जैसलमेर: 8 मई को दोपहर के 2:36 बजे थे जब मुझे मेरे एडिटर का मैसेज मिला: ‘तुरंत जोधपुर जाओ’. पहले तो मैं समझ नहीं पाया कि यह कितना ज़रूरी था, लेकिन कुछ ही मिनटों में यह क्लियर हो गया — मुझे भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव के चलते राजस्थान के सीमावर्ती जिलों को कवर करने जाना था. जाने का दिन तय था, लेकिन वापसी की तारीख नहीं.
पाकिस्तान लगातार भारत के सीमावर्ती राज्यों पर हमला कर रहा था और भारत भी बराबर जवाब दे रहा था. इससे मुझे बॉर्डर से रिपोर्टिंग करने का कोई अनुभव नहीं था. मैंने सिर्फ 1965, 1971 और फिर कारगिल में भारत-पाकिस्तान युद्धों की कहानियां पढ़ी और सुनी थीं.
मन में अंदर डर था, लेकिन उत्साह भी था — यह ज़िंदगी में एक बार होने मिलने वाला एक्सपीरियंस था. मैंने इसे चुनौती की तरह लिया और मैं इसे करने के लिए तैयार था.

भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने एक बार कहा था कि हर व्यक्ति को खतरे का आभास होता है, लेकिन इसके लिए एक वक्त होता है: कुछ लोग घटना से पहले ही इसे भांप लेते हैं, कुछ घटना के दौरान और कुछ घटना के बाद. उन्होंने कहा था, “मैं तीसरी श्रेणी में आता हूं. जब सब कुछ खत्म हो जाता है और हम घर वापस आते हैं और सिगरेट जलाते हैं, तब हम सोचते हैं कि क्या हो सकता था.”
डोभाल के शब्दों में कहें तो, मैं भी तीसरी श्रेणी में आता हूं. अब, जब मैं जैसलमेर में बिताए अपने तीन दिनों के बारे में लिख रहा हूं — जहां कई ड्रोन हमले हुए और यहां तक कि प्रोजेक्टाइल भी गिरे — तो ग्राउंड पर बिताए वह दिन हफ्तों जैसे लग रहे हैं. अब, मुझे लगता है कि कुछ भी हो सकता था, लेकिन उस दौरान, मुझे ग्राउंड पर जो कुछ भी दिखाई दिया, उसे रिपोर्ट करना था — पाकिस्तान के खतरों को रोकने के लिए जिला प्रशासन और राजस्थान सरकार की तैयारियां.
यह आसान नहीं था, खासकर तब जब पाकिस्तान की सीमा से बमुश्किल 100 किलोमीटर दूर रेगिस्तानी शहर में पूरी तरह से ब्लैकआउट के बीच ड्रोन की आवाज़ें गूंज रही थीं. जैसलमेर क्षेत्र में आखिरी बार संघर्ष 1971 में हुआ था, जब सीमा के निकट लोंगेवाला की लड़ाई हुई थी, जिसका नेतृत्व मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी ने किया था.
रेगिस्तानी शहर जैसलमेर की यात्रा
रेगिस्तानी शहर की मेरी यात्रा पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से शुरू हुई. मेरी ट्रेन रात 9:20 पर थी और रात 9:03 तक मैं ITO स्थित अपने ऑफिस में बुलेटप्रूफ जैकेट और हेलमेट लेने के लिए रुका हुआ था. मैं बाइक से रात करीब 9:18 बजे जैसे ही स्टेशन पहुंचा, प्लेटफॉर्म से ट्रेन लगभग जाने लगी थी. मैं जितनी तेज़ी से भाग सकता था, भागा, अपना सामान ट्रेन में डाला और चलती ट्रेन में चढ़ गया. यह बॉर्ड तक मेरी साहसिक यात्रा की शुरुआत थी.
जब मैं शुक्रवार की सुबह जोधपुर पहुंचा तो शहर में एक अजीब सी खामोशी थी. पूरी रात बिजली गुल रहने के बाद जब शहर जागा तो लोगों के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं, लेकिन जोधपुर अभी भी थोड़ा सुरक्षित था. इसलिए मैं करीब 280 किलोमीटर दूर जैसलमेर की ओर चल पड़ा, जहां कथित तौर पर पाकिस्तानी ड्रोन राजस्थान की सीमा के पास भारतीय क्षेत्र में घुस रहे थे. ड्रोन का मलबा कई जगहों पर गिरा था. हालांकि, सौभाग्य से, कोई हताहत नहीं हुआ.
जोधपुर से जैसलमेर जाते समय मैं पोकरण से होकर गुज़रा, जहां भारत ने 1974 और 1998 में परमाणु परीक्षण किए थे. रास्ते में दो गानों ने मेरा मन लगाए रखा: ‘मंजर है ये नया’ और ‘सैम मानेकशॉ’ फिल्म का ‘बढ़ते चलो’. लोग अपनी दुकानें बंद कर रहे थे क्योंकि रात में पोकरण पर पाकिस्तानी ड्रोन हमला कर रहे थे. शाम के 4 बज रहे थे और स्थानीय लोगों ने बताया कि रात के वक्त आस-पास के इलाकों में ड्रोन की आवाज़ें आ रही थीं.

लेकिन पोकरण के लोग डरे नहीं. स्थानीय निवासी रावल राम परिहार ने मुझे बताया कि पोकरण की धरती पर भारत परमाणु हथियारों के मामले में आत्मनिर्भर बन गया है. अपनी ऑटोमोबाइल पार्ट्स की दुकान बंद करते हुए उन्होंने गर्व से कहा, “इस धरती के लोग डरने वाले नहीं हैं.”
शाम 7 बजे मैं जैसलमेर पहुंचा. पूरा शहर अंधेरे में डूबा था और पुलिस हर आने-जाने वाले वाहन की जांच कर रही थी. शहर में केवल चांद की चांदनी ही रोशनी कर रही थी, बाकी लोग रात बीतने का इंतज़ार कर रहे थे. जैसलमेर हमेशा से मेरी यात्रा सूची में था, लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं ऐसे हालातों में वहां जाऊंगा.

आखिरी बार मैंने किसी भारतीय शहर में ऐसा उजाड़ लॉकडाउन के दौरान देखा था. दुकानें बंद थीं, लाइटें बंद थीं — अंधेरे में एकमात्र उम्मीद जैसलमेर के आसमान में फैली चांदनी थी. जैसे-जैसे रात गहराती गई, पाकिस्तानी ड्रोन फिर से जैसलमेर के ऊपर मंडराने लगे, लेकिन भारत की वायु रक्षा प्रणाली ने उन्हें हवा में ही नाकाम कर दिया, जिसका मलबा कई गांवों में गिरा.

सुबह के हमले और संघर्ष विराम
जैसलमेर और बाड़मेर के ऊपर पाकिस्तानी ड्रोन देखे गए, जिन्हें भारतीय वायु रक्षा प्रणाली की जवाबी कार्रवाई ने नाकाम कर दिया. ड्रोन और प्रोजेक्टाइल का मलबा कई गांवों में गिरा. जैसलमेर शहर से करीब 35 किलोमीटर दूर बड़ौदा गांव की एक ढाणी में एक प्रोजेक्टाइल घर के पास गिरा. वहां सो रहे व्यक्ति बाल-बाल बच गए, लेकिन पास में एक बड़ा गड्ढा बन गया. पुलिस और सेना को सूचना दी गई और उन्होंने मलबे को जांच के लिए भेज दिया.
पूरे दिन ग्रामीणों ने मीडिया के साथ अपनी कहानियां साझा कीं और पाकिस्तान की जमकर निंदा की. भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष विराम समझौते के बाद एक दिलचस्प घटना घटी. जैसलमेर के सभी बाज़ार तुरंत गुलज़ार होने लगे. चाय की दुकानों पर चाय उबलने लगी और सैकड़ों लोगों ने ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम’ के नारे लगाए, लेकिन शाम को संघर्ष विराम उल्लंघन की खबर आने पर यह खुशी कुछ ही घंटों में फीकी पड़ गई. पूरा शहर एक बार फिर ब्लैकआउट में चला गया और लोगों के घर अंधेरे में डूब गए.
जैसलमेर की चिलचिलाती गर्मी में उन अंधेरी रातों और थकाऊ दिनों में, एकमात्र चीज़ जिसने मुझे मुस्कुराहट दी और मुझे प्रेरित किया, वह था मेरे एडिटर का मैसेज, जिसमें पूर्व अमेरिकी राजदूत बॉब ब्लैकविल का हवाला दिया गया था: “अपने मुश्किल वक्त को संभालो क्योंकि कल वही तुम्हारे अच्छे पुराने दिन होंगे.”
अब, जब मैं दिल्ली से यह अनुभव लिख रहा हूं, तो वह तीन दिन वाकई अच्छे पुराने दिनों की तरह लग रहे हैं — मुश्किल, थकान से भरे, लेकिन कभी न भूलने वाले और हमेशा मेरे दिल के करीब. यहां, मुझे कवि शिवमंगल सिंह सुमन की पंक्तियां याद आ रही हैं, जिन्हें अक्सर अटल बिहारी वाजपेयी उद्धृत करते थे: ‘कर्तव्य पथ पर जो भी मिला, यह भी सही, वह भी सही.’
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