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Tuesday, 26 November, 2024
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ध्रुपद, दलित कविता, ग़ालिब – कैसे दिल्ली का एक गायक संगीत की शुद्धता पर उठा रहा है सवाल

दलित सरोकारों पर किताबे छापने वाले एस आनंद ने कर्नाटक संगीत में ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रह से लड़ने के लिए 15 साल पहले गाना बंद कर दिया था. आज वह खुद को एक हाइब्रिड शैली के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं.

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नई दिल्ली: ध्रुपद, दलित कविता और दिल्ली का वंचित तबका, नेहरूवादी बुद्धिजीवी गुरुवार को दिल्ली में एक अभिनव राग कार्यक्रम में एक साथ आए. इन्होंने शास्त्रीय तमिलनाडु से अम्बेडकर के महाराष्ट्र से दिल्ली की गालिब की सड़कों तक की यात्रा की प्रस्तुति दी.

मौका था इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की ‘ए ईयर ऑफ़ पोएट्री’ सीरीज़ का और जाति-विरोधी प्रकाशक एस. आनंद इसके पहले संस्करण के कलाकार थे. दिल्ली स्थित पब्लिशिंग हाउस नवायना के सह-संस्थापक आनंद उस्ताद वसीफुद्दीन डागर के छात्र रह चुके हैं, जो गायन की ध्रुपद शैली के उस्ताद और प्रसिद्ध डागर घराने के विशेषज्ञ हैं. ‘ए लैम्प टू द सन’ नामक कार्यक्रम में आनंद ने बताया कि कैसे तमिल संगम-युग की कविताएं, वाचन (कन्नड़), अभंग (मराठी), निर्गुण शब्द (ब्रज), सुत्त (पाली) और ग़ज़ल रागों में घुल-मिल जाते हैं.

यह दिल्ली के किसी भी अन्य संगीत कार्यक्रम से एकदम उलट था. यह संगीत, साहित्य और प्रदर्शन में शुद्धतावादी आग्रह के खिलाफ प्रतिरोध था.

मूड, टोन, सेटिंग

कार्यक्रम में एक छोटे से मंच की सामान्य सी सेटिंग थी. सामने रखी कुछ लकड़ी की कुर्सियां और एक कोने में सफेद मंच पर सजी बी.आर. अम्बेडकर की तस्वीर, जिसके चारों ओर कुछ फूल बिखरे हुए थे. ये साधारण सी साज-सज्जा कार्यक्रम के मूड को परिभाषित कर रहे थे. शांत हॉल जल्द ही एस. आनंद के तानपुरा से आने वाली सुरीली आवाजों से गूंजने लगा. दर्शक रागों और कई भारतीय परंपराओं में लिपटे एक काव्य यात्रा में बहते चले गए.

आनंद ने 200 ईसा पूर्व के आसपास संगम-युग के कवि सेम्पुलापेयनेरर की एक कविता के साथ शुरुआत की, जिसे आनंद ने धुनों में पिरोया था. ‘लाइक पौरिंग रेन रैड विद अर्थ’ शीर्षक वाली कविता में प्रेम और लालसा का वर्णन किया गया है. आनंद ने कहा, कि ये कविताएं दर्शाती हैं कि लालसा जाति से परे है. उनकी दूसरी कविता, संत बसवन्ना की 12 वीं शताब्दी का एक वाचन, जिसे ए के रामानुजन ने अनुवादित किया है, एक विनम्र भक्त की वफादारी को दर्शाती है. इसका अनुवाद है:

‘अमीर लोग शिव के लिए मंदिर बनाएंगे,

मैं, एक गरीब आदमी, क्या करूं?’

आनंद ने अपनी प्रस्तुति के दौरान दर्शकों को बताया, ‘ये वाचन ही भाषा का निर्माण करते हैं. ये भाषा के पहले उच्चारण थे. इसे विभिन्न जातियों और व्यवसायों से संबंधित कवियों के एक समुदाय ने लिखा था. इसमें ब्राह्मणों ने भी योगदान दिया.’

फिर उन्होंने दो अभंग गाए – एक की रचना संत तुकाराम महाराज ने की थी और दूसरी को 14 वीं शताब्दी की दलित महिला कवि संत सोयराबाई ने लिखा था. उन्होंने कहा, ‘मैंने इस कविता को नीला भागवत और जेरी पिंटो की किताब एन एंट हू स्वॉल्व्ड द सन में खोजा. यह किताब मराठी महिला कवि पर आधारित है, जिनके बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते हैं. सोयराबाई अपनी दुर्दशा लिखती हैं और भगवान के खिलाफ शिकायत करती हैं. वह कहती है कि उन्हें उनकी दलित पहचान के कारण भगवान को देखने की अनुमति नहीं है. वह कविता का अंत ‘चोख्याची महारई’ वाक्यांश के साथ करती हैं, जहां महारई एक नीची जाति माना जाती थी और उनकी दलित पहचान भी थी.’

सोयराबाई का अभंग कहता है, ‘किती किती बोलू देवा, किति कारु आता हेवा (हे भगवान, मैं और कितना भीख मांगूं? यह ईर्ष्या मुझे तब तक सहन करनी होगी जब तक आप ध्यान न देंगे)’. उसकी लाचारी गुस्से में बदल जाती है: ‘अता न धारी तुमची भीड, माजा नहीं दूजी चाड (मुझे तुमसे कोई डर नहीं है, मुझे किसी से कोई डर नहीं है)’.

परंपरा के खिलाफ जाते हुए

आनंद ने कहा कि वह विशेष रूप से अभंगों के प्रति यह जानने के बाद खासा आकर्षित हुए कि अम्बेडकर ने उन्हें अपने समाचार पत्रों में जगह दी थे, यह जानते हुए भी कि वे विट्ठल की प्रशंसा में गाए जाते थे – महाराष्ट्र में एक लोकप्रिय देवता जिन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है.

आनंद ने एक निर्गुण शबद, एक सुत्ता और क्रमशः राग भैरवी व खंबोजी में रचित गालिब की प्रसिद्ध ग़ज़ल ‘न था कुछ तो खुदा था …’ के साथ अपने प्रस्तुति का समापन किया.

अपनी प्रस्तुति के दौरान, आनंद ने खुद को ध्रुपद की शुद्धतम शैली तक सीमित नहीं रखा. उन्होंने प्रस्तुति की शुरुआत में दर्शकों को बताया, ‘यह एक आलाप प्रधान शैली है, लेकिन कविता पर आधारित आज के क्यूरेटेड कार्यक्रम में मैं केवल आलाप और ध्रुपद की पारंपरिक शैली पर ध्यान केंद्रित नहीं करूंगा.’ ध्रुपद से ओतप्रोत, गायन की मुक्त-प्रवाह शैली ने श्रोताओं को कविताओं की भावनाओं से जोड़ने में मदद की.

आनंद ने उल्लेख किया कि कर्नाटक संगीत परंपरा में प्रचलित ब्राह्मणवादी व्यवस्था से लड़ने के लिए उन्होंने 15 साल पहले गाना बंद कर दिया था. वह हैदराबाद में एक तमिल ब्राह्मण परिवार में पले-बढ़े और कुछ सालों तक कर्नाटक संगीत की शिक्षा ली. उसके बाद उन्होंने उन कविताओं पर सवाल उठाना शुरू कर दिया जो वह गा रहे थे. 2018 में उन्होंने ध्रुपद की ओर रुख किया और वसीफुद्दीन डागर से सीखना शुरू किया. ध्रुपद गायन की एक अधिक अमूर्त शैली है जो संगीत को बुनने के लिए अर्थहीन शब्दांशों पर जोर देती है. उन्होंने कहा, ‘मुझे आश्चर्य हुआ कि हम जाति-विरोधी आंदोलन से इतनी महान कविता अपने रागों के साथ क्यों नहीं गा रहे थे.’

आनंद ने कहा, ‘इस भूमि में, जहां हाइरार्की, असमानता और क्रूरता पनपती है, अद्वितीय उत्कृष्टता के दो क्षेत्र सभी के लिए खुले हैं – संगीत और कविता. कविताएं जो कभी-कभी धर्मनिरपेक्ष, कभी-कभी विश्वास के रंग में सजी होती हैं उन्हें ज्यादातर याद किया जाता है और गीतों के रूप में प्रसारित किया जाता है.’

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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