नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक सेशंस कोर्ट जज की बहाली का आदेश जारी किया है, जिन्हे नौकरी से हटा दिया गया था, आदेश जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एक ग़लत फैसले से ‘अनुशासनिक कार्यवाही शुरू करने का’ मामला नहीं बनता, जब तक कि किसी ‘बाहरी विचार या परोक्ष अभिप्राय’ का सुबूत न हो.
न्यायमूर्ति यूयू ललित और विनीत सरन की खंडपीठ ने कहा,’किसी भी न्यायिक अधिकारी से ग़लती हो सकती है, और लापरवाही को दुराचार से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. बेंच ने आगे कहा कि किसी आदेश में त्रुटियां होने की स्थिति में, जब तक कोई ‘भ्रष्ट मक़सद’ न हो, उच्च न्यायालयों को निचली अदालतों के जजों का ‘सही मार्गदर्शन’ करना चाहिए.’
मंगलवार को दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला, राजस्थान के एक सेशंस कोर्ट जज अभय जैन के मामले से जुड़ा है, जिन्हें 2016 में एक पूर्व नगर निगम अध्यक्ष को, एक साल पहले के एक भ्रष्टाचार मामले में, कथित रूप से ज़मानत देने के दुराचार के चलते, उनके पद से हटा दिया गया था.
राजस्थान उच्च न्यायालय ने जैन के आदेश पर आपत्ति जताई थी, और इस संदेह पर उनके खिलाफ विभागीय जांच के आदेश दिए थे, कि उन्होंने ‘बाहरी या परोक्ष मक़सद और बाहरी विचारों’ के चलते कार्रवाई की थी.
2016 में असंतोषजनक प्रदर्शन के आधार पर, जब उन्हें पद से हटा दिया गया, तो जैन ने राजस्थान हाईकोर्ट में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें अन्य बातों के अलावा, उन्होंने जांच कार्यवाही को ख़ारिज करने, और परिणामी लाभ के साथ अपनी बहाली की मांग की थी. लेकिन, हाईकोर्ट ने रिट याचिका को ख़ारिज कर दिया. उसके बाद जैन ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया.
सुप्रीम कोर्ट ने राहत दी
मंगलवार को अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, कि राजस्थान हाईकोर्ट ने जैन के कथित दुराचार की जांच के आदेश दिए, और अंत में उनके असंतोषजनक प्रदर्शन के लिए उनकी छुट्टी कर दी. लेकिन, जैन की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट्स (एसीआर) उन्हें नहीं दिखाई गईं.
एससी ने कहा कि जैन के असंतोषजनक प्रदर्शन के बारे में, उन्हें कोई सूचना नहीं दी गई, और इसलिए उन्हें कभी सुधरने का मौक़ा नहीं मिला.
सेवा-मुक्ति आदेश को ख़ारिज करते हुए, जिसे एचसी ने स्वीकृत किया था, शीर्ष अदालत ने सेवा तथा वरिष्ठता की निरंतरता समेत सभी परिणामी फायदों के साथ, जज की पुनर्नियुक्ति का निर्देश दे दिया. लेकिन, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वो पिछले वेतन के केवल 50 प्रतिशत के हक़दार होंगे, जो उन्हें चार महीनों के भीतर अदा किया जाएगा.
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विवादापद ज़मानत आदेश
जैन के खिलाफ की गई कार्रवाई की जड़ें दरअसल 2015 तक जाती हैं, जब वो भरतपुर में एक भ्रष्टाचार विरोधी अदालत की अध्यक्षता कर रहे थे. उन्हें एक केस दिया गया जो भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज किया गया था, और जिसमें नगर निगम के तत्कालीन अध्यक्ष एके जालिया, पुलिस कॉन्सटेबल अलीमुद्दीन और एक अन्य सह-अभियुक्त इरफान शामिल थे.
दिसंबर 2014 में गिरफ्तार की गई इस तिकड़ी ने, अलग अलग समय पर कोर्ट में अपनी अपनी ज़मानत याचिकाएं डालीं थीं. उनकी पहली ज़मानत याचिकाएं जैन के पूर्ववर्त्ती के सामने आईं, जिन्होंने उन्हें ख़ारिज कर दिया.
जैन ने मामले की सुनवाई पहली बार तब की, जब उनकी इस कोर्ट में तैनाती के कुछ समय बाद ही, फरवरी 2015 में तीनों अभियुक्तों के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई थी.
जब जालिया ने ज़मानत के लिए एचसी का दरवाज़ा खटखटाया, उसी समय अलीमुद्दीन ने अपनी रिहाई के लिए जैन की कोर्ट में आवेदन दिया. मार्च में, जालिया ने जैन की कोर्ट में एक ताज़ा ज़मानत याचिका दायर की. इधर उसकी ज़मानत याचिका लंबित थी, उधर हाईकोर्ट ने अप्रैल 2015 में दूसरे सह-अभियुक्तों, इरफान और अलीमुद्दीन को ज़मानत पर रिहा कर दिया.
कई सुनवाईयों, और पुलिस को जालिया पर मुक़दमा चलाने की स्वीकृति के अनुरोध के बारे में, कोर्ट को अवगत कराने के कई अवसर दिए जाने के बाद, जैन ने आख़िकार 27 अप्रैल 2015 को उसे ज़मानत पर रिहा कर दिया.
अगले दिन, पुलिस ने जालिया पर मुक़दमा चलाने की मंज़ूरी को कोर्ट के सामने पेश कर दिया, और उसके फौरन बाद एचसी ने केस रिकॉर्ड्स तलब कर लिए.
राजस्थान हाई के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने जैन को स्पष्टीकरण देने के लिए तलब कर लिया. उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने जालिया को ज़मानत दे दी, और दो महीने पुराने हाईकोर्ट ऑर्डर को नज़र अंदाज़ किया, जिसमें ऐसी राहत देने से इनकार किया गया था.
अपने जवाब में, जैन ने स्वीकार किया कि उन्हें ज़मानत याचिका के ज्ञापन से पता चल गया था, कि ज़मानत ख़ारिज की जा चुकी है. लेकिन, चूंकि आदेश उनके सामने पेश नहीं किया गया, इसलिए उन्होंने मान लिया कि परिस्थितियां बदल गई हैं.
इसके अलावा, उन्होंने सफाई दी कि अभियुक्त चार महीने जेल में गुज़ार चुका था, और अभियोजन की स्वीकृति न होने की वजह से, बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं था कि इस केस में सुनवाई कब शुरू होगी.
साथ ही उन्होंने एचसी को ये भी बताया, कि दो सह-अभियुक्तों को एचसी से पहले ही ज़मानत मिल चुकी थी.
मुख्य न्यायाधीश ने जैन के स्पष्टीकरण को ख़ारिज कर दिया, और न्यायिक अधिकारियों को शासित करने वाले नियमों के तहत, उनके खिलाफ विभागीय जांच शुरू करने के निर्देश जारी कर दिए.
निष्कर्ष ये निकाला गया कि जैन को, जालिया को ज़मानत देने से बचना चाहिए था, और जांच जज ने व्यक्तिगत सुनवाई के बिना, उनकी शुरुआती आपत्तियों को ख़ारिज कर दिया. इसी बीच, कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान ही, एचसी की पूरी बेंच ने जैन को सेवा से हटा दिया.
पीड़ित जैन ने अपने हटाए जाने को एचसी में चुनौती दी, लेकिन उनकी याचिका ख़ारिज कर दी गई. एचसी ने जैन के इस तर्क को माना, कि उनके खिलाफ कोई लिखित शिकायत नहीं थी, लेकिन प्रशासनिक आदेश को इस आधार पर स्वीकृति दे दी, कि उनके खिलाफ कुछ मौखिक शिकायत ज़रूर रही होगी.
सुप्रीम कोर्ट में बेंच ने तर्क दिया कि जैन को हटाया जाना ‘असंतोषजनक प्रदर्शन’ पर आधारित नहीं था, जो कि सेवा नियमों के अंतर्गत ज़रूरी है, बल्कि उनके खिलाफ शुरू की गई एक जांच पर आधारित था. एचसी ने इस आधार पर अपने फैसले का बचाव किया, कि वो ऐसे कर्मचारी की सेवाएं ख़त्म करने का ‘हक़दार’ था, जिसके खिलाफ आरोप लगाए गए हों.
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सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा
एचसी के फैसले के विपरीत, एससी ने कहा कि डिस्चार्ज आदेश दंडात्मक प्रकृति का था, क्योंकि उसमें जज के दुराचार को साबित नहीं किया गया था.
ज़मानत आदेश के गुणों पर बात करते हुए, जो जैन को हटाए जाने का कारण बने, एससी ने कहा कि जालिया को ज़मानत देने के पीछे एक उचित कारण मौजूद था. उसने कहा कि एचसी पहले ही, दो अन्य सह-अभियुक्तों को ज़मानत दे चुका था.
एससी ने कहा, ‘अपीलकर्त्ता सक्षम था, और अपने न्यायिक कार्यों के निर्वहन में अभियुक्त को ज़मानत देना, पूरी तरह उसके अधिकार क्षेत्र में था.’
कोर्ट ने आगे कहा कि ज़्यादा से ज़्यादा जज ‘इसका दोषी हो सकता है कि उसने केस फाइल को एहतियात से देखने में लापरवाही दिखाई’, लेकिन इसे किसी ‘दुराचार’ की तरह नहीं देखा जा सकता.
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