा थी ) ने कहा, हाल ही में घर में एक बच्चे का जन्म हुआ था और उसके माता-पिता गेहूं के पैकेट बांटकर जश्न मना रहे थे. हमने सुना है कि वे गेहूं दे रहे हैं, इसलिए हम भाग गए … हमें वास्तव में अभी भोजन की आवश्यकता है.

शबाना खातून (गुलाबी सलवार में) अपने क्षेत्र की कुछ महिलाओं के साथ मुरादनगर में | प्रवीण जैन/ दिप्रिंट

सभी दैनिक मजदूरी कमाने वालों के लिए, एक हफ्ते पहले तक कोरोनोवायरस के खतरे के बावजूद इन महिलाओं के लिए चीजें अभी भी सामान्य थीं, लेकिन जैसे -जैसे लॉकडाउन के बढ़ रहा है दिन-प्रतिदिन खाने की कमी एक समस्या बन जायेगा.

फूल विक्रेता खातून ने कहा, सरकार हमें बताती है कि कोरोनोवायरस से संक्रमित होने से बचने के लिए एक-दूसरे से दूरी बनाए रखें। लेकिन जब घर में कोई भोजन या पानी नहीं होता है, तो हम फूल भूख और प्यास से मर सकते हैं.

‘जब हम इसे देखेंगे तब हम इस पर विश्वास करेंगे’

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने गरीबों और दैनिक वेतन भोगियों की सहायता के लिए कई उपायों की घोषणा की है. इसमें प्रधानमंत्री ग्रामीण कल्याण योजना (पीएमजीकेवाई) के तहत 1.7 लाख करोड़ रुपये का राहत पैकेज भी शामिल है.

राहत उपायों में 80 करोड़ गरीबों के लिए 5 किलो चावल या गेहूं शामिल है- लगभग दो-तिहाई आबादी अगले तीन महीनों के लिए 5 किलोग्राम अनाज के अतिरिक्त होगा, जिसके वे पहले से ही पात्र हैं.

उत्तर प्रदेश सरकार ने भी पिछले हफ्ते गरीबों के लिए राहत योजनाओं की घोषणा की थी, ऐसा करने वाला पहला राज्य है इसमें दैनिक वेतन भोगियों के साथ-साथ प्रति माह 1,000 रुपये का भत्ता और साथ ही महामारी समाप्त होने तक मुफ्त राशन भी शामिल था.

हालांकि, कई संभावित लाभार्थी इस पर विश्वास नहीं कर रहे हैं. मुरादनगर के एक मजदूर शांति देवी ने कहा, ‘जब तक हमें पैसे नहीं मिलते, तब तक हम इस बात पर यकीन नहीं कर सकते.’

उसके जैसे कई लोग, जो यूपी के अंदरूनी हिस्सों में रहते हैं, उनकी चिंता न सिर्फ लॉकडाउन के दौरान जीवित रहने की है, बल्कि यह भी पता करना है कि शहरों से गांवों में लौटने वालों के साथ सीमित संसाधनों को कैसे साझा किया जाए.

जीवित रहने के लिए लंबी यात्रा

राष्ट्रीय राजधानी में प्रवासी कामगारों की लॉकडाउन के दो दिन बाद भी यूपी के उनके गांवों की यात्रा जारी रही. अंतर्राज्यीय बसों के साथ सड़कों और यात्री ट्रेनों को महीने के अंत तक रोक दिया गया है, परिवहन के साधन के केवल दो विकल्पों तक ही सीमित हैं- पैदल या साइकिल.

दिल्ली के सीलमपुर में एक टेलर के रूप में काम करने वाले विकास शर्मा ने कहा, ‘मैं सुबह 8 बजे से चल रहा हूं, मुझे हरदोई में अपने गांव जाने के लिए कम से कम दो दिन का समय लगेगा.’

लोग दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेस वे से अपने गांवों में वापस जाते हुए। लॉकडाउन ने अंतर-राज्यीय सार्वजनिक परिवहन के सभी साधनों को बंद कर दिया है। प्रवीण जैन/ दिप्रिंट

शर्मा उन सैकड़ों मजदूरों में शामिल थे, जिन्हें गुरुवार शाम दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे पर चलते देखा गया था. उनमें से कई हरदोई और इटावा की तरफ बढ़ रहे थे. दिल्ली से लगभग 300-400 किमी दूर स्थित इन गांवों में सामान्य परिस्थितियों में 5-7 घंटे की बस यात्रा से पहुंचा जा सकता है.

इन मजदूरों के लिए उनके गांव रोजगार का वादा नहीं कर सकते, लेकिन यह फिर भी निराशा की स्थिति में उम्मीद की आखिरी किरण हैं.

दिप्रिंट से बात करते हुए एक अन्य मज़दूर बंटू राम ने कहा, ‘गांव में जीवित रहना आसान है. यदि आप जानते हैं कि आप संघर्ष कर रहे हैं तो लोग आपकी मदद करेंगे. कुछ नहीं तो आप खेतों में काम करके ठीक ठाक जीवन यापन कर सकते हैं. शहरों में ऐसी कोई संभावना नहीं है.’

उनके और उनके जैसे सैंकड़ो लोगों के लिए, लंबी यात्रा सिर्फ गांव तक ही नहीं है. बल्कि कोरोना से निपटने के अनिश्चितता के साथ भी है. कोरोनावायरस का प्रसार जारी है और दुनिया भर के देशों ने इसका सामना करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments