नई दिल्ली: देश के दवा निर्यात से जुड़े शीर्ष संगठन ने मोदी सरकार को बताया है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस माह के शुरू में जिस ‘बाय अमेरिकन फर्स्ट’ आदेश पर हस्ताक्षर किए हैं वह शायद ही भारतीय दवा निर्माताओं को प्रभावित करेगा. बल्कि यह उनके लिए फायदेमंद ही साबित होगा. दिप्रिंट को यह जानकारी मिली है.
गौरतलब है कि 6 अगस्त को ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें संघीय एजेंसियों को घरेलू स्तर पर निर्मित दवाओं और चिकित्सा सामग्री की खरीद को प्राथमिकता देने का निर्देश दिया गया है.
भारत के फार्मास्युटिकल उद्योग के लिए अमेरिका सबसे बड़ा बाजार है और इसलिए पहले यही माना गया कि आदेश का सबसे अधिक प्रभाव भारतीय उद्योग पर ही पड़ने वाला है.
हालांकि, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने अपनी शाखा फार्मास्युटिकल्स एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल ऑफ इंडिया (फॉर्मेक्सिल) से ट्रंप के फैसले का विश्लेषण करने के बाद अपनी राय बताने को कहा था.
फॉर्मेक्सिल के महानिदेशक उदय भास्कर ने दिप्रिंट को बताया, ‘अपनी टिप्पणी में फॉर्मेक्सिल ने वाणिज्य मंत्रालय को बताया है कि यह आदेश भारतीय दवा निर्माताओं पर शायद ही कोई प्रभाव डालेगा.’
फॉर्मेक्सिल प्रमुख ने कहा कि उन्होंने मंत्रालय को सूचित किया है कि ‘अमेरिकी सरकार घरेलू निर्माताओं से संघीय सरकारी खरीद के लिए किफायती चिकित्सा आपूर्ति की संभावनाएं तलाश रही है.’
उन्होंने कहा, ‘संघीय सरकार की तरफ से आवश्यक दवाएं खरीदने के स्रोत को लेकर जारी कार्यकारी आदेश लागत के कारण प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ सार्वजनिक खरीद प्रणाली में नाममात्र की भागीदारी के कारण भारत द्वारा आपूर्ति की जाने वाली जेनेरिक दवाओं पर बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं डालेगा’
एजेंसी ने अगस्त के दूसरे हफ्ते में मंत्रालय को सौंपी अपनी टिप्पणी में उन महत्वपूर्ण खंडों पर भी रोशनी डाली जो भारतीय उत्पादों को ‘मेड इन अमेरिका’ उत्पादों की श्रेणी में आने से रोकता है.
दिप्रिंट की नज़र में आई टिप्पणियों की यह प्रति बताती है, ‘कार्यकारी आदेश के एक्जम्सन क्लाज (सेक्शन 2 (एफ) (आई) (3)) में कहा गया है कि ‘लागत 25 फीसदी से अधिक बढ़ने की स्थिति में स्थानीय खरीद का प्रावधान लागू नहीं होगा.’
इसमें आगे लिखा है, ‘यह भारत के लिए अनुकूल होगा. अनुमान के मुताबिक अमेरिका जैसे विकसित देशों की तुलना में भारत में विनिर्माण लागत 30-40 प्रतिशत कम है.’
‘ये क्लॉज इसका संकेत देता है कि भारत से निर्यात की जाने वाली अधिकांश कम लागत वाली दवाइयां इससे बाहर हो जाएंगी क्योंकि फॉर्मूलेशन के संदर्भ में भारत और अमेरिका के बीच निर्माण लागत कई कारणों से बेहद महत्वपूर्ण है और भारत अमेरिका को आपूर्ति का एक बड़ा स्रोत मुहैया कराता है.’
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यह क्लॉज भारत के लिए कैसे हो सकता फायदेमंद?
भास्कर ने स्पष्ट किया, ‘यह क्लॉज भारत के लिए यूरोपीय संघ और चीन जैसे अन्य देशों के साथ बेहतर प्रतिस्पर्धा में मददगार साबित होगा, जो अमेरिका को चिकित्सा उत्पादों की आपूर्ति करते हैं क्योंकि भारत सुरक्षित तौर पर उस ब्रैकेट में आ जाएगा जहां खरीद लागत 30-40 प्रतिशत से कम है.’
अब तक, वैल्यू के संदर्भ में अमेरिकी जेनेरिक बाजार में 10 फीसदी हिस्सा भारतीय जेनेरिक का है.
उन्होंने कहा, ‘यह हमारे लिए एक अवसर हो सकता है जिसमें भारतीय दवा निर्माता बाकी 90 प्रतिशत हिस्से पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने के प्रयास कर सकते हैं.’
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संघीय खरीद पहले से ही कम है
एजेंसी ने अपनी टिप्पणियों में एक महत्वपूर्ण बिंदु की ओर मंत्रालय का ध्यान आकृष्ट किया है कि ‘संघीय सरकार की खरीद पहले से ही कुछ हद तक बाय अमेरिकन एक्ट (बीएए) और ट्रेड एग्रीमेंट एक्ट (टीएए) के तहत ‘यूएस-मेड’ तक ही सीमित है.’
टिप्पणी संबंधी प्रति में लिखा है कि चूंकि भारत बीएए और टीएए के तहत नहीं आता है, ‘अमेरिकी संघीय खरीद में भारत की हिस्सेदारी नगण्य है. भारत आधारित अधिकतर जेनेरिक अमेरिका के निजी बाजार में इस्तेमाल होते हैं और वैल्यू के लिहाज में अमेरिकी जेनेरिक बाजार में हमारी हिस्सेदारी लगभग 10 प्रतिशत है.’
हालांकि, भारत अभी उन दवाओं की सूची के बारे में ज्यादा स्पष्ट नहीं है जिनका अमेरिका में घरेलू स्तर पर उत्पादन का फैसला किया जाएगा.
अगस्त के पहले हफ्ते में जारी आदेश में अमेरिकी ड्रग वॉचडॉग, फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) को घरेलू स्तर पर उत्पादन के संदर्भ में ‘आवश्यक दवाओं, चिकित्सा काउंटरमेजर्स और क्रिटिकल इनपुट’ की सूची बनाने का निर्देश दिया गया था.
भास्कर ने कहा, ‘एफडीए की तरफ से आवश्यक दवाओं की सूची की पहचान करना अभी बाकी है, यह भी स्पष्ट नहीं है कि आदेश के तहत किन दवाओं को रखा गया है.’
भास्कर ने कहा कि बल्क ड्रग्स के उत्पादन के संदर्भ में, जिसे सक्रिय फार्मास्यूटिकल्स इन्ग्रेडिएंट (एपीआई) के तौर पर भी जाना जाता है, एजेंसी ने सरकार को सूचित किया है कि इसमें लगने वाला समय और लागत ‘बहुत ज्यादा है, इसलिए फर्मेंटेशन और की स्टार्टिंग मैटीरियल (केएसएम) में स्विचओवर किए बिना यह आसानी से संभव नहीं है, जिसमें भारत किसी भी तरह से भागीदार नहीं है.’
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अमेरिकी बाजार भारत के लिए महत्वपूर्ण क्यों?
फॉर्मेक्सिल के आंकड़ों के अनुसार, 2019-20 में भारत का अमेरिका में निर्यात 6.74 बिलियन डॉलर था जिसमें से फॉर्मुलेशन (जेनरिक) का निर्यात 6.25 बिलियन डॉलर था.
अप्रैल 2020 तक भारतीय दवा उद्योग को भारतीय निर्माताओं की तरफ से नई दवाओं के निर्यात के संबंध में भेजे गए आवेदनों में 5,000 से अधिक पर अमेरिकी मंजूरी मिल चुकी है.
कार्यकारी आदेश एफडीए को आवश्यक दवाओं, मेडिकल काउंटरमेजर्स और क्रिटिकल इनपुट की प्रारंभिक सूची तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपने के साथ ही संघीय सरकार को कुछ दवाएं अमेरिकी फैक्टरियों से खरीदने का निर्देश देता है.
आदेश ने ‘क्रिटिकल’ आवश्यकताओं को दीर्घकालिक घरेलू उत्पादन बढ़ाने, किसी भी तरह की कमी जैसी स्थिति से बचने और विदेशी निर्माताओं पर निर्भरता घटाने के तौर पर रेखांकित किया है.
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